Sunday, November 24, 2024
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विवाह पंचमीः राम और सीता के स्वयंवर के रहस्यमयी व रोमांचक पक्ष

राम सीता का विवाह सनातन धर्म की एक महत्वपूर्ण घटना है। श्रीराम के द्वारा शिव धनुष तोड़ने के बाद सीता से उनके विवाह को कई ऋषियों और कवियों ने अपने ग्रंथों में स्थान दिया है। लोकगीतों में भी सीता स्वयंवर और राम-सीता विवाह से जुड़ें गीत प्रचलित रहे हैं। भगवान श्रीराम और माँ सीता का विवाह हिंदू कैलेंडर के अनुसार मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष कीपंचमी तिथि को हुआ था। प्रत्येक वर्ष इस तिथि कोराम- सीता के विवाह से सालगिरह के रुप में विवाह पंचमी का उत्सव मनाया जाता है।

कई महान संत कवियों के अनुसार श्रीराम में माँ सीता को स्वयंवर के द्वारा जीता था और सीता स्वयंवर के बाद श्रीराम और सीता का विवाह हुआ था। सीता स्वयंवर की कथा पर आज भी विद्वानों कवियों और आम जनता में लोकप्रिय है। सीता स्वयंवर और श्रीराम-सीता विवाह पर कई लोक गीत भी लिखे गए हैं । लेकिन क्या सच में सीता का स्वयंवर हुआ था ? क्या श्रीराम ने स्वयंवर में ही भगवान शिव का धनुष तोड़ कर सीता से विवाह किया था ? क्या है इसका असली सच ?

राम-सीता का विवाह (विवाह पंचमी) और सीता स्वयंवर की कथा
गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस ग्रंथ के अनुसार सीता के पिता राजा जनक ने मिथिला नगरी में सीता स्वयंवर का आयोजन किया था। इस स्वयंवर की प्रतियोगिता के अनुसार जो भी व्यक्ति भगवान शिव के धनुष को उठा कर उस पर प्रत्यंचा चढ़ा लेता , उसी से सीता का विवाह होना तय था। सभी राजा महाराजा शिव के इस धनुष को उठाने में असफल रहे । लेकिन श्रीराम ने इस धनुष को उठा कर इसे तोड़ डाला और इसके बाद सीता के साथ श्रीराम का विवाह हो गया।

आश्चर्य की बात ये है कि सीता स्वयंवर की कथा वाल्मीकि रामायण में नहीं है। वाल्मीकि रामायण श्रीराम के जीवन पर लिखा गया पहला ग्रंथ माना जाता है। इसे श्रीराम के जीवनकाल में ही लिखा गया था।कई अन्य राम कथाओं में भी सीता स्वयंवर का जिक्र नहीं है। कम्ब रचित तमिल रामायण , मुरारि रचित अनर्घ राघव पुस्तक, कालिदास रचित रघुवंशम में भी सीता स्वयंवर का जिक्र नहीं है।

कालक्रम से वाल्मीकि रामायण के बाद महाभारत के वन पर्व में रामोपाख्यान शीर्षक से दी गई राम कथा सबसे प्राचीन है। महाभारत के रामोपाख्यान में भी स्वयंवर के द्वारा राम सीता विवाह का जिक्र नहीं है। वाल्मीकि रामायण और महाभारत के बाद सबसे प्राचीन राम कथा कालिदास के रघुवंशम में दी गई है। रघुवंशम में भी स्वयंवर के द्वारा राम- सीता के विवाह का उल्लेख नहीं है।

इन सभी ग्रंथोंं के अनुसार बिना किसी स्वयंवर प्रतियोगिता के ही श्रीराम ने शिव का धनुष तोड़ा था। सीता के पिता राजा जनक की प्रतिज्ञा थी कि जो भी इस शिव धनुष को उठाएगा , उससे ही सीता का विवाह किया जाएगा। ज्यादातर प्राचीन ग्रंथों में दी गई कथा के अनुसार श्रीराम ऋषि विश्वामित्र के साथ मिथिला में प्रतिवर्ष आयोजित होने वाले धनुष यज्ञ उत्सव में भाग लेने के लिए पधारते हैं। वहाँ राजा जनक विश्वामित्र के अनुरोध पर श्रीराम को शिव का धनुष दिखाते हैं।

