रानी गाइदिन्ल्यू एक ऐसी आध्यात्मिक एवं राजनीतिक नागा नेता थीं जिन्होंने भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध विद्रोह का नेतृत्व किया। उनका जन्म नंग्कओं, ग्राम रांगमई, मणिपुर में 26 जनवरी 1915 को हुआ। वह आदर और स्नेह से रानी मां के नाम से जानी जाती थीं, जिनका प्रारंभिक जीवन बहुत ही सामान्य था। वह 13 वर्ष की अल्पायु में ही हाइपो जादोनांग जैसे नेता से प्रभावित हुईं जिन्होंने ज़ेलियाँगराँग नागा संप्रदायों में सुधार हेतु धार्मिक आंदोलन प्रारंभ किया था। इस आंदोलन ने मणिपुर तथा आस-पास की नागा आबादी वाले क्षेत्रों में ब्रिटिश साम्राज्यवाद को उखाड़ फेंकने के लिए एक राजनीतिक संघर्ष का रुप ले लिया।
1920 के दशक के अंत तक ब्रिटिश अधिकारियों ने इस आंदोलन की राजनीतिक नींव को अत्यंत संदेहपूर्ण दृष्टि से देखना शुरु कर दिया। यह उन्हें उनकी सत्ता को खोखला करता प्रतीत हो रहा था। 1931 में जादोनांग की फांसी के बाद रानी गाइदिन्ल्यू ने स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व संभाला। वह 1932 में अंग्रेजों द्वारा गिरफ्तार कर राजनैतिक बंदी बना ली गईं लेकिन उसी समय वह प्रतिरोधवादी आंदोलन की अनुभवी नेता के रुप में उभर कर सामने आईं।
रानी गाइदिन्ल्यू ने अपने लोगों के संघर्ष को बृहत भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के साथ जोड़ा। उनके लिए नागा लोगों की स्वतंत्रता की यात्रा भारत के व्यापक आंदोलन का भाग थी। उन्होंने मणिपुर क्षेत्र में गांधी जी के संदेश को भी पहुंचाया।
अपने लंबे बंदीकाल के दौरान रानी मां लोकप्रिय हो गईं थी और उनके कारावास से संबंधित मुद्दे को ब्रिटिशा हाउस ऑफ कामन्स में भी उठाया गया। चौदह वर्ष के पश्चात् सन् 1947 में भारत की स्वतंत्रता के उपरांत उन्हें जेल से रिहा कर दिया गया। वह संयुक्त भारत में रहते हुए नागा रीति-रिवाजों, परंपराओं तथा आस्थाओं की रक्षा के लिए दृढ़ विश्वास के साथ कार्य करती रहीं। रानी मां ने लगातार सार्वजनिक रूप से उन संगठनों का विरोध किया जो भारत से अलग होने की सिफारिश करते थे। उनके दृष्टिकोण से वह मांग न तो न्यायोचित थी न ही वांछित। इसके लिए उन्हें सशस्त्र विद्रोहियों के खतरे का भी सामना करना पड़ा जिसके कारण वह 1960 में भूमिगत होने के लिए मजबूर हो गयीं। उनके विरोधी उनके संकल्प को कमजोर नहीं कर सके। अपनी व्यक्तिगत सुरक्षा की परवाह न करते हुए वह अपने उद्येश्य के लिए प्रतिबद्ध थीं। वह 16 जनवरी 1966 में अपने भूमिगत जीवन से बाहर आयीं। ज़ेलियाँगराँग लोगों ने उनका स्वागत किया।
राष्ट्रीय स्तर के विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं का उनके जनहितके प्रति योगदान और उनके द्वारा किये गये कार्यो के प्रति बहुत सम्मान था। उनके सुदूर क्षेत्रों के दौरों ने उन्हें प्रसिद्ध कर दिया । उनकी केवल एक झलक पाने के लिए स्त्री, पुरुष, युवा एवं वृद्ध, सभी इकठ्ठे हो जाते थे। उन्होंने दिखा दिया की कैसे ग्रामीण रीति-रिवाजों, परंपराओं और नागा संस्कृति के प्रति गौरवपूर्ण होते हुए भी भारत के लिए वफादारी संभव थी।
17 फरवरी 1993 में रानी मां का निधन हो गया। वह अपने पीछे ज़ेलियाँगराँग लोगों के लिए एक जीवंत विरासत छोड़ गयीं जिसने उनके मन में अपनी युगों पूर्व पुरानी परंपराओं के प्रति गर्व की भावना को जागृत किया। उनके संघर्षपूर्ण जीवन और सत्यनिष्ठा ने एक ऐसे व्यक्तित्व को जन्म दिया जिससे हमें शिक्षा लेनी चाहिए। वह आज भी सार्वजनिक जीवन में सकारात्मक मूल्यों की प्रेरणा बनी हुईं हैं।
रानी गाइदिन्ल्यू अपने जीवनकाल में ही शूरवीर नायिका बन गईं।
रानी गाइदिन्ल्यू को स्वतंत्रता सेनानी ताम्रपत्र, 1972, पद्म भूषण, 1982, विवेकानंद सेवा सम्मान, 1983, बिरसा मुंडा पुरस्कार, 1996 से सम्मानित किया गया। उनकी स्मृति में 1996 में डाक टिकट भी जारी किया गया।
भारत सरकार ने भारतीय इतिहास की पांच प्रतिष्ठित महिलाओं को सम्मानित करने के लिए स्त्री शक्ति पुरस्कार प्रारंभ किया जिसमें 2000 में रानी गाइदिन्ल्यू का नाम शामिल हुआ।
हिंदुस्तान शिपयार्ड लिमिटेड ने इंडियन कोस्ट गार्ड के लिए एक इन-शोर पेट्रोल वेसल को ‘रानी गाइदिन्ल्यू’ के नाम से 6 नवंबर 2010 को विशाखापट्टनम से प्रक्षेपित किया।