देश समृद्ध होगा तो ही देश के नागरिक समृद्ध होंगे| देश की समृद्धि के बिना राष्ट्र की उन्नति संभव ही नहीं है| देश की समृद्धि के लिए केवल सरकारों के प्रयासों से कार्य संपन्न नहीं होता अपितु इसके लिए नागरिकों को भी एकजुट होकर पुरुषार्थ करना होता है| जब नागरिक संगठित हैं, जब नागरिक पुरुषार्थी हैं और यह पुरुषार्थ एकजुट होकर करते हैं तो परिणाम भी उत्तम होते हैं| इस बात पर ही यह मन्त्र इस प्रकार प्रकाश डाल रहा है :-
यस्याश्चतस्त्र: प्रदिश: पृथिव्या यस्यामन्नं कृष्टय: संबभूव: |
या बिभर्ति बहुधा प्राणवेजत् सा नो भूमिर्गोष्वप्यन्ने दधातु || अथर्ववेद १२.१.४ || १.१२.४ ||
इस मन्त्र में नागरिकों के संगठन पर प्रकाश डाला गया है| मन्त्र की भावना है कि देश की समृद्धि के लिए देश के नागरिकों में संगठन की, एकता की भावना का होना आवश्यक है| जहाँ एकता नहीं है, वहां देश की प्रगति संभव नहीं है अपितु देश के ह्रास की संभावना अधिक है| इस आलोक में आओ हम मन्त्र के भावों को विस्तार से समझें |
जिस देश में चारों दिशाएं दूर–दूर तक विस्तीर्ण दिखाई दें| देश की इन खुली दिशाओं में, खुली होते हुए भी कोई स्थान खाली न दिखाई दे, प्रत्येक स्थान पर अनेक प्रकार की वनस्पतियों की खेती होती हो | भूमि का कोई खलिहान एसा न हो, जहां वनस्पतियों की हरी–भरी फसलें न लहलहा रही हों, जहाँ फूलों से लदी लताएँ अठखेलियां न कर रही हों और जहाँ फलों से लदे पेड़ अठखेलियें न कर रहे हों| भाव यह है कि देश के प्रत्येक क्षेत्र में अन्नादि से खलिहान भरे हों, लताएँ फूलों व सब्जियों से भरी हों और वृक्ष समय पर फलों से भर जाते हों| एसा देश पूर्ण रूप से संपन्न हो जाता है क्योंकि इस देश के नागरिकों के सामने कभी भरण–पौषण की समस्या नहीं आती| यह अत्यधिक पैदा होने वाला अन्नादि न केवल देश के नागरिकों के भरण–पौषण की समस्या को दूर करता है अपितु बचा हुआ अन्नादि विदेशों में भी व्यापार द्वारा भेज कर अर्थ लाभ प्राप्त किया जा सकता है, जिससे देश की अन्य आवश्यकताएं पूर्ण करने के लिए देश अर्थ साधनों से भी संपन्न हो जाता है|
नागरिक मिलकर रहें
देश के सब नागरिक मिलकर रहें| एकता में बहुत शक्ति होती है| जब नागरिक एक हैं तो किसी अन्य देश को इस देश पर आँख तक उठाने का साहस नहीं होता| इसके साथ ही साथ जब नागरिक संगठित हैं और प्रत्येक कार्य संगठित हो कर सामूहिक हित के लिए सामूहिक रूप से करते हैं तो परिणाम भी अत्यंत उत्तम आते हैं| इसलिए नागरिकों का संगठित होना तथा मिलजुल कर कार्य करना प्रत्येक देश की उन्नति के लिए, रक्षा के लिए आवश्यक होता हैं| अत: देश के नागरिकों को देश की उन्नति के लिए सामूहिक रूप से कार्य करना चाहिये|
मातृभूमि दुग्ध व अन्न से भरण–पौषण करे
कोई भी माता एसी नहीं, जो अपनी संतान का भरण–पौषण न करती हो| वह अपनी संतानों की उन्नति के स्वप्न सदा संजोये रखती है| उसे यदि कुछ भी अभाव दिखाई देता है तो वह उसे दूर करने के लिए अपना सब कुछ लगा देती है| इस प्रकार ही हमारी यह मातृभूमि निरंतर इस चेष्टा में रहती है कि उसके संतानों(नागरिकों) का ठीक प्रकार से भरण-पौषण कर सके| इस मातृभूमि के कारण ही गो आदि पशुओं का पौषण होता है और इन गौ आदि पशुओं से नागरिकों को पौषण के लिए गोदुग्ध मिलता है| हमारी मातृभूमि ने अपने गर्भ से जो अन्नादि पदार्थ पैदा किये हैं, उन सब के सेवन से वह हमारा पौषण करे अर्थात् इस अन्नादि पदार्थों का सेवन कर हम अपने शरीर को पौषित करते हैं|
प्रत्येक व्यक्ति की उन्नति के उपाय
ऊपर बताया गया है कि मातृभूमि गो–दुग्ध व अन्नादि पदार्थों से अपने देश के नागरिकों का भरण -पौषण करे| इन पंक्तियों का भाव है कि इस मातृभूमि के प्रत्येक नागरिक के पास, उसकी उन्नति के लिए सब मार्ग खुले रहें| यह उन्नति के मार्ग कैसे खुलेंगे? इन मार्गों को खोलने की चाबी भी इस मन्त्र के अनुसार परमपिता परमात्मा ने अपनी संतान के हाथों में ही दे दी है| मन्त्र उपदेश कर रहा है कि हे मातृभूमि के वीर सपूतो! उठो, आगे बढ़ो. पुरुषार्थ करो और संगठित होकर मातृभूमि पर कुदाल चलाओ, हल चलाओ, फावड़ा चलाओ| आप के इस सामूहिक पुरुषार्थ के परिणाम स्वरूप कृषि करने से हमें उत्तम और विपुल मात्रा में अनादि पदार्थ मिलेंगे| जब हम संगठित हो कर अपने पुरुषार्थ को कलकारखानों में लगावेंगे तो इन कारखानों से निकलने वाले अनेक प्रकार के पदार्थों के उपभोग तथा व्यापार से देश को अत्यधिक धन-संपदा प्राप्त होगी| यह धन संपदा देश को उन्नति के शीर्ष पर ले जाने में सफल होगी| इसलिए देश के प्रत्येक नागरिक को मन्त्र की भावना को न केवल समझना होगा अपितु संगठित होकर इस पर कार्य भी करना होगा| यदि सब नागरिक अपना कर्तव्य समझते हुए कार्य में लगेंगे तो निश्चय ही परिणाम उत्तम होंगे|
( अथर्ववेद के पृथिवी सूक्त में राष्ट्रभक्ति – ४ )
डॉ. अशोक आर्य
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