2 नवम्बर, 2013 दिपावली की पूर्व संध्या (जिसे छोटी दिपावली भी कहते हैं) के दिन न्यू पटेल नगर के रिहाईशी इलाके में गैर कानूनी रूप से चल रही फैक्ट्री 2151/3 में शाम 6 बजे आग लग गई, जिसमें पूजा, मीरा, सोनिया, द्रोपदी, पियुष व राहुल की जल कर मृत्यु हो गई तथा दर्जनों घायल हो गये। इस फैक्ट्री में 30 मजदूर काम करते थे, जिसमें 20 महिला और 10 पुरुष थे। इस फैक्ट्री में ज्वलनशील पदार्थ का प्रयोग बैग का दाग छुड़ाने के लिये किया जाता था। इसकी तीन मंजिली इमारत रिहाईशी इलाकों के बीच निवास-स्थल के रूप में स्थित है। अन्दर जाने के लिए एक छोटा से गेट है ऊपरी मंजिल के गेट बंदे रखे जाते थे जिससे कि मजदूर छत पर न जा सकें। इसके पास में ही एक दूसरी फैक्ट्री 2151/9सी/1, टच ऑफ इंडिया इसी मालिक का है, जिसमें उनका ऑफिस भी है।
मजदूर (जिसमें महिलओं की संख्या ज्यादा थी) दिपावली की खुशी में थे और शाम को जल्द घर जाना चाहते थे। कम्पनी का सुपरवाईजर (विकास) ने जाने नहीं दिया- बोला कि काम अर्जेन्ट है इसको पूरा करने ही जाना।
उसी समय फैक्ट्री मालिक (दिनेश गम्भीर) अपनी दूसरी फैक्ट्री की पूजा करके शाम को 6 बजे इस फैक्ट्री में पूजा करने आया। पूजा करने के बाद दीप को गेट के पास रखे केमिकल के पास ही रखवा कर चला गया। उसके बाद जो हुआ उसे मजदूरों ने घर से निकलते समय थोड़ा भी नहीं सोचा होगा। थोड़ी ही देर में फैक्ट्री में आग लग गई। मजदूर निकल नहीं सकते थे क्योंकि गेट के पास ही केमिकल मंे आग लगी थी। मजदूर ऊपर की तरफ गये लेकिन वहां भी लॉक होने के कारण वह नहीं निकल सकते थे। धुंआ अन्दर भरता जा रहा था। मजदूर चिल्लाते हुए इधर से उधर भागे। कुछ लोग अपने को बाथरूम में बंद कर लिया तो कुछ जहाँ जगह मिली छुपने की कोशिश किये। आग फैलती जा रही थी और वह प्रथम तल तक पहुंच चुकी थी। आस-पास के लोग दौड़ कर आये, किसी तरह प्रथम तल की खिड़की को तोड़कर कुछ लोगों को निकाले। कुछ लोगों को निकाला गया तो कुछ उसमें फंसे रह गये। इस आग ने पूजा, सोनिया, मीरा, द्रोपदी, पियुष, राहुल की जान ले ली। इसमें से कई मजदूर तो घर के अकेले कमासूत थे और परिवार का देखभाल करते थे। कुछ मजदूर जख्मी हो गये तो कुछ का धुंए से दम घुटने लगा।
सभी मजदूर किसी न किसी रूप से प्रभावित हुये। सभी मजदूरों के पर्स/बैग जल गये। उनका मोबाइल फोन और तनख्वाह (उसी दिन मजदूरों को तनख्वाह मिली थी) के पैसे जल कर राख हो गये। मजदूरों के मोबाइल जलने से अब मजदूर एक दूसरे के सम्पर्क में भी नहीं है। ये मजदूर बलजीत नगर, रंजीत नगर, पांडव नगर से आते थे, एक दो मजदूर ही दूसरी जगह से थे जैसा कि मृतक मीरा नागलोई से आती थी। मीरा की दो लड़कियां हैं ये इस फैक्ट्री में करीब 7 वर्ष से काम करती है। इसी तरह मृतक पूजा अविवाहित थी और अपने मां-बाप की सहारा थी। सोनिया का एक छोटा बेटा है तो द्रोपदी इस फैक्ट्री में 12 वर्ष से काम करती है और उनके तीन बेटियां और एक बेटा है। इसी तरह पियुष व राहुल अविवाहित थे और इस फैक्ट्री में 1 वर्ष और 6 वर्ष से काम करते थे और अपने परिवार के लिए सहारा थे।
