एक बार वे गढ़वाल के किसी दक्षिणी इलाके में बतौर पटवारी की हैसियत से तैनात थे | उनके पास डी. एम., एस. डी. एम., तहसीलदार व कानूनगो से मार्क हो कर दिल्ली के किसी सेठ द्वारा दर्ज चोरी की शिकायत आई | चोरी सेठ के किसी घरेलु नौकर ने की थी जिसका गांव उस इलाके में था |
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जांच-पड़ताल करने पर युवक के घर से चोरी का माल बरामद हुआ और उसे गिरफ्तार कर लिया गया | युवक को तीन महीने की सजा हुई, लेकिन उसे अच्छे चाल-चलन के ऊपर दो महीने बाद ही रिहा कर दिया गया था | छानबीन के दौरान चौकियाल जी को युवक से सेठ द्वारा की गई ज्यादतियों का पता लग गया था | जेल से छूटने पर युवक को किसी सरकारी विभाग में नौकरी मिल गयी थी, उसके अच्छे चाल-चलन का हुलिया मालूम करने के लिये विभागीय पत्र चौकियाल जी को मिला |
उन्होंने युवक द्वारा की गई चोरी की सजा को नज़रंदाज़ करके सम्बंधित विभाग को अच्छे चाल चलन की रिपोर्ट भेज दी | इस प्रकार उन्होंने युवक के भविष्य को बर्बाद होने से बचा लिया था | बाद में युवक उनका धन्यवाद करने आया था |
2.
श्री चौकियाल जी के कानूनगो के पद पर कार्यरत होने के दौरान उनके क्षेत्र में किसी व्यक्ति ने शायद पागलपन के दौरे में एक बारह साल के लड़के को पत्थरों की मार से ख़त्म कर दिया था | पटवारियों द्वारा उसे गिरफ्तार करके उसके चारों हाथ पांवों को किसी मेज के चारों कोनों के साथ बाँध दिया गया | कानूनगो साहब ने जब उस आदमी को बुरी तरह से बंधा देखा तो सबसे पहिले उसके हाथ-पांव खुलवाये | उनके अनुसार मुलजिम ने लड़के की जान ली है तो कानून उसे फांसी की सजा देगा, लेकिन उसे जानवरों की तरह बांधना ठीक नहीं |
3.
जब वे तहसीलदार कम ट्रेज़री अफसर के पद पर कार्यरत थे तो एक बार उनके गांव की एक अधेड़ उम्र की विधवा महिला पहिली पेंशन लेने पहुंची, तो उन्होंने सबसे पहिले उसके पांव छुये | ऐसा उन्होंने गांव के रिश्ते में भाभी लगने के अलावा महिला का पेशावर काण्ड के अमर सेनानी नायक स्व. श्री भोलासिंह बुटोला की ‘धर्म पत्नी’ होने था | उनके दफ्तर के अन्य कर्मचारी पहिले तो आश्चर्यचकित थे, लेकिन बाद में संतुष्ट हो गये | तहसीलदार जी के प्रति उनका आदर पहिले से ज्यादा हो गया |
एक बार अपने पोखरी, चमोली के भ्रमण के दौरान उन्होंने देखा कि स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाले वीर सैनिकों की याद में बने स्मारक पर उनके गांव चोपड़ा के अमर सेनानी श्री भोलासिंह बुटोला का नाम अंकित नहीं है | उन्होंने इस सम्बन्ध में दो बार सम्बंधित विभाग को लिखा | उन्हें अब भी (लगभग 27-28 साल बाद) अंदेशा है कि शायद श्री भोलासिंह जी का नाम उक्त सूचि में दर्ज़ नहीं किया होगा | मुझे चौकियाल जी की बातों से उनके कर्तव्यपरायणता, इंसानियत तथा उन सभी मानवीय गुणों का पता लग गया था जिनकी वजह से वे आज भी अपने इलाके में लोकप्रिय बने हुये हैं |
बातों ही बातों में पता चला कि चोपड़ा गांव में लगभग 100 चन्दन के पेड़ है | मैंने तहसीलदार साहब से उस पेड़ को दिखाने के आग्रह किया जिसे उनके बड़े भ्राता श्री हरिदत्त चौकियाल 60 वर्ष पहिले लाहौर से लाये थे | वे मुझे अपने पुराने मकान के चौक में ले गये | वहाँ पर मैंने देखा कि पापुलर के पेड़ जैसा सीधा लम्बा व कम मोटाई वाला तथा शीशम की पत्तियों जैसी पत्तियों वाला और एक शाख कटी हुई, हरा-भरा पेड़ चौक के किनारे पर बगीचे के बीचोंबीच स्थित है, तथा आसपास काफी संख्या में छोटी जामुन की तरह के गहरे काले गुदेदार फल तथा काफल की गुठली जितनी गुठली वाले बीज बिखरे हुए हैं |
उनके अनुसार तोतों द्वारा खाये गये फलों की गुठलियों के उगने से ही नये पौधे उगते हैं, अन्यथा बीजों को बोने से पौधे नहीं उगते हैं | चन्दन के पेड़ के बावत जानकारी मिलने पर एकाएक मैंने सवाल किया कि क्या चन्दन के पेड़ों पर सांप होते हैं?, तो उन्होंने रहीम कवि के निम्न दोहे का अर्थ इस तरह बताया, जिससे यह साबित होता है कि चन्दन के पेड़ों पर सांप नहीं लिपटे होते हैं, तो क्या हमें हाई स्कूल की पढ़ाई में गलत अर्थ बताया जाता रहा?
