कर्नाटक के उत्तरी कस्बे मुंडगोड़ के लोयोला हाई स्कूल में शाम का वक्त हो चुका है। स्कूल के मैदान में कोच रिजवान बेंदिगेरी और लक्ष्मी जी एम एक लड़के को पूरे रफ्तार में दौड़ते हुए देख रहे हैं। वह करीब 100 मीटर तक दौड़कर आता है, पीछे घूमता है और एक बार फिर से अपनी पोजिशन पर लौट आता है। वह यह काम बार-बार करता है। इस 13 वर्षीय लड़के का नाम साजिद यरगत्ती है और कुछ समय पहले तक अपनी मां के फोन पर उसेन बोल्ट को यूट्यूब पर फर्राटा भरते हुए बार-बार देखा करता था। धूल-भरे मैदान पर अपना नाम लिखते हुए साजिद ऐलान करता है, ‘एक दिन मैं बोल्ट का रिकॉर्ड तोड़ूंगा और भारत के लिए पदक जीतकर लाऊंगा।’
साजिद मुंडगोड के पास स्थित केंगालगिरि का रहने वाला है। वह एकांतवासी एवं वंचित समुदाय सिद्दी से ताल्लुक रखता है जिसे अफ्रीका के बंटु कबीले से संबंधित माना जाता है। इस कबीले के लोग भारत में पहली बार सातवीं सदी में अरब कारोबारी लेकर आए थे। बाद में पुर्तगाली एवं ब्रिटिश कारोबारियों के साथ भी बंटु आदिवासी भारत आते रहे। आज के समय में भी इस सिद्दी समुदाय के लोग मुख्यत: कर्नाटक, गुजरात, महाराष्ट्र एवं आंध्र प्रदेश के जंगली इलाकों में पाए जाते हैं।
बोल्ट को हराने का सपना
फर्राटा दौड़ में विश्व रिकॉर्ड धारी बोल्ट को चुनौती देने की मंशा रखने वाले साजिद की ही तरह कुछ और लोग भी देश के लिए पदक जीतने का सपना देखते हैं। लेकिन सीमांत इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए तो यह काम खास तौर पर मुश्किल है। अपनी जान-पहचान के सारे लोगों को पीछे छोड़कर आने वाले ये बच्चे खेल की दुनिया के चैंपियन बनने की मंशा के साथ अभ्यास में पूरी शिद्दत से जुट गए हैं। वैसे भी ये आवासीय ‘स्कूल’ उनकी जिंदगी को पहले से अधिक आसान बना रहे हैं। साजिद उन नौ बच्चों की टीम में शामिल है जिन्हें बेंगलूरु स्थित गैर-सरकारी संगठन ‘ब्रिजेज ऑफ स्पोट्र्स’ संवारने की कोशिश कर रहा है। इस संगठन के संस्थापक नीतीश चिनीवार की मानें तो ये बच्चे भारत के अगले ओलिंपिक चैंपियन से कम नहीं हैं। उन्होंने इस एनजीओ की शुरुआत वर्ष 2017 में की थी और भारत के अगले खेल चैंपियन की तलाश में अकेले नहीं हैं।
ऊटी में इंडियन ट्रैक फाउंडेशन
ऊटी में स्थित करण सिंह का इंडियन ट्रैक फाउंडेशन भी ट्रैक खिलाडिय़ों के हुनर को संवारने के काम में लगा हुआ है। वर्ष 2018 में अपने गठन के बाद से ही यह संगठन झारखंड के आदिवासी इलाकों सेे चुने गए 10 बच्चों को प्रशिक्षण दे रहा है। करीब 10-15 साल की उम्र के ये बच्चे करण सिंह के परिवार की तरह एक ही छत के नीचे रहते हैं और उन्हें वहां पर रहते हुए ही खेल की बारीकियां सिखाई जाती हैं। खुद भी एक पेशेवर रनर रह चुके करण वर्ष 2018 में शहरी जीवन की सुविधाएं छोड़कर ऊटी के इस इलाके में आ बसे। उनका मकसद यही है कि कम उम्र वाले प्रतिभाशाली बच्चों को चयनित कर उन्हें शुरू से ही इस तरह प्रशिक्षित किया जाए कि वे आगे चलकर देश को ओलिंपिक में पदक दिला सकें। इसमें भी उनका जोर मध्यम दूरी एवं लंबी दूरी की दौड़ों पर है।