इस शिव धनुष को दिखाने के दौरान राजा जनक विश्वामित्र को अपनी प्रतिज्ञा के बारे में बताते हैं। राजा जनक की प्रतिज्ञा थी कि जो भी इस धनुष को उठा लेगा उसका विवाह सीता से किया जाएगा। राजा जनक विश्वामित्र को सूचित करते हैं कि पहले भी कई राजाओं ने इस धनुष को उठाने की असफल कोशिश की थी। विश्वामित्र के आदेश पर श्रीराम उस शिव धनुष को उठाते हैं और उसे तोड़ देते हैं। इसके बाद राम सीता का विवाह मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को तय किया जाता है।

इस विवाह में शामिल होने के लिए दशरथ , भरत और शत्रुघ्न के साथ आते हैं। राम सीता के विवाह के साथ ही लक्ष्मण- उर्मिला, भरत- मांडवी और शत्रुघ्न-श्रुतकीर्ति का विवाह भी होता है। सीता और उर्मिला राजा जनक की पुत्रियाँ थी जबकि मांडवी और श्रुतकीर्ति जनक के भाई कुशध्वज की पुत्रियाँ थीं।

शुद्ध सनातन हिंदू धर्म में सीता स्वयंवर की घटना और माँ पार्वती की तपस्या उल्लेखनीय घटनाएं हैं। सनातन हिंदू धर्म में इन दो विवाहों को सबसे ज्यादा महत्व दिया गया है। पहला है , शिव- पार्वती का विवाह और दूसरा है श्रीराम – जानकी विवाह। पार्वती ने कठोर तपस्या से शिव को प्राप्त किया था । पार्वती ने भगवान शिव को पति के रुप में प्राप्त करने के लिए हज़ारों वर्ष तक कठोर तपस्या की थी। जब भगवान शिव प्रसन्न हुए और पार्वती से विवाह के लिए तैयार हो गए उसके बाद कई ऐसी घटनाएं घटीं जो रोचक थीं।

भगवान शिव भूत- प्रेतों और अपने गणों की बारात लेकर पार्वती के घर पहुंचे । पार्वती की माँ मैना भगवान शिव के औघड़ रुप को देख कर बेहोश हो जाती हैं। एक माँ का अपने पुत्री के प्रति मोह और ऐसे औघड़ से पुत्री के विवाह का डर इस घटना को विशेष बना देता है। बाद में भगवान शिव श्रृंगार कर सुंदर रुप धारण करते हैं । उनके इस सुंदर रुप को देख कर पार्वती की माँ मैना प्रसन्न हो जाती हैं। माँ मैना का डर समाप्त हो जाता है और इसके बाद भगवान शिव और माँ पार्वती का विवाह होता है। इस घटना पर कई संस्कृत और लोक काव्यों की रचना की गई है।

शिव-पार्वती के विवाह को लेकर गोस्वामी तुलसीदास की रचना रामचरितमानस में एक विशेष तथ्य दिया गया है। रामचरितमानस के अनुसार शिव- पार्वती का विवाह राम-सीता के विवाह के बाद हुआ। कथा ये है कि जब रावण ने सीता का हरण कर लिया था और राम सीता की तलाश में वन में भटक रहे थे, तब शिव की पहली पत्नी सती को श्रीराम के ईश्वरत्व पर संदेह हो गया। सती सीता का वेश धारण कर श्रीराम के सम्मुख चली जाती हैं। श्रीराम उनके वास्तविक रुप को पहचान लेते हैं और उन्हें माँ सती कह कर संबोधित कर देते हैं। सती लज्जित होकर शिव को पास वापस लौट जाती हैं।