जो रहीम उत्तम प्रकृति का, करि सकत कुसंग | चन्दन विष व्यापत नहीं, लपट रहे भुजंग ||
चन्दन की उपयोगिता के बावत सभी को ज्ञान है | पेड़ की कटी हुई शाखा को कुदाल से गोद कर चौकियाल जी ने एक छोटी सी चन्दन की छील निकाल कर मुझे दी, जिससे चन्दन की खुशबू आ रही थी, अन्यथा पेड़ को देखने या सूंघने से नहीं लगता था कि वह चन्दन का पेड़ होगा | पेड़ की दूसरी मुख्य शाखा के कटे होने का अर्थ भी मेरी समझ में आ गया था |
इससे पहिले दोपहर को कैप्टेन साहब के घर के सामने ढिवरी के पेड़ की छाल के एक बड़े भाग पर चिपके लम्बे सफ़ेद बालों वाले झस्सू कीड़ों (caterpillars) के एक बहुत बड़े समूह को देखा था, जिन्होंने पेड़ की बाकी छाल पर कई छोटे-छोटे गड्ढे कर दिये थे | अवश्य ही पेड़ की छाल में कोई ऐसा स्वादिष्ट पौष्टिक पदार्थ जैसे प्रोटीन या शर्करा होंगे जिसे खाकर ये कीड़े हृष्टपुष्ट बने हुये थे | इस पेड़ की छाल की जांच करने से यह मानव उपयोगी सिद्ध हो सकती है |
अपने मेजवान कैप्टेन इन्द्रसिंह बुटोला जी से जब मैंने स्व. श्री हरीकृषण शास्त्री जी के विषय में जानकारी ली तो उन्होंने मुझे उनकी एक ख़ासियत के बावत बताया | वे (श्री शास्त्री जी) अपने जीतेजी अपने स्व. पिताजी के श्राद्ध को पहले वार्षिक श्राद्ध की तरह धूमधाम के साथ गांव वालों तथा रिश्तेदारों को सामूहिक भोज देकर मनाते थे |
30 तारीख को सुबह नहा धोकर नाश्ता पानी करके मैं 8 बजे वाली बस पकड़ने के लिये बड़ी जल्दी में हांफता हुआ चोपड़ा बाजार के लिए चढाई चढ़कर जैसे ही सड़क में पहुंचा, मुझे बताया गया कि बस 7:30 बजे निकल गई है और दिवाली का मुख्य दिन होने से अन्य कोई बस या प्राइवेट जीप चलने की भी सम्भावना नहीं है | अतः अकेले ही पैदल रास्ते से लगभग पौने घंटे में नीचे धारकोट के मैदान में पहुंच गया तथा मैदान में उगे लंकाबेर के लम्बे और एकहरे पौधों से बने काफी लम्बा स्वागतद्वार नुमा रास्ते को पार किया |
जल्दी में रास्ता तय करने से शरीर गरम हो चूका था, अतः इन पेड़ों की छाया में बदन को काफी शीतलता प्रदान हो रही थी | इस मैदान के ऊपरी सिरे पर शहतूत का काफी बड़ा बाग है | पिछले कई सालों से यहाँ पर रेशम के कीड़ों का पालन तथा रेशम उत्पादन हो रहा है | सुनने में आया कि इसके कुछ दूर जाकर किसी स्थानीय उद्द्यमी ने खुम्बी (mushroom) उत्पादन का उद्योग लगा रखा है |
मैदान पार करके कुछ नीचे जाकर झूलापुल आया | झूले को अकेले में पार करने की आदत न होने से झूले के हिलने तथा नीचे अलकनंदा का नीला पानी नज़र आने से डर लग रहा था | मन पर तर्कों का कोई भी वश नहीं चल पा रहा था, फिर भी मध्य भाग में जाने पर झूले को पकड़ कर आखिर उसे पार कर ही लिया | थोड़ी चढाई चढ़ने के बाद हाडी गदरा में रुद्रप्रयाग जाने वाली सड़क पर पहुँच गया |
बड़ी जल्दी में उतराई तथा फिर चढाई चढ़ने से मैं काफी थक गया था | अतः कुछ दूर पीपल के पेड़ के नीचे सड़क के किनारे बनी सीमेंट पत्थरों की मुंडेर पर विश्राम करने बैठ गया, और गौचर की तरफ से आने वाली बसों का इंतज़ार करने लगा | इस बीच मेरी नज़र कुछ ही दूरी पर सड़क के ऊपर बने कांची काम कोटि शंकराचार्य अस्पताल पर गई | पूर्व निर्धारित कार्यक्रम न होने से उसे देखने न जा सका, लेकिन बाद में रुद्रप्रयाग की तरफ जाने वाली सड़क के किनारे जगह-जगह पर लगे साइन बोर्डों के दिखने से मेरे मन में अस्पताल के बारे में जिज्ञासा उठी |
सह-मुसाफिरों से पूछताछ करने पर मालूम हुआ कि अभी यह अस्पताल बीस शय्या का है और दक्षिण के कांची काम कोटि पीठ द्वारा संचालित होता है | फिलहाल इसमें अभी मुख्य रूप से क्षय तथा आंखों की बिमारियों का इलाज किया जाता है | निकट भविष्य में अन्य सामान्य रोगों की चिकित्सा का भी प्रावधान है |
लगभग आधा घंटे तक बस की प्रतीक्षा करने के बाद भी जब कोई बस नहीं मिली तो कुछ दूर पैदल चलकर रतुड़ा बाजार में जा पहुंचा, लेकिन वहां पर भी आधा घंटे तक बस का इंतज़ार करना पड़ा | एकाएक मेरी नज़र किसी बंद पड़ी दूकान के बाहर दरवाजे पर लगे निम्न पोस्टर पर गई, जिस पर लिखा था –
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