उन्होंने दिल्ली में रहते हुए इंडियन ट्रैक क्लब का भी गठन किया था। लेकिन उनका मकसद उन्हें ऊटी लेकर आ गया। इस पहाड़ी शहर को चुनने के कई कारण थे। दरअसल ऊंची जगहों पर प्रशिक्षण लेने वाले एथलीटों के खून में लाल रक्त कणिकाओं की संख्या बढ़ जाती है जिससे मांसपेशियों तक अधिक ऑक्सीजन पहुंचती है और मैदानी इलाकों में दौड़ते समय इन खिलाडिय़ों को बाकी एथलीटों की तुलना में बढ़त मिल जाती है। इसके अलावा ऊटी की सहज, सुरक्षित एवं सरल जीवनशैली, ऑर्गेनिक उपज की उपलब्धता, स्टेडियमों एवं खेल मैदानों तक आसान पहुंच होने और पहाड़ की साफ हवा भी इसकी वजह थीं।
उनके कार्यक्रम में शामिल अधिकतर बच्चे मुंडा जनजाति या बिरहौर कबीले के हैं। करण बताते हैं, इन कबीलों के पूर्वज शिकारी हुआ करते थे या खेती करते थे और यह बात हमारे लिए फायदेमंद है। हालांकि इस कार्यक्रम के लिए बच्चों के चयन का पैमाना केवल यही नहीं था। उनके दो कोच भी झारखंड में मौजूद रहते हैं जो प्रतिभावान खिलाडिय़ों की तलाश में लगे रहते हैं। एक बार इन बच्चों को चिह्नित कर लिया जाता है तो करण उनकी क्षमताओं को परखते हैं और फिर मां-बाप की सहमति भी ली जाती है। अगर सब कुछ सही रहता है तो बच्चों को ऊटी के इस अकादमी में ले आया जाता है।
ब्रिजेज ऑफ स्पोट्र्स की तलाश
वहीं नीतीश का एनजीओ ‘ब्रिजेज ऑफ स्पोट्र्स’ नई प्रतिभाओं की तलाश के लिए जिले में वार्षिक प्रतिस्पद्र्धाएं आयोजित कराता है। पिछले दो महीनों में 500 प्रतिभागियों में से करीब 90 बच्चे चुनिंदा खिलाडिय़ों की सूची में शामिल हुए हैं। नए अकादमिक सत्र में एक प्रतिभाशाली बैच सुनिश्चित करने के लिए इस लंबी सूची में से ही बच्चे छांटे जाते हैं। प्रशिक्षण कार्यक्रम में शामिल किए जाने के पहले इन बच्चों को शारीरिक क्षमता, सहनशक्ति और ‘फेफड़े में दम’ जैसे पैमानों पर भी परखा जाता है।
इन संगठनों का मानना है कि शहरों से दूरदराज के इलाकों में रहने वाले हुनरमंद बच्चों को तराशना कहीं अधिक आसान है। इसकी वजह यह है कि उन्हें सब कुछ नए सिरे से सिखाना होता है और ध्यान भटकाने वाली चीजों की तरफ भी उनका झुकाव कम होता है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए पूर्व राष्ट्रीय रग्बी खिलाड़ी सैलेन टुडू ने भी वर्ष 2013 में आदिवासी रग्बी फाउंडेशन की नींव रखी थी। वह अपने छात्रों के बीच अक्सर यह कहते हुए सुनाई देते हैं, ‘आदिवासी के तौर पर हमारे भीतर जंगली जानवरों का शिकार करने की विशेष क्षमता है। रग्बी इससे कितना मुश्किल हो सकता है? यह मानसिक मजबूती के साथ ही शारीरिक ताकत से भी जुड़ा हुआ है।’ बंगाल के ऊतरी चाय बागानों में अपने मां-बाप के साथ पत्तियां तोडऩे वाली इन लड़कियों ने रग्बी को ही जरिया बनाते हुए दुनिया को देखने का नया रास्ता तलाशा है।