घायल मजदूरों को मेट्रो केयर हास्पिटल, बाला जी और अन्य अस्पतालों में ले जाया गया। इस फैक्ट्री की तीन महिला मजदूरों से मेरी बात हुई जिनका परिवर्तित नाम मैं लिख रहा हूं क्योंकि उनको डर है कि उनका नाम आने से उन पर मालिक द्वारा या प्रशसान द्वारा दबाव बनाया जा सकता है। घायल पुष्पा ने बताया कि वह इस फैक्ट्री में 6 माह से 4000 रु. प्रति माह पर काम कर रही है। सुबह 9.30 बजे से शाम के 7 बजे तक 9.5 (साढ़े नौ) घंटे की ड्युटी होती थी, कोई ओवर टाइम नहीं मिलता था। पुष्पा के पीठ जले हुए हैं, उसकी पट्टी मेट्रो केयर हास्पीटल में हो रहा है। आग लगने के बाद शोर सुनकर पास के ही फैक्ट्री में काम कर रहे पति ने खिड़की से किसी तरह से पुष्पा को बाहर निकाला और अस्पताल लेकर गये। उनका मोबाइल और तनख्वाह के पैसे बैग के साथ जल गये।
कविता, जिनके पति की हत्या 7 वर्ष पहले कुंडली में हो गई थी, इस फैक्ट्री मंे 7 वर्ष से काम कर रही है। उनको 4200 रु. मिलते थे। इतने कम पैसे में अपने दो बच्चों की परवरिश करती थी और घर का किराया भी देती है। इनके पास ईएसआई, पीएफ कार्ड भी नहीं है।
गायत्री देवी 2003 से इस फैक्ट्री में है लेकिन बीच में इन्होंने काम छोड़ दिया था। 4 वर्ष से वह लगातार काम कर रही है। उनको भी 4200 रु. मिलते थे, किसी तरह का ईएसआई, पीएफ कार्ड नहीं था। आग लगने पर वो अपने को टायलेट में बंद कर ली। धुंए से उनका दम घुटने लगा तब तक दमकल विभाग के लोग आकर निकाले। उन्हें बाला जी अस्पताल ले जाया गया लेकिन हालत अधिक खराब होने पर आचार्य भिक्षु अस्पताल में एक सप्ताह तक भर्ती रही। वह अभी भी बेड पर लेटी ही रहती है।
बहुत सी महिला मजदूर थोड़ा बहुत घायल होने पर घबराकर घर चली गई और वहीं अपने पैसे से इलाज करवायी। फैक्ट्री मालिक ने दस हजार को चैक दिया है मजदूरों को, लेकिन उन मजदूरों को नहीं दिया जो घर जाकर इलाज करवाये। यह फैक्ट्री मालिक यहां के जो भी मजदूर काम करने लायक है उसको कुंडली (हरियाणा) ले जाकर काम करवा रहा है। इन मजदूरों से न तो कोई पुलिस वाला मिला और न ही कोई श्रम अधिकारी ने उनकी सुध ली है अभी तक।