सती के इस कृत्य से शिव नाराज हो जाते हैं और वो समाधि में चले जाते हैं। इसके बाद सती के पिता दक्ष एक यज्ञ का आयोजन करते हैं जिसमें वो सती और शिव की उपेक्षा कर उन्हें निमंत्रित नहीं करते हैं। सती शिव के मना करने के बाद भी अपने पिता दक्ष के यज्ञ में चली जाती हैं। यज्ञ में दक्ष शिव का अपमान करते हैं। अपने पति के अपमान से क्रोधित होकर सती आत्मदाह कर लेती हैं। इसके बाद शिव वैराग्य धारण कर लेते हैं।

कुछ काल बाद जब विष्णु श्रीराम के रुप में अवतार लेते हैं तो श्रीराम के समाझाने पर शिव विवाह के लिए तैयार हो जाते हैं। उधर सती भी दोबारा जन्म लेती हैं और हिमालय की पुत्री पार्वती के नाम से प्रसिद्ध होती हैं। पार्वती शिव को पति रुप में पाने के लिए तपस्या करती हैं। श्रीराम के अनुरोध पर शिव और पार्वती का विवाह होता है। पार्वती शिव से श्रीराम की कथा सुनती हैं और श्रीराम को ईश्वर मान लेती हैं। पूरी रामचरितमानस की कथा शिव द्वारा पार्वती को राम कथा सुनाए जाने की कथा पर ही आधारित है।

सीता स्वयंवर की कथा
राम सीता विवाह से पूर्व सीता स्वयंवर की कथा सबसे पहले अध्यात्म रामायण में आती है। इसी कथा को रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने विस्तार दिया है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने विस्तार से कई राजाओं के द्वारा शिव धनुष उठाने के असफल प्रयत्नों का जिक्र किया है। रामचरितमानस के अनुसार जब कोई भी राजा शिव के धनुष को उठाने में सफल नहीं होता तो जनक निराश हो जाते हैं। जनक भरी सभा में आरोप लगा देते हैं कि अब ये संसार वीरों से विहीन हो गया है। इस पर लक्ष्मण क्रोधित हो जाते हैं और धनुष को उठाने के लिए तैयार हो जाते हैं। विश्वामित्र लक्ष्मण को रोकते हैं और श्रीराम को शिव के धनुष को उठाने की आज्ञा देते हैं। श्रीराम शिव के धनुष को तोड़ देते हैं । इसके बाद राम- सीता का विवाह तय होता है।

सीता ने स्वयंवर से पूर्व ही राम को अपना पति मान लिया था
कई राम कथाओं में ऐसा आता है कि सीता विवाह से पहले ही राम को अपना पति मान चुकी थीं। गोस्वामी तुलसीदास रचित ‘रामचरितमानस’ के अनुसार स्वयंवर के दौरान जानकी परेशान हो जाती हैं कि शिव- धनुष को कोई और न तोड़ दे । रामचरितमानस, कम्ब रामायण, आनंद रामायण और कुछ दूसरे ग्रंथों के अनुसार जानकी ने श्रीराम को स्वयंवर से पहले एक पुष्प वाटिका में देख लिया था और मन ही मन राम को अपना पति मान लिया था ।

ऐसे में सीता को ये भय हो गया था, कि अगर किसी और ने धनुष उठा लिया तो फिर एक बड़ा पाप हो जाएगा। सीता मन से तो श्रीराम की रहेंगी, लेकिन विवाह किसी और से करना पड़ेगा । उनकी इस दुविधा को कई लेखकों और विद्वानों ने अपने गीतों और कहानियों में लिखा है । कथाओं के अनुसार सीता श्रीराम के बारे में अपनी सखियों से जानती हैं और उन्हें प्रेम हो जाता है। स्वयंवर के आयोजन की बात सत्य हो न हो लेकिन विवाह पूर्व श्रीराम और सीता के बीच पनपे प्रेम का वर्णन कई राम कथाओ में जरुर आता है। हालांकि वाल्मीकि ने विवाह पूर्व सीता -राम के प्रेम की कथा का वर्णन नहीं किया है।

