हिन्दी और उसकी बोलियों के गहरे और मधुर संबंध को तोड़ने की नापाक कोशिशें।
हिन्दी को बांटने का जो कुप्रयास हो रहा है, उसमें अँग्रेज़ीदाँ लोगों का तो सामना करना पड़ ही रहा है, लेकिन विडंबना यह है कि हिन्दी को तोड़ने वाले अपने ही लोग कम नहीं हैं जो अपने निहित स्वार्थ के लिए अंग्रेज़ी वालों से कम भूमिका नहीं निभा रहे। वे हिन्दी और उसकी बोलियों को अलग कर हिन्दी को कमजोर करना चाहते हैं। वे यह नहीं जानते कि बोलियों को अलग कर वे अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं। सभी जानते हैं कि मैथिली, डोगरी जैसी बोलियों को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कराने से उन्हें क्या लाभ मिला। संविधान में सम्मिलित होने के बावजूद उनका विकास अभी तक नहीं हो पाया।
इन लोगों को समझना चाहिए कि भाषा एक विशाल समुदाय की जातीय अस्मिता का प्रतीक होती है और उसका प्रयोग उन छोटे-छोटे समुदायों के परस्पर संपर्क के रूप में होता है जिनकी मातृभाषा या प्रथम भाषा इससे भिन्न होती है। इसमें ध्वनि-संरचना, शब्द-संपदा और व्याकरणिक व्यवस्था के स्तर पर पाए जाने वाले अंतर के आधार पर भाषा और बोली में भेद नहीं किया जाता, क्योंकि इन दोनों में व्याकरणिक समानता और परस्पर बोधगम्यता निहित रहती है। इन दोनों विशिष्टताओं के कारण भी अन्य भाषा-भाषी के पूछने पर व्यापक संदर्भ में बोली-भाषी अपने को हिन्दी भाषी कहलाना उपयुक्त समझता है, जबकि हर बोली की अपनी व्यवस्था है। इस दृष्टि से भाषा और बोली का आधार किसी भाषायी समाज की संप्रेषण व्यवस्था और उसकी जातीय चेतना है। इसकी प्रकृति गतिशील होती है। सामाजिक परिवर्तन के दौरान उसकी प्रकृति और क्षेत्र में भी परिवर्तन होता रहता है। इसलिए उस समाज की भाषा कभी ‘भाषा’ का रूप धारण कर लेती है और कभी ‘बोली’ का। लेकिन जातीय पुनर्गठन की सामाजिक प्रक्रिया के दौरान सांस्कृतिक पुनर्जागरण, साहित्यिक विशिष्टता, राजनीतिक पुनर्गठन और आर्थिक पुनर्व्यवस्था के कारण बोली पुष्पित, पल्लवित और मानकीकृत हो कर भाषा का रूप ले लेती है और वह सार्वदेशिक, बहु-आयामी और बहु-प्रयोजनी बन जाती है। उदाहरण के लिए, हिन्दी की वर्तमान बोलियों, ब्रज, अवधी और खड़ीबोली को लिया जाए तो ब्रज और अवधी एक समय ‘भाषा’ थी और खड़ी बोली थी ‘बोली’। आज खड़ी बोली ने ‘भाषा’ का रूप ले लिया है और ब्रज-अवधी ने बोली का। अगर किसी बोली को कुछ लोग ज़बरदस्ती भाषा का रूप देंगे, उससे न तो भाषा का विकास होगा, न ही उसका संवर्धन और न ही उसकी गरिमा बढ़ेगी।। बोली को भाषा रूप मे लाने के लिए मेहनत करनी पड़ती है, साहित्यिक प्रतिष्ठा लानी होगी, उसे बहु-आयामी और बहु-प्रयोजनीय बनाना होगा। आजके वैश्वीकरण के युग में उसे तकनीकी और वैज्ञानिक प्रयोजनों की भाषा बनाना होगा, जैसा कि हिन्दी आगे अग्रसर होती जा रही है।
