Sunday, November 24, 2024
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Homeधर्म-दर्शननश्वर में अनश्वर के आलोक का महोत्सव

नश्वर में अनश्वर के आलोक का महोत्सव

बीज से सीखा है मैंने
उर्वर-धरती की कोख में
चुपचाप उतर जाना
घुल-मिल जाना
इसकी प्यारी मिट्टी से
अँखुआना
चुप्पी तोड़ना
और ज़मीं फाड़कर बाहर आना
बीज से ही सीखा है
लहलहाना
कैद परतों से
बाहर आना
धरती की खुली सतह पर
मुस्तैद खड़ी उस फसल की तरह
इसलिए –
होना चाहता हूँ मैं बीज।

चिंतन का दैनिक जीवन और जीवन के विकास में बड़ा महत्त्व है। मन की गति पर नियंत्रण ही चिंतन की सही दिशा का आधार है। मन के तीन गुण होते हैं-सतोगुण, तमोगुण और रजोगुण। मन में जिस वक्त जिस गुण की प्रधानता होती है, हमारे व्यक्तित्व पर उस समय उसी तत्व की अमिट छाप परिलक्षित होती है। मन में जैैसा चिन्तन चल रहा होता है, हमारी क्रियाएं वैसी ही होती हैं। ये क्रियाएं ही हमारी आदतों का निर्माण करती हैं और आदतों के समूह से मनुष्य का स्वभाव बनता है। यह स्वभाव ही हमारे व्यक्तित्व का दर्पण है। व्यक्तित्व ही हमारे जीवन की पहचान है।

इसी तरह शरीर को कोई नश्वर कह ही कहे, पर नश्वर शरीर में अनश्वर का बसेरा है। शरीर को कोई चाहे माटी ही समझे, पर माटी के शरीर में ही अमृत का वास है। हम यह न भूलें कि भले ही शरीर किसी के लिए सिर्फ माटी हो, हमारे लिए तो वह मंगल कलश के समान है। बूँद का सीप तक पहुँच जाना ही उसका सौभाग्य है, उसी तरह शरीर और मन का रूपांतरण भी मनुष्य का सौभाग्य बन जाता है। हम प्रतिदिन कुछ पल विचार करें तो माटी के पुतले को भी जीवंत सिद्ध कर सकते हैं। हम अपनी वास्तविक शक्ति को पहचानें। शरीर के धरातल पर उगते सूरज की किरणों का अनुभव करें। इस सत्य पर भरोसा रखें कि जैसा आप सोचेंगे, वैसी गति होगी। जैसी गति, वैसी प्रगति। जैसा संकल्प, वैसा कर्म और जैसा कर्म, वैसा परिणाम मिलेगा।

दूसरी तरफ हम ध्यान दें कि हमारा मन अनन्त शक्ति का भण्डार है। मन एक सीढ़ी की तरह है जो हमें सफलता के शिखर पर पहुंचा सकता है और पतन के गर्त में भी पहुंचा सकती है। मन की शक्तियों को लक्ष्य पर लगाया जाए तो सफलता अवश्य मिलती है। इसलिए आवश्यकता मन को एकाग्र करने की है।
मन की तन्मयता कल्याण का अचूक अस्त्र है।

महात्मा गौतम बुद्ध ने अपने मन की सारी शक्तियों को करूणा पर केन्द्रित कर दिया, जबकि भगवान महावीर स्वामी ने अपने मन की सारी शक्तियों को अहिंसा पर केन्द्रित कर दिया। दोनों महात्माओं ने करूणा और अहिंसा को विस्तार दिया तथा इनका ही प्रचार-प्रसार किया और मोक्ष को प्राप्त हो गये। यह सब मन की एकाग्रत का फल है। ध्यान रहे, मन की एकाग्रता में भी पवित्रता का होना नितान्त आवश्यक है क्योंकि एकाग्र तो बगुला भी होता है किंतु उसके मन में पवित्रता नहीं होती है वह मछली को निगलने की ताक में रहता है। एकाग्रता और पवित्रता का उदाहरण देखना है तो पपीहे की देखिये, जो स्वाति नक्षत्र की बूंद के लिए ध्यानस्थ रहता है।