ज्वलनशील पदार्थ प्रयोग करने वाली फैक्ट्री रिहायशी इलाके में कैसे चल रही थी? श्रम अधिकारी और पुलिस की जानकारी में यह नहीं था? 8 घंटे की जगह 9.5 घंटे काम कैसे कराया जाता था? 4000 रुपये मजदूरी क्यों थी? मजदूरों को ईएसआई, पीएफ क्यों नहंी थे? महिलाओं को मातृत्व लिव या हेल्थ की छुट्टी क्यों नहीं मिलती थी? आम आदमी जो इस सिस्टम से वाकिफ नहीं है वह जानना चाहता है। लेकिन ये सवाल अनुत्तरित नहीं है। सभी जानते हैं कि मजदूरों की इस मेहनत की लूट से ही यह फैक्ट्री चल रही थी। आज दिल्ली का न्यूनतम मजदूरी 8000 रु. के करीब है, उसके बाद ओवर टाइम होता है जिसका नियमतः दुगना बनता है।
इस तरह 9.5 घंटे काम के मजदूरों को कम से कम 11000 रु. बनते हैं। इस तरह से प्रत्येक मजदूर से 7000 रु. प्रति महीना लूटा जाता है। ईएसआई, पीएफ और छुट्टी के पैसे लगाने पर कम से कम 9-10 हजार रु. होगा। इन्हीं मजदूरों की लूट पर यह फैक्ट्री चलती है और मालिक दिन दूना रात चौगुना आगे बढ़ता है। इसी लूट में श्रम और पुलिस अधिकारियों के साथ-साथ संतरी से मंत्री तक को हिस्सा जाता है और सभी की जानकारी में यह गैर कानूनी काम उनके नाक के नीचे चलता रहता है। जैसा कि 15 मई, 2012 को ओखला औद्योगिक क्षेत्र के फेस 1 की फैक्ट्री नं. ए 274 जो कि मेंहदी (हेयर डाई) बनाने की काम करती है, में आग से दो मजदूरों की मौत हो गई। इस फैक्ट्री में आग कोई पहली बार नहीं लगी थी। इसके पहले भी दो बार आग लग चुकी थी और यह फैक्ट्री तब भी बिना लाईसेंस की चल रही थी। पीयूडीआर की टीम ने जब सम्बंधित अधिकारी से पुछा तो उनका जबाब था कि हां लाईसेंस नहीं है सोच रहा हूं कि अब लाईसेंस दे दूं। इससे स्पष्ट है कि किस तरह की मिलीभगत होती है।
यह न तो पहला ममला है न ही आखिरी। इस तरह के हजारों मामले देश में होते रहते हैं। दिपावली के समय ही हर साल सैकड़ो लोग पटाखे की फैक्ट्री में आग लगने के कारण जल कर मर जाते हैं जिनमें बच्चों की संख्या भी अधिक होती है। दिल्ली के अन्दर ही कई उदाहरण मिल जायेंगे आप को। 20 जनवरी, 2011 को तुगलकाबाद में ब्यालर फटने से कई मजदूरों की मृत्यु हो गई। 19 सितम्बर 2010 को लखानी फैक्ट्री पीरागढ़ी में आग से मजदूरों की मौत हो या 3 मई 2009 को फरीदाबाद की लखानी कम्पनी में 10 मजदूरों की मौत, 26 अगस्त 2013 को नरेला की जूता फैक्ट्री में आग हो या 11-12 मार्च की रात में मंगोलपुरी खुर्द की जूता फैक्ट्री में आग जिसमें 5 मजदूरों की मौत हो गई। इस तरह के बहुत सारे उदाहरण आप को कानून बनाने वालों के नाक के नीचे मिल जायेंगे। लेकिन ये कानून निर्माता हमेशा चुप्पी साधे रहते हैं।
आखिर ये मौतें कब तक होती रहेंगी? अपने को मजदूर हितैषी कहने वाली यूनियनें कब तक अपनी रोटियां सेंकती रहेंगी? अपने को प्रगतिशील कहने वाला समाज चुप क्यों रह जाता है? शासक वर्ग तो पूंजीपति वर्ग की रक्षा करता है लेकिन मजदूर वर्ग की रक्षा करने वाले कहां है? क्या वे इंतजार करते रहते हैं कि जब मजदूर लड़ कर आगे बढ़े तो वे उनको झंडा लेकर क्रांति का रास्ता दिखाने आ जायेंगे।