छत्तीसगढ़ सहित देश-विदेश में इन दिनों नेशनल ट्राइबल डांस फेस्टिवल को लेकर चर्चा जोरो में है। छत्तीसगढ़ की अनोखी आदिवासी संस्कृति -लोककला और यहां के पर्यटन को राष्ट्रीय पहचान देने राज्य सरकार बड़ा आयोजन 27 दिसंबर से राजधानी रायपुर में कर रही है। प्रदेश में पहली बार आयोजित किए जा रहे नेशनल ट्राइबल डांस फेस्टिवल में देश के 25 राज्यों के साथ ही छः देशों के 13 सौ से अधिक कलाकार इसमें शामिल हो रहे है। इस आयोजन में बेलारूस, युगांडा, थाईलैण्ड, श्रीलंका, मालद्वीप, बांग्लादेश सहित छः देशों के आदिवासी कलाकार भी अपनी प्रस्तुति देंगे।
छत्तीसगढ़ में बड़ी संख्या में जनजातियां निवास करती है। राज्य में लगभग 32 प्रतिशत आबादी जनजातियों की है। यहां 44 प्रतिशत भू-भाग पर वन हैं। हिमालय की तराई के बाद सबसे ज्यादा नदी नाले हैं। यहां आकूत खनिज सम्पदा है। उर्वरा धरती और मेहनत कश किसान यहां है। राज्य की पहचान धान के कटोरे के रूप में पूरे देश में है। यहां आदिवासी विकास की मुख्य धारा से कदम ताल कर रहे हैं साथ ही आज भी अपनी संस्कृति को समेटे और सहेजे हुए हैं।
देश के विविधता भरे समाज में आदिवासियों की अलग पहचान हैं। ये सीधे, सरल और प्रकृति पूजक होते हैं। उनका पूरा जीवन प्रकृति के इर्द गिर्द घूमता है। उनके हर कार्य नदी, पर्वत और वन से जुड़े होते हैं। उनके जीवन से हमें प्रकृति और वनों के महत्व की सीख मिलती हैं। आदिवासी समुदाय की अपनी सांस्कृतिक पहचान है। वे अपनी खुशियों का इजहार नृत्य से करते हैं। उनकी प्रकृति के अनुरूप उनके नृृत्य भी सरल और सहज होते हैं जिसमें उनके निश्छल मन की अभिव्यक्ति होती है। उनके नृत्य में भी प्रकृति की उपासना और उसके संरक्षण का संदेश छिपा होता है।
आदिवासियों की संस्कृति से हमें सीख लेनी चाहिए। आदिवसी समुदाय वनों और प्रकृति का अनुचित दोहन नहीं करते हैं केवल अपनी आवश्यकता और जरूरत को देखते हुए इस्तेमाल करते है। जिससे कि वन उनकी आने वाली पीढ़ी तक भी सुरक्षित रह सके। इस प्रकार सतत विकास और पर्यावरण संरक्षण की शिक्षा हमें मिलती है। यहां और भी महत्वपूर्ण बन जाता है जब कार्बन उत्सर्जन कम करने पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बल दिया जा रहा है, तब आदिवासियों की जीवन शैली से काफी कुछ सीखा जा सकता है।
एक तरह से नृत्य हमारी संस्कृति का अंग है। यह हमारी खुशियों की अभिव्यक्ति है। देखा जाए तो नृृत्य जीवन को नया रंग देते हैं। दिन प्रति दिन की उबाउ जिंदगी में ताजगी से भर देते हैं। यह जीवन में नई उमंग लाती है। नृत्य में योगिक क्रियाएं भी शरीर को स्वस्थ रखती है। इससे शरीर में चुस्ती फूर्ती बनी रहती है। नर्तक दलों के कदम ताल और सामंजस्य देखते ही बनता है। नृत्य के साथ स्वर लहरियों में एक अलग ही आकर्षण होता है। इसके साथ मांदर तुरही ढोल का संयोजन नृत्यों को और भी सरस बनाता है।
छत्तीसगढ़ में करमा त्यौहार के अवसर पर करमानृत्य किया जाता है। यह त्यौहार भाद्रपद शुक्लपक्ष एकादशी से प्रारंभ होकर दशहरा तक आयोजित किया जाता है। इस नृत्य में अंचल के महिला व पुरूष मांदर की थाप पर करमा गीत गाते हुए एक साथ कदम का संचालन कर थिरकते हैं। सरगुजा अंचल में आदिवासी फसल कटाई की खुशी में शैला नृत्य करते हैं। इस नृत्य में केवल पुरूष हिस्सा लेते हैं, ये हाथ में डंडा लिए मांदर की थाप पर एक दूसरे से डंडा मिलाते हुए कदमों का संचालन करते है।
शैला दल गांव-गांव जाकर हर घर में अपनी प्रस्तुति देते है। घर परिवार की समृद्धि की कामना करते है बदले में परिवार के लोग नेंग स्वरूप चावल और पैसा देते है। बायर नृत्य बैशाख माह के कृष्ण पक्ष तिथि को शिव-पार्वती के विवाह के आयोजन के अवसर पर किया जाता है। स्थानीय बोली में गाये जाने वाले विवाह गीतों में शिव-पार्वती की आराधना की जाती है। इस नृत्य में स्त्री तथा पुरूष दोनों ही शामिल होते हैं। कोरबा और सरगुजा जिले गौरा नृत्य किया जाता है। इस नृत्य में वानांचल क्षेत्र में संपन्न होने वाले विवाह शैली व परंपरा को शंकर पार्वती के विवाह के रूप में प्रगट कर गांव जनों के मंगल कामना व गांव के खुशहाली के लिए मनाया जाता है।
गौर नृत्य में गौर के सिंगों से मुकुट तैयार किया जाता है। मुकुट के सामने कौडियों की लडिया लकटती रहती है। जो चहरे को ढक देती है। भृंगराज पक्षी के पंखो को मुकुट में लगाकर सजाया जाता है, पुरूष गले में बड़ा ढोलक बजाते हुए मदमस्त होकर गौर की तरह सिर को हिलाते हुए नाचते हैं। महिलायें लोहे की छड़ी जिसे तिरड्डी कहते है। उसे जमीन पर पटकते हुए पुरूषों के साथ कदम से कदम मिलाकर नृत्य करती हैं।
(लेखक द्वय छत्तीसगढ़ जनसंपर्क में कार्यरत हैं)