हिन्दी भाषा में न केवल ब्रज, अवधी, राजस्थानी, भोजपुरी, बुंदेली, गढ़वाली आदि 18 मुख्य बोलियाँ हैं, बल्कि उसमें मारवाड़ी, गोरखपुरी, सदानी, बनारसी, आदि उपबोलियाँ, प्रशासनिक, वाणिज्यिक, वैज्ञानिक आदि प्रयुक्तियाँ, औपचारिक, अनौपचारिक आदि कई सामाजिक शैलियाँ तथा कलकतिया, मुंबइया, दक्खिनी, बिहारी, पंजाबी हिन्दी आदि अनेक भाषा-रूप हैं। हिन्दी की यह विविधता उसकी व्यापकता और विशालता की परिचायक है। क्या इन सब भाषा-रूपों के लिए अलग-अलग मांग होगी। ये सब बातें सोचने की हैं। भाषा और बोली में कोई अंतर नहीं है, लेकिन जातीय बोध तथा जातीय अस्मिता के कारण यह भेद होता है। तथापि, इन दोनों में सह-संबंध होता है। वे एक-दूसरे का सहयोग करती हैं। इसी प्रकार भोजपुरी जैसी सभी बोलियाँ जहां हिन्दी के विकास में सहयोग देती हैं वहाँ हिन्दी इन बोलियों के विकास और संवर्धन में सहयोग देती है।
यह तर्क दिया जा रहा है कि संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल होने से भोजपुरी का स्वरूप निखरेगा। मैथिली, डोगरी आदि बोलियों को संविधान में शामिल करने से उनके स्वरूप में क्या निखार आया, यह बात हम सब जानते हैं। कुछेक विश्वविद्यालयों में भोजपुरी का जो पठन-पाठन हो रहा है और शोध-कार्य हो रहा है, उससे छात्रों को क्या लाभ मिल रहा है, यह सर्वविदित है। हाँ, कुछ लोगों का स्वार्थ पूरा हो सकता है।
21 सितंबर, 2020 को भोजपुरी भाषी प्रो. अमर नाथ ने भोजपुरी के बारे में जो टिप्पणी दी है और जो तथ्य और आंकड़े प्रस्तुत किए हैं, उनसे मालूम होता है कि भोजपुरी को भाषा का रूप दिलाने के लिए भोजपुरी भाषियों को अभी अत्यधिक साधना करनी होगी, अन्यथा भोजपुरी का तो भला होगा नहीं बल्कि हिन्दी को क्षति पहुँचाने के लिए हिन्दी और भोजपुरी समाज उन्हें क्षमा नहीं करेगा। इसमें हमारे कई सांसद रुचि ले रहे हैं और कई सांसद सहयोग दे रहे हैं। यदि सांसद भी इस विषय को आगे बढ़ाने का प्रयास करेंगे तो यह देश के लिए घातक होगा। इसलिए सब बोली-भाषियों और सांसदों से अपेक्षा के साथ-साथ अपील भी की जाती है कि वे हिन्दी के संवर्धन, विकास और उन्नति में पूरा-पूरा सहयोग दें।
जय हिन्दी।
प्रो. कृष्ण कुमार गोस्वामी
महासचिव, विश्व नागरी विज्ञान संस्थान
0-9971553740
वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई
vaishwikhindisammelan@gmail.com
हिंदी भाषा को सीमित करने का यह निंदनीय काम है ।अपने ही देश की बोलियों को हिंदी भाषा में क्यों स्थान न दिया जाए। यदि यह लोग और अंग्रेजीदां अंग्रेजी के इतिहास को देखें तो पाएंगे कि पांचवीं शताब्दी से पहले तक अंग्रेजी एकसीमित भाषा थी
अगर उस समय के एक पेज को ले तो उसको समझने के लिए उस समय की डिक्शनरी की आवश्यकता पड़ेगी। परंतु पांचवी शताब्दी के बाद जितने भी आक्रामक इंग्लैंड में आए उन सब की भाषाओं को अंग्रेजी में समाविष्ट किया गया ।अगर आप अंग्रेजी भाषा को देखें तो उसमें बहुत ज्यादा शब्द फ्रेंच भाषा के हैं यही नहीं और देशों के शब्द अंग्रेजी भाषा में मिलेंगे ।और तो और धोती हिंदी का शब्द है आप अंग्रेजी की कोई भी शब्दकोश को उठा लें आपको धोती शब्द मिल जाएगा। अपने ही देश
की बोलियों को नजरंदाज किया यह कोई समझ की बात नहीं है ।मैं तो इसका पुरजोर विरोध करता हूं कि अपने बोलियों के शब्दों को हिंदी भाषा में स्थान ना दिया जाए।