खेल ने भुवनेश्वर के कलिंग इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज में भी कई जिंदगियों को बदलने का काम किया है। ओडिशा के आदिवासी बच्चों को प्राथमिक से लेकर स्नातकोत्तर तक की मुफ्त शिक्षा देने वाले इस आवासीय शिक्षण संस्थान की स्थापना 1993 में अच्युत सामंत ने की थी। सामंत इस समय कंधमाल से लोकसभा के निर्वाचित सदस्य हैं। कलिंग इंस्टीट्यूट अपने खेल कार्यक्रम की वजह से उस समय चर्चा में आया था जब 2007 में आदिवासी बच्चों की एक टीम ने लंदन में संपन्न इंटरनैशनल स्कूल रग्बी टूर्नामेंट का खिताब जीता था। जंगल क्रोज के उपनाम से मशहूर उस टीम के बच्चों ने उस प्रतियोगिता में शिरकत करने के महज कुछ महीने पहले ही रग्बी खेलना शुरू किया था। लेकिन अपने दमदार प्रदर्शन से वे टूर्नामेंट में खिताबी मुकाबले तक जा पहुंचे और वहां पर भी दावेदार मानी जा रही दक्षिण अफ्रीकी टीम लैंगा लॉयंस को 19-5 के बड़े अंतर से रौंद दिया था। इस शानदार खेल उपलब्धि पर ‘जंगल क्राई’ नाम से एक फिल्म भी बन चुकी है। अभय देओल की मुख्य भूमिका वाली इस फिल्म का ट्रेलर पिछले साल कान समारोह में जारी किया गया था।
कलिंग इंस्टीट्यूट में 33 खेल
कलिंग इंस्टीट्यूट 33 तरह के खेलों में करीब 5,000 आदिवासी बच्चों को प्रशिक्षण देता है। कई वर्षों की कड़ी मेहनत ने अब रंग दिखाना शुरू कर दिया है। पिछले साल जून में मनीला में खेली गई एशिया रग्बी वूमेंस चैंपियनशिप डिविजन-1 में सिंगापुर को मात देकर अब तक की पहली अंतरराष्ट्रीय महिला 15 जीत दर्ज कर इतिहास रचने वाली भारतीय टीम में पांच लड़कियां इसी संस्थान की थीं। असल में, कलिंग इंस्टीट्यूट की सुमित्रा नायक ने ही वह पेनल्टी किक लगाई थी जिसने भारत को कांस्य पदक दिलाया था। इस संस्थान में दसवीं क्लास में पढऩे वाली नित्या माझी ने गत सितंबर में राष्ट्रमंडल जूडो चैंपियनशिप में देश के लिए कांस्य पदक जीता था। नित्या ने हाल ही में संपन्न खेलो इंडिया युवा खेल में खो-खो स्पद्र्धा में भी पदक जीता है। हालांकि नीतीश और करण भी इस बात से इत्तफाक रखते हैं कि किसी खिलाड़ी की जेनेटिक विरासत उसे एक सीमा तक ही ले जा सकती है।
अगर उस जन्मजात प्रतिभा को निखारने के लिए समुचित ढांचा मौजूद नहीं है तो अपना स्कूल भी पूरा नहीं कर पाने वाले कई संभावित एथलीट स्पोट्र्स ड्रॉपआउट बनकर रह जाएंगे। मोटर स्पोट्र्स इंजीनियर रह चुके नीतीश कहते हैं, ‘केन्या के इतेन में फुटपाथ या पैदल रास्ते भले नहीं हैं लेकिन वहां पर रनिंग ट्रैक मौजूद हैं। वजह यह है कि दौडऩा वहां की संस्कृति का हिस्सा है और यह कई दशकों में धीरे-धीरे विकसित हुआ है। लोग दौडऩा पसंद होने के नाते दौड़ते हैं, पदक जीतने के लिए नहीं।’ मुंदगोड में 16 साल की नयना कोकरे बाकी खिलाडिय़ों से थोड़ा दूर बैठी हुई हैं। दूसरे लोग जहां हैमस्ट्रिंग से जुड़ी लंबी कूद के अभ्यास में जुटे हुए हैं वहीं नयना अपने घुटने में लगी चोट के चलते एड़ी पर जोर डालने वाली कसरत ही कर रही हैं। पिछले साल नयना ने बोर्ड परीक्षा की तैयारी के लिए स्कूल में छुट्टियां होने पर भी हांगल स्थित अपने घर जाने से मना कर दिया था।
