हे कृष्ण ! फागुन फिर से आया ।
शब्द मेरे प्रश्न बन
फिर जूझने तुमसे चले हैं ।
कह सको ग़र आज ,
बस इतना बताना
रंग फगुआ का क्या तुझ पर भी चढ़ा है ?
नाम तेरा सुनके जब मेरी कपोलें
रोज़ ही फगुआ का रंग बिखेरती हैं
तेरे गालों पर भी क्या ऐसा असर है ?
तेरी फगुआ भी क्या मेरी ही तरह है ?
धानी चूनर ओढ़कर फिर भोर उतरा
सतरंगी चादर बिछाने मेरे अंगना ।
लाल किरणों से धरा की रेत भी
ऐसी सजी कि
तेरी सब पटरानियाँ ज्यों
लाल चूनर में सजी हैं।
पर,
साँझ जो डूबा है
गहरी वेदना में
रंग उसका क्या
ये क्या तुझको पता है ?
सुनती हूँ तुमने किया आज़ाद ,
और उद्धार भी उन देवियों का ।
तुम ही हो उद्धारकर्ता ,
लो, ये मैं भी मानती हूँ ।
मेरी भी एक बात मानो
प्रेम से अपने मुझे
आज़ाद करके भी बता दो।
फगुआ की चंचल बयारें
आज भी मन मोहती होंगी तुम्हारा
जानती हूँ ।
संग तेरे डोलती होंगी सभी पटरनियाँ भी
ठीक वैसे ही कि
जैसे डोलते थे संग मेरे
प्रेम रंग में डूबकर
तुम ।
बिखरे लम्हों को
अगर तुम जोड़ पाओ
माप पाओ प्रेम की गहराइयों को
तो मुझे इतना बताना ।
वेदना और प्रेम की गहराइयों में
भेद क्या है ?
तुम हो अंतरज्ञ
यह मुझको पता है
रंग फागुन का नहीं तुमसे छिपा है ।
अनगिनत पटरानियों का रंग जो तुझपर चढ़ा है ।
पर ज़रा मुझको बता दो
रंग मेरे प्रेम का क्या है ,
और फिर वेदना का कौन सा रंग ?
हे कृष्ण !
फागुन फिर से आया
कह सको ग़र आज ,
बस इतना बताना
तेरी फग़ुआ भी क्या मेरी ही तरह है ?
तेरे गालों पर भी क्या मेरा असर है ?
बस ज़रा इतना बताना ।