परन्तु मन है कि भटकने से बाज़ नहीं आता है। उसे धन चाहिए, यश चाहिए, तृप्ति चाहिए। तीनों मिल जाएँ तो भी और अधिक चाहिए। लेकिन याद रहे कि घातक न धन है, न यश, न ही काम। घातक है इनका अँधा प्रवाह, अंधी चाह और अंधा उपभोग। इन पर अंकुश लग सकता है अगर मन पर नियंत्रण हो जाए। पानी पर तैरते हुए दीप कितने प्यारे लगते हैं। भीतर के समंदर में भी न जाने कितने शुभ विचारों के नन्हें-नन्हें दीप तैर रहे हैं। जरूरत है कि हम कभी अपने भीतर भी उतर कर देखें –

अपने दिल में डूबकर पा ले सुरागे जिंदगी
तू अगर मेरा नहीं बनता, न बन अपना तो बन।

अपने मन में डूबकर जब हम देखते हैं तो पाते हैं हम वही हैं जो हमने स्वयं को बनाया है। हमें वही मिला है जो हमने कमाया है। विश्व विख्यात वौज्ञानिक आइंस्टाइन ने समय सापेक्षता का सिद्धांत दिया । उन्होंने कहा दोलन को आप जिस स्थान से छोड़ोगे दोलन लौटकर उसी स्थान पर आता है। यही दशा मानवीय व्यवहार की है अर्थात हम जैसा व्यवहार संसार के साथ करेंगे लौटकर वही व्यवहार हमारे पास आता है। यूरोप के दार्शनिक हीगल ने भी ‘क्रिया से प्रतिक्रिया’ का का दर्शन समझाया था। अभिप्राय यह है कि ‘जैसा बोयेंगे ,वैसा ही काटेंगे ।

हम कभी न भूलें कि मानवीय व्यवहार का आधार वाणी है और वाणी का आधार मन है। मन में उठने वाली तरंगों को शब्दों का रूप वाणी ही देती है। वाणी का मूर्त रूप ही हमारा व्यवहार बनता है। भाव यह है कि जैसा मन होगा, वैसी वाणी होगी, और जैसी वाणी होगी, व्यवहार वैसा ही परिलक्षित होगा। हम विचार और मन के तिलिस्म और संबंधों को समझने का प्रयास करें। शांत मन रखकर हम हर समस्या का समाधान प्राप्त कर सकते हैं। हम अपने मन को इस योग्य बना लें कि वह खुद ऐलान कर दे कि निराश मत हो, जीवन में बाधाएं तो आएंगी ही। जैसे सागर के जल से लहरों को अलग नहीं किया जा सकता है, ठीक इसी प्रकार जीवन से समस्याओं को दूर नहीं किया जा सकता है। इनसे तो जूझना ही पड़ता है। पानी की तरह रास्ता ढूंढऩा पड़ता है, और यह निश्चित है कि हर समस्या का समाधान है बशर्ते कि मनुष्य हिम्मत और विवेक से काम ले।

जीवन में छोटी अथवा बड़ी बाधा हमारे हमारी हिम्मत की परीक्षा लेने आती है। सोने को भी अग्नि में परीक्षा देनी होती है, तभी वह कुंदन बनता है। ठीक इसी प्रकार मनुष्य महान तभी बनता है, जब वह बाधाओं की भट्टियों में तपता है। संसार के सभी महापुरूष अवश्य तपे हैं तभी उनका जीवन निखरा है। फूल को पत्ते कितना भी छिपा लें, उसकी खुशबू को कोई छिपा नहीं सकता। जो इरादे का धनी होता है, उसे मंजिल से कोई रोक नहीं सकता।

