पूर्व चुनाव आयुक्त टी एन शेषन द्वारा शुरु की गई चुनाव सुधार प्रक्रिया के पश्चात भारत में संपन्न होने वाले संसदीय,विधानसभा व स्थानीय स्तर के चुनावों में हालांकि काफी सुधार हुआ है। जो चुनाव आयोग पहले कभी राजनैतिक दलों के उम्मीदवारों के प्रति नरम रवैया अपनाता नज़र आता था वही चुनाव आयोग अब चुनाव आचार संहिता की धजिजयां उड़ाने वाले उम्मीदवारों पर स ती बरतते देखा जा रहा है। राजनैतिक पार्टियां अब चुनावों से पूर्व आचार संहिता लागू होने के पश्चात आयोग व उनके अधिकारियों से भयभीत नज़र आने लगी है। परिणामस्वरूप निश्चित रूप से चुनावों के दौरान होने वाले भारी शोर-शराबे में अंतर देखा जा रहा है। पोस्टर,पैंपलेट,बैनर,बिल्ले तथा अन्य प्रचार सामग्री भी पहले से कम इस्तेमाल होती देखी जा रही है। चुनावों में प्रयोग में आने वाले उम्मीदवारों के प्रचार वाहन भी पहले से कम और सीमित हो गए हैं। गोया अब कोई भी राजनैतिक दल चुनावों में इस प्रकार की मनमानी करने से घबराने लगा है जैसी मनमानी चुनाव सुधार प्रक्रिया लागू होने से पूर्व किया करते थे।
परंतु अब भी हमारे देश के चुनाव संचालन में तमाम ऐसी ख़ामियां हैं जिनमें व्यापक सुधार किए जाने की ज़रूरत है। इनमें दो बातें खासतौर पर ऐसी हैं जिनपर भारतीय निर्वाचन आयोग को न केवल नज़र रखने की ज़रूरत है बल्कि इन विषयों पर नियम बनाए जाने की भी आवश्यकता है। इनमें एक तो यह कि चुनाव आयोग प्रत्येक राजनैतिक दल तथा प्रत्याशी के चुनावी खर्च तथा उसे चुनाव हेतु प्राप्त होने वाली फंडिंग पर चुनाव पूर्व से लेकर चुनाव संचालन तथा चुनाव के बाद तक की गतिविधियों पर पूरी नज़र रखे। और दूसरा यह कि निर्वाचन आयोग देश के किसी भी राजनैतिक दल व प्रत्याशी को इस बात की कतई इजाज़त न दे कि कोई भी दल अथवा प्रत्याशी अपने चुनाव प्रचार में धर्म,जाति,धर्मस्थान,क्षेत्रवाद व भाषा आदि के मुद्दे उठा सके। यदि इन दो सुधारों को निर्वाचन आयोग स ती से लागू करता है तो ऐसी उम्मीद की जा सकती है कि भविष्य में चुनावों में आर्थिक भ्रष्टाचार में तो कमी आएगी ही साथ-साथ चुनावों के माध्यम से चुनाव के दौरान उठने वाले मंदिर-मस्जिद अथवा सांप्रदायिकता व जातिवाद जैसे मुद्दों का उछलना यदि बंद नहीं तो कम ज़रूर हो जाएगा।
हालांकि चुनावी खर्च को लेकर निर्वाचन आयोग ने पहले से ही अपनी निर्देशावली बना रखी है जिसके तहत प्रत्याशियों,राजनैतिक दलों को चुनाव उपरांत अपने खर्च व आमदनी का ब्यौरा आयोग को देना पड़ता है। परंतु यह व्यवस्था न तो पारदर्शी है न ही विश्वसनीय। राजनैतिक दल व नेता भले ही कानून के निर्माता, देश के रखवाले, संविधान तथा संसदीय व्यवस्था के संरक्षक व संचालक क्यों न नज़र आते हों परंतु हकीकत तो इसके विपरीत ही है। मेरे विचार से इन्हीं तथाकथित कानून के रखवालों द्वारा ही सबसे अधिक कानून का उलंघन भी किया जाता है।