सीता का स्वयंवर नहीं हुआ था
राम-सीता विवाह की घटना को लेकर वाल्मीकि रामायण और तुलसीदास रचित रामचरितमानस में अलग अलग कथाएं मिलती हैं । दोनों ही ग्रंथों में राम के द्वारा शिव -धनुष को तोड़ने की कथा तो मिलती है, लेकिन वाल्मीकि रामायण में स्वयंवर का कोई उल्लेख नहीं है।

कथा है कि जब विश्वामित्र की आज्ञा से श्रीराम ताड़का और सुबाहु का वध कर देते हैं तो इसके बाद वे राम और लक्ष्मण को मिथिला ले जाते हैं। उस वक्त मिथिला में वार्षिक धनुष यज्ञ हो रहा था । इस यज्ञ में भगवान शिव के दिव्य धनुष की पूजा की जाती थी। विश्वामित्र राम और लक्ष्मण को मिथिला में रखे भगवान शिव के इसी दिव्य धनुष दिखाने के लिए ले कर जाते हैं ।

विश्वामित्र और उनके आश्रम के अन्य ऋषि राम और लक्ष्मण को मिथिला चलने का आग्रह करते हैं, क्योंकि वहां हरेक वर्ष की भांति धनुष यज्ञ होने वाला है, इस धनुष यज्ञ के अवसर पर भगवान शिव के दिव्य धनुष का जनता के सामने सार्वजनिक प्रदर्शन किया जाता है –

मैथिलस्य नरश्रेष्ठ जनकस्य भविष्यति, यज्नः परम धर्मिष्ठः तत्र यास्यामहे वयम् || 1.31.6
त्वम् चैव नरशार्दूल सह अस्माभिर् गमिष्यसि, अद्भुतम् च धनू रत्नम् तत्र त्वम् द्रष्टुम् अर्हसि || 1.31.7
तद्धि पूर्वम् नरश्रेष्ठ दत्तम् सदसि दैवतैः, अप्रमेय बलम् घोरम् मखे परम भास्वरम् || 1.31.8
तद् धनुर् नरशार्दूल मैथिलस्य महात्मनः, तत्र द्रक्ष्यसि काकुत्स्थ यज्ञम् च परम अद्भुतम् || 1.31.11
तद्धि यज्ञ फलम् तेन मैथिलेन उत्तमम् धनुः, याचितम् नर शार्दूल सुनाभम् सर्व दैवतैः || 1.31.12
आयागभूतम् नृपतेः तस्य वेश्मनि राघव, अर्चितम् विविधैः गन्धैः धूपैः च अगुरु गंध्भिः || 1.31.13
वाल्मीकि रामायण, बालकांड सर्ग 31

अर्थः- ऋषिगण श्रीराम से कहते हैं कि “नरश्रेष्ठ ! मिथिला नरेश जनक के यहां एक महान वैदिक यज्ञ हो रहा है, जहां सभी ऋषि जा रहे हैं। अगर आप भी हमारे चलें तो आप वहां एक महान धनुष के दर्शन कर सकेंगे। इस धनुष को न तो कोई देवता, न कोई मनुष्य , न कोई राक्षस और न ही कोई इंसान उठा सकता है और न ही इस पर कोई बाण का संधान कर सकता है । हे नरसिंह! अगर आप हमारे साथ वहां चलेंगे तो आप उस विशेष धनुष के दर्शन कर सकेंगे और वहां होने वाले वैदिक यज्ञ को भी देख सकेंगे । वैसे तो इस धनुष की रोज पूजा की जाती है, लेकिन धनुष उत्सव के दौरान इसकी विशेष पूजा की जाती है ।”