जीवन का मूल्य मृत्यु से नहीं चुकता। जीवन का मूल्य जीवन से ही पूरा होता है। हम जीवन के प्रति जितने आशावान होंगे, जीवन हममें उतना ही विश्वास भरेगा। जीवन पेड़ से टूटे हुए पत्ते की तरह नहीं कि पवन जहां ले जाए उड़ता चले, वह कागज की नाव भी नहीं है कि लहरें अपने साथ बहने के लिए मज़बूर कर दें। जीवन मन की लगाम कसकर, शरीर, विचार और भाव की योग साधना का अपूर्व अवसर है। इस अवसर को कभी खोना नहीं है। हम जीवन पर अपनी पकड़ रहते ही तय कर लें कि हमारे लिए योग्य क्या है और अयोग्य क्या है ? हम अनुचित का चिंतन बंद कर दें। अनावश्यक को पीछे छोड़ दें। उन्हें पूरी शक्ति से कह दें कि हमें उनकी कोई ज़रुरत नहीं है। फिर पूरा ध्यान अपने काम में लगाएं और काम के दौरान सिर्फ काम करें, उस पर चिंतन करके काम में बाधा पैदा न करें। परिणाम की चिंता भी छोड़ दें। अपने प्रयास पर पूरा भरोसा रखें।

हम हमेशा याद रखें कि पानी को बाधा रोकती है, किंतु एक दिन वह भी आता है कि पानी बाधा के सिर के ऊपर से बहता है, बाधा का नामोनिशान मिटा देता है। फिर हम हिम्मत क्यों निराशा में मन को डुबोएँ ? आखिर क्यों मायूस होकर बैठ जाएँ ? नहीं, आज और अभी उठने, चलने और आगे बढ़ने का संकल्प करें। भारतीय संस्कृति का एक अत्यंत गरिमामय सूत्र है – सत्यम, शिवम्, सुंदरम। विचारों की शुद्धता के लिए इस सूत्र को अपनाना चाहिए। पैसा, प्रतिष्ठा और काम ये हमारे विचारों के स्वार्थ केंद्र हैं। सत्य, शिव और सैंदर्य, ये परमार्थ के केंद्र हैं।

विचारों का प्रभाव शरीर पर पड़ता है। शरीर का प्रभाव व्यवहार पर पड़ता है। हम स्मरण रखें कि सत्य सृष्टि का महानतम तत्त्व है। सत्य अमृत है, शास्वत है। सत्य स्वयं प्रकाश है। जो अपने चिंतन और आचरण में सत्य को आत्मसात कर लेता है, सत्य उसके जीवन रथ का सारथी बन जाता है। जिससे भीतर की रौशनी प्रकट हो जाए वह शिव है। वही कल्याणप्रद है। और जिसमें कल्याण हो सबका वही सत्य है। इसलिए कहा गया है सत्य ही शिव और शिव ही सुन्दर है। शिवत्व का सम्बन्ध हमारे जीवन से है, मन से है। शिवम् को जीवन में उतारने के लिए हम वहीं काम करें जिसमें मंगल हो, कल्याण हो, मानवता का हित हो, भलाई हो। तीसरी बात है – सुंदरम। हम याद रखें कि सौंदर्य का सम्बन्ध सूरत भर से नहीं, ह्रदय से है। सौंदर्य जीवन की परिपूर्णता और उदारता का दूसरा नाम है। वह अंतरतम की सुंदरता ही है जो मनुष्य और शेष संसार के बीच समझ, सहकार, सहयोग और समन्वय का सम्बन्ध जोड़ती है। सुन्दर विचार और भाव के साथ नज़रिया भी सुन्दर हो तो सत्यम, शिवम् की साधना सफल हो जाएगी।

मनुष्य के हर विचार का एक निश्चित मूल्य तथा प्रभाव होता है। व्यापारिक सफलता, असफलता, संपर्क में आने वाले दूसरे लोगों से मिलने वाले सुख-दुःख का आधार विचार ही माने गये हैं। जिस मनुष्य की विचार-धारा जिस प्रकार की होती, जीवन-तरंग में मिले वैसे विचार उसके साथ मिल कर उसके मानस में जगह बना लेते हैं। यही कारन है कि मनुष्य का समस्त जीवन उसके विचारों के साँचे में ही ढलता है। सारा जीवन आन्तरिक विचारों के अनुसार ही प्रकट होता है। प्रकृति का यह निश्चित नियम है कि मनुष्य जैसा भीतर होता है, वैसा ही बाहर। विचार-सूत्र से ही सम्पूर्ण जीवन का सम्बन्ध जुड़ा हुआ है। विचार जितने स्पष्ट, उज्ज्वल और दिव्य होंगे, अन्तर भी उतना ही उज्ज्वल और आलोकित होगा। जिस कलाकार अथवा साहित्यकार की भावनाएँ जितनी ही प्रखर और उच्चकोटि की होंगी उनकी रचना भी उतनी ही उच्च और उत्तम कोटि की होगी। यही बात एक सामान्य मनुष्य के जीवन पर भी लागू होती है।