यही वर्ग नियम व कानून की धज्जियां उड़ाने का सबसे अधिक जि़ मेदार है। यह राजनैतिक वर्ग सत्ता में हो या विपक्ष में इन्हें भलीभांति यह मालूम है कि कागज़ी ख़ानापूर्ति किस प्रकार की जानी है। निर्वाचन आयोग को संतुष्ट करने वाले कागज़ात किस प्रकार तैयार किए जाने हैं। आयोग को हिसाब देते समय बाकायदा लेखाकार तथा कानूनी विशेषज्ञों की सहायता ली जाती है। उसके पश्चात तैयार किए गए फर्ज़ी दस्तावेजों के माध्यम से आयोग को उम्मीदवारों द्वारा यह समझा दिया जाता है कि उन्होंने आयोग के नियमों,निर्देशों तथा चुनाव आचार संहिता के विरुद्ध कुछ भी नहीं किया। इतना ही नहीं बल्कि कई 'चतुर' प्रत्याशी तो ऐसे भी होते हैं जो अपने चुनाव में होने वाले निर्धारित खर्च में बची हुई रकम का भी ख़ुलासा कर देते हैं। जबकि हकीकत में निर्वाचन आयोग के समक्ष दिए गए चुनावी खर्च संबंधी हिसाब-किताब तथा चुनाव पर हुए वास्तविक खर्च में ज़मीन-आसमान का अंतर होता है। और यहीं से शुरु होता है भ्रष्टाचार का वह खेल जोकि आज हमारे देश को दीमक की तरह खाए जा रहा है।
हमारे देश में लोकसभा के चुनाव से लेकर विधानसभा, नगर निगम, नगरपालिका, सरपंच व ग्राम प्रधान तक के चुनावों में बड़े पैमाने पर फुज़ूलखर्ची होते देखी जा सकती है। गऱीबों की बस्तियों में नकद पैसे बांटना,शराब के बल पर वोट लेना, आटा,आलू,मिट्टी का तेल जैसी सस्ती सामग्री बंटवाकर मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने जैसी हरकतें चुनाव प्रत्याशी द्वारा अक्सर की जाती हैं। पिछले दिनों हरियाणा में हुए नगर निगम चुनावों के दौरान तो यहां तक सुनने को मिला कि अपने पक्ष में अधिक से अधिक मतदान कराने हेतु बाकायदा एजेंट नियुक्त किए गए जिन्हें कुछ इस प्रकार की 'स्कीमÓ बताई गई। यदि कोई एजेंट सौ वोट अमुक प्रत्याशी के पक्ष में डलवाता है तो उसे एक स्कूटर भेंट की जाएगी। और पांच सौ वोट डलवाने पर उसे एक कार तोहफे में दी जाएगी। इसी प्रकार किसी प्रत्याशी के जुलूस में शामिल होने के लिए 200 रुपये प्रति व्यक्ति की दर से नकद पैसे बांटे जाने का समाचार प्राप्त हुआ।
मतदान के दिन सौ रुपये से लेकर एक हज़ार रुपये प्रति वोट तक की कीमत लगाए जाने जैसी शर्मनाक बातें सामने आईं। खरीदने व बेचने का यह खेल केवल मतदाताओं तक ही सीमित नहीं रहा बल्कि नगर निगमों में धन बल के बूते पर बनने वाले मेयर ने कई निर्वाचित सभासदों को भी मात्र अपने धन की बदौलत अपने पक्ष में कर लिया। इसी सौदेबाज़ी को यदि आप विधानसभा स्तर पर परिवर्तित कर के देखें तो देश के विभिन्न राज्यों में ऐसे नज़ारे देखने को मिलेंगे जबकि मंत्री बनने अथवा किसी दूसरे महत्वपूर्ण पद को प्राप्त करने के लिए किसी दल का प्रत्याशी किसी दूसरे दल के प्रति आस्थावान दिखाई देने लगता है। यह सब आिखर भ्रष्टाचार नहीं तो और क्या है? खुद हरियाणा राज्य में ही पिछले विधानसभा चुनावों में यह नज़ारा देखा जा चुका है जबकि एक राजनैतिक दल के कई विधायक अपने पार्टी प्रमुख को अकेला छोड़कर सत्तारुढ़ दल से जा मिले और सभी विधायकों को 'स मानितÓ पद भेंट स्वरूप दिए गए।