विश्वामित्र सहित श्रीराम और लक्ष्मण उस धनुष के दर्शन करने और वैदिक यज्ञ को देखने के लिए मिथिला की तरफ चल पड़ते हैं । जब राम और लक्ष्मण मिथिला पहुंचते हैं तो जनक जी उन्हें शिव -धनुष का दर्शन कराते हैं, और सीता के अलौकिक जन्म की कहानी भी कहते हैं । जनक ये भी बताते हैं कि कई राजा और महाराजाओं ने यहां आकर धनुष को उठाने की कोशिश की, लेकिन आज तक इसे कोई उठा नहीं पाया-

भूतलादुत्थिता सा तु व्यवर्धत ममात्मजा || १-६६-१४
वीर्यशुल्केति मे कन्या स्थापितेयमयोनिजा |

अर्थः- “मेरी पुत्री सीता अयोनिजा है और मैंने यही संकल्प लिया है कि जो भी इस धनुष को उठा पाएगा मैं उससे अपनी पुत्री का विवाह करुंगा।”

ततः सर्वे नृपतयः समेत्य मुनिपुंगव || १-६६-१७
मिथिलामभ्युपागम्य वीर्यं जिज्ञासवस्तदा |

अर्थः- “यहां कई राजा आए और उन्होंने धनुष को उठा कर सीता को प्राप्त करने की कोशिश की लेकिन वे सभी असफल रहें ।”

तेषां जिज्ञासमानानां शैवं धनुरुपाहृतम् || १-६६-१८
न शेकुर्ग्रहणे तस्य धनुषस्तोलनेऽपि वा |
यद्यस्य धनुषो रामः कुर्यादारोपणं मुने |
सुतामयोनिजां सीतां दद्यां दाशरथेरहम् || १-६६-२६

अर्थः- “हे मुनि श्रेष्ठ! अगर राम इस धनुष को उठा पाते हैं, तो मैं अपनी पुत्री सीता का विवाह इनसे कर दूंगा ।”

इसके बाद राजा जनक अपने हजारों दरबारियों के समक्ष श्रीराम को शिव-धनुष दिखाते हैं, जिसे राम बिना किसी प्रयास के ही उठा लेते हैं –

पश्यतां नृसहस्राणां बहूनां रघुनंदनः |
आरोपयत्स धर्मात्मा सलीलमिव तद्धनुः || १-६७-१६

अर्थः- रघुकुल के आनंद धर्मात्मा राम ने हज़ारों लोगों के सामने आसानी से उस शिव-धनुष को उठा कर उस पर प्रत्यंचा चढ़ा दी।

यहां किसी भी प्रकार के स्वयंवर का कोई उल्लेख नहीं हैं। हां जनक जी की प्रतिज्ञा का उल्लेख जरुर है। तमिल भाषा में लिखे गए कम्ब रामायण में भी किसी सीता स्वयंवर का उल्लेख नहीं है, लेकिन तुलसीदास रामचरितमानस में सीता स्वयंवर के आयोजन का उल्लेख है –

चलहुं तात मुनि कहेउ तब पठवा जनक बोलाई ।
सीय स्वयंवरु देखिअ जाई । ईसु काहि धौं देई बड़ाई ।

रामचरितमानस में उल्लेख है कि सीता स्वयंवर में कई राजा आए लेकिन भरी सभा में कोई भी शिव -धनुष भंग को उठा नहीं पाया। आखिरकार राम ने खेल-खेल में ही शिव-धनुष को उठा लिया और उसे तोड़ डाला । इसके बाद सीता ने राम के गले में वरमाला डाल दी। सीता- राम का विवाह धूमधाम से संपन्न हुआ।

 

 

 

 

 

(लेखक अध्यात्मिक विषयों पर https://shuddhsanatan.org/ पर गंभीर, सुरुचिपूर्ण व शोधपूर्ण लेख लिखते हैं)

साभार- https://shuddhsanatan.org/ से

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