वह एक दिन के लिए भी अपना प्रशिक्षण छोडऩा नहीं चाहती थी। खेल के प्रति उसका ऐसा समर्पण देख उसके कोच दशहरे के दौरान एक दिन के लिए उसे घुमाने के लिए जबरदस्ती घर ले गए। रेत भरी मिट्टी में प्रशिक्षण ले रहे खिलाडिय़ों में 13 साल की सुष्मिता सिद्दी भी शामिल है। कोच बेंदिगेरी की मानें तो सुष्मिता भले ही ‘छोटी सी जान’ है लेकिन वह काफी मजबूत है। पिछले नवंबर में सुष्मिता ने जब कर्नाटक के मांड्या में हुई एक रेस स्पद्र्धा में जिला-स्तरीय सेमीफाइनल में क्वालीफाई किया था तो वह बाकी सभी एथलीटों से कम उम्र की थी। उसकी जानदार दौड़ ने बहुतों को प्रभावित किया था और जब लोग अपनी अकादमी में शामिल करने के लिए उससे मिले तो उसे बेंदिगेरी का ही फोन नंबर दे दिया। नयना प्रशिक्षण के समय खुद को एक एथलीट से इतर कुछ नहीं मानती है लेकिन छोटी सुष्मिता की नजर में वह एक रोल मॉडल है। जब सुष्मिता यह कहती है कि ‘मैं नयना की तरह बनना चाहती हूं’ तो यह एक नई खेल संस्कृति के उदय की तरफ संकेत करता है।
ऐसा नहीं है कि इन प्रतिभाशाली बच्चों की राह आसान है। उन्हें खेलकूद के दौरान कभी घुटनों में चोट लग जाती है तो कभी होंठ कट जाते हैं, माथे पर चोट के निशान भी दिखते हैं। उनके लिए शरीर के किसी भी हिस्से पर बंधी पट्टी एक सम्मान जैसी होती है। बंगाल के अलीपुर दुआर की रहने वाली रेणुका खडिय़ा का भी चेहरा रग्बी की प्रैक्टिस के दौरान रगड़ गया था। लेकिन आदिवासी रग्बी फाउंडेशन की इस खिलाड़ी ने अपने घरवालों को इस चोट के बारे में नहीं बताया। वह कहती हैं, ‘टुडू सर कहते हैं कि इस तरह की चोट से हमारे भीतर मजबूती आती है।’ कोलकाता की आदिवासी रग्बी टीम की कप्तान माला सोरेन कहती हैं कि रग्बी जैसे नजदीकी संपर्क वाले खेल में शर्मीली लड़कियों को अपने विरोधियों को छकाने की कला सीखने में वक्त लगता है। माला कहती हैं, ‘विरोधियों को छकाने के लिए मैं उन्हें उस पल को याद करने को कहती हूं जब उन्हें किसी पर खूब गुस्सा आया था।’
मजदूर की संतान रग्बी में
जलपाईगुड़ी के चाय बागान में काम करने वाले दंपती की संतान उर्षिला खडिय़ा (18) ने कभी सोचा भी नहीं था कि वह रग्बी जैसा खेल खेलेंगी जिसके बारे में उनके गांव में किसी ने सोचा भी नहीं था। इसी तरह हवाई जहाज में बैठना भी किसी सपने के सच होने जैसा है। राष्ट्रीय रग्बी टीम का हिस्सा रहते हुए वह पिछले साल में कई देशों में जा चुकी हैं। वह कहती हैं, ‘मार खाओ फिर दूसरे को मारो। काफी मजा आता है।’ हालांकि इस जज्बे को बनाए रखने के लिए काफी मेहनत, लगातार कोशिश और फंड की जरूरत होती है। टुडू अपना रग्बी फाउंडेशन कोलकाता में स्थित अपनी फिटनेस अकादमी के साथ ही चलाते हैं। भारतीय प्रबंध संस्थान बेंगलूरु के सोशल इन्क्यूबेशन प्रोग्राम की उपज ब्रिजेज ऑफ स्पोट्र्स को बुक ए स्माइल, इन्फोसिस फाउंडेशन और रिलायंस फाउंडेशन के अलावा माइकल ऐंड सुजन डेल फाउंडेशन से भी आर्थिक मदद मिलती है। इंडियन ट्रैक फाउंडेशन के करण सिंह अपनी संस्था को आगे बढ़ाने में बोर्ड की भूमिका को खुलकर स्वीकार करते हैं। झारखंड के आदिवासी इलाके भी अब करण की सही मंशा और कोशिशों की तारीफ करने लगे हैं। वाल्टर कांडुलना और आकांक्षा करकेट्टा जैसी बच्चियों को राज्य एवं राष्ट्रीय स्तर पर पदक जीतते हुए देखकर उनकी सोच में बदलाव आया है। पिछले महीने वारंगल में संपन्न इंडिया रेडक्रॉस कंट्री राष्ट्रीय चैंपियनशिप में वाल्टर ने स्वर्ण पदक जीता था तो आकांक्षा ने अक्टूबर में तमिलनाडु ओपन स्टेट मीट में रजत पदक जीता था।
करण बताते हैं कि अब वह गुजरात में जूनागढ़ के सिद्दी समुदाय से भी प्रतिभाशाली बच्चों को अपनी टीम में लाने की कोशिश कर रहे हैं। सिद्दी समुदाय के बुजुर्ग अपने बच्चों के बेहतर भविष्य की संभावनाएं होते हुए भी बच्चों को फाउंडेशन के पास भेजने को तैयार नहीं होते हैं। उन्हें समझाने में काफी मशक्कत करनी पड़ती है। मुंदगोड में भी यही कहानी दोहराई जा रही है। नीतीश और कोच बेंदिगेरी को नयना के मां-बाप को यह समझाने में काफी परेशानी हुई कि जमैका के किंग्सटन आने-जाने में कोई परेशानी नहीं होगी। यहां पर स्थित रेसर्स ट्रैक क्लब का संचालन ग्लेन मिल्स के हाथों में है जिन्होंने खुद बोल्ट को चैंपियन बनाने में अहम भूमिका निभाई थी। नीतीश हर साल अपनी अकादमी के दो बेहतरीन एथलीट को इस अकादमी में कुछ समय के लिए भेजते हैं और यह बात उनके बच्चों को काफी प्रोत्साहित करती है।
आदिवासी परिवारों में जन्मे और पले-बढ़े इन बच्चों को खेल की दुनिया में अपना मुकाम बनाने के लिए गरीबी, सामाजिक बंदिशों और पारिवारिक दबावों पर जीत हासिल करनी पड़ती है। मोनिका माझी (20) कहती हैं, ‘गांव में मेरी उम्र की सारी लड़कियों की शादी हो चुकी है। लेकिन इस खेल ने मेरे भीतर खुद पर भरोसा पैदा करने की ताकत दी है।’ इसी भरोसे के दम पर मोनिका आगे चलकर सेना में भर्ती होना चाहती हैं। उन्हें देखकर उनकी छोटी बहनें भी इसी राह पर चलने के लिए प्रेरित हो रही हैं।
टुडू के रग्बी टीम में एक लड़की अपने बच्चे की अकेले परवरिश करने वाली मां है और दो अन्य लड़कियां घरों में नौकरानी का काम करती हैं। इन प्रतिकूल परिस्थितियों से आने के बावजूद टुडू की इस टीम ने राष्ट्रीय रग्बी लीग में हरियाणा को लगातार दो बार शिकस्त दी है। इन युवा खिलाडिय़ों को अपने प्रशिक्षण के अलावा खानपान पर भी खास ध्यान देना होता है। अधिकतर खिलाडिय़ों को चीनी, मसाला एवं तेल वाला भोजन खाने की मनाही होती है। उर्षिला कहती हैं, ‘सर तो हमें मैगी भी नहीं खाने देते हैं। हालांकि जिस दिन हम कोई मैच जीतते हैं, उस दिन हमें कुछ भी खाने की छूट मिलती है। मैं तो उस दिन मन भरकर पानी-पूरी खाती हूं।
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