निर्वाचन आयोग को संतुष्ट करने वाले नेतागण बखूबी जानते हैं कि चुनावों के दौरान हैलाकॉप्टर से लेकर कारों तक के नाजायज़ इस्तेमाल को कैसे जायज़ करार देना है। उन्हें पता है कि चुनावी यात्रा को किस प्रकार सरकारी यात्रा में परिवर्तित करना है। इसी प्रकार चुनावी खर्च,आमदनी तथा चंदे आदि के हिसाब-किताब किस प्रकार चुनाव आयोग के समक्ष रखने हैं। इन्हें यह सबकुछ बखूबी मालूम है। भला हो टी एन शेषन का जिन्होंने चुनाव प्रक्रिया में सुधार की शुरुआत कर भारत में होने वाले चुनावों को काफी हद तक नियंत्रित कर दिया अन्यथा हमारे देश की चुनाव व्यवस्था तो इतनी लचर व बेढंगी थी कि धनवान व बाहुबली व्यक्ति बड़ी ही आसानी से चुनाव को न केवल अपने पक्ष में कर सकता था बल्कि मतगणना की मेज़ तक पर उस की मनमानी चल सकती थी। परंतु निश्चित रूप से अब कम से कम उतनी अंधेरगर्दी नहीं रही जो पहले हुआ करती थी। इसके बावजूद अब भी चुनावी चंदे के नाम पर पिछले दरवाज़े से भारी-भरकम फ़ंडिंग किए जाने का सिलसिला जारी है।
यह फ़ंडिंग केवल देश के उद्योगपत्तियों व व्यवसायियों के माध्यम से ही नहीं बल्कि विदेशों से भी की जाती है। चुनाव आयोग को चाहिए कि जिस प्रकार आयोग चुनाव के उपरांत राजनैतिक पार्टियों से व उम्मीदवारों से चुनावी आय-व्यय पर हिसाब लेता है। उसी प्रकार आयोग को चाहिए कि चुनाव पूर्व भी वह समस्त प्रत्याशियों से उनके चुनावी खर्च के हिसाब-किताब,उसकी आय के स्त्रोत तथा चुनावी बजट के संबंध में जानकारी हासिल करे। इस संबंध में अरविंद केजरीवाल द्वारा गठित आम आदमी पार्टी द्वारा जो शुरुआत की गई है वह निश्चित रूप से सराहनीय है।
इसी प्रकार निर्वाचन आयोग को चुनाव में सांप्रदायिकता और धर्म-जाति आदि मुद्दे उछालने पर प्रतिबंध लगाना चाहिए। चुनावों में धर्म, जाति, मंदिर-मस्जिद तथा वर्ग-भेद जैसे मुद्दे उठने पर धर्म,जाति तथा वर्ग के आधार पर समाज में धु्रवीकरण बड़ी आसानी से हो जाता है। परंतु इस प्रकार के भावनात्मक मुदें का चुनावों में प्रयोग होने के परिणामस्वरूप क्षेत्र के विकास संबंधी मुद्दे गौण हो जाते हैं। नतीजतन हमारा देश इन्हीें सांप्रदायिक व जातिवाद संबंधी फुज़ूल की बातों में उलझ कर रह जाता है। लिहाज़ा निर्वाचन आयोग ने जहां चुनाव प्रक्रिया में व चुनाव आचार संहिता में अब तक विभिन्न प्रकार के बदलाव व सुधार किए हैं वहीं उपरोक्त प्रमुख विषयों को भी उसे अपनी चुनाव सुधार प्रक्रिया का हिस्सा बनाना चाहिए।
तनवीर जाफरी
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