चिकित्सक अब धीरे-धीरे चिकित्सा में विचारों और मनोदशाओं का समावेश करने लगे हैं। लोग अब यह बात मानने के लिए तैयार हो गये हैं कि मनुष्य के अधिकांश रोगों का कारण उसके विचारों तथा मनोदशाओं में निहित रहता है। यदि उनको बदल दिया जाये तो वे रोग बिना औषधियों के ही ठीक हो सकते हैं। वैज्ञानिक इसकी खोज, प्रयोग तथा परीक्षण में लगे हुए हैं। बहुत बार देखने में आता है कि डाक्टर रोगी के घर जाता है, और उसे खूब अच्छी तरह देख-भाल कर चला जाता है। कोई दवा नहीं देता। तब भी रोगी अपने को दिन भर भला-चंगा अनुभव करता रहता है। इसका मनोवैज्ञानिक कारण यही होता है कि वह बुद्धिमान डाक्टर अपने साथ रोगी के लिए अनुकूल वातावरण लाता है और अपनी गतिविधि से ऐसा विश्वास छोड़ जाता है कि रोगी की दशा ठीक है, दवा देने की कोई विशेष आवश्यकता नहीं है। इससे रोगी तथा रोगी के अभिभावकों का यह विचार दृढ़ हो जाता है कि रोग ठीक हो रहा है। विचारों का अनुकूल प्रभाव जीवन-तत्व को प्रोत्साहित करता और बीमार की तकलीफ कम हो जाती है।

विचारों के अनुसार ही मनुष्य का जीवन बनता-बिगड़ता रहता है। बहुत बार देखा जाता है कि अनेक लोग बहुत समय तक लोकप्रिय रहने के बाद बहिष्कृत हो जाया करते हैं, बहुत से दुकानदार पहले तो उन्नति करते रहते हैं, फिर बाद में उनका पतन हो जाता है। इसका मुख्य कारण यही होता है कि जिस समय जिस व्यक्ति की विचार-धारा शुद्ध, स्वच्छ तथा जनोपयोगी बनी रहती है और उसके कार्यों की प्रेरणा स्त्रोत बनी रहती है, वह लोकप्रिय बना रहता है। किन्तु जब उसकी विचार-धारा स्वार्थ, कपट अथवा छल के भावों से दूषित हो जाती है तो उसका पतन हो जाता है। अच्छा माल देकर और उचित मूल्य लेकर जो व्यवसायी अपनी नीति ईमानदारी और सहयोग की रखते हैं, वे शीघ्र ही जनता का विश्वास जीत लेते हैं, और उन्नति करते जाते हैं। पर ज्योंही उसकी विचार-धारा में गैर-ईमानदारी, शोषण और अनुचित लाभ के दोषों का समावेश हुआ नहीं कि उनका व्यापार ठप्प होने लगता है।

जिस प्रकार उपयोगी, स्वस्थ और सात्विक विचार जीवन की सुखी व संतुष्ट बना देते हैं। उसी प्रकार क्रोध, काम और ईर्ष्या-द्वेष के विषय से भरे विचार जीवन को जीता जागता नरक बना देते हैं। स्वर्ग-नरक का निवास अन्यत्र कहीं नहीं मनुष्य की विचार-धारा में रहता है। देवताओं जैसे शुभ उपकारी विचार वाला मन की स्वर्गीय स्थिति और आसुरी विचारों वाला व्यक्ति नरक जैसी स्थिति में निवास करता है। दुःख अथवा सुख की अधिकांश परिस्थितियाँ मनुष्य की अपनी विचार-धारा पर बहुत कुछ निर्भर रहती हैं। इसलिये मनुष्य को अपनी विचार-धारा के प्रति सदा सावधान रह कर उन्हें श्रेष्ठ दिशाओं में ही प्रेरित करते रहना चाहिये।
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राजनांदगाँव, छत्तीसगढ़
मो. 9301054300

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