सदियों बाद जब आर्यावर्त की कथाएं किताबों में बांची जाएंगी तो कुछ निशानियां शेष होंगी जो रेणु की परती देश की परी कथा की मानिंद डोली और कहारो की कहानियां बयां कर रही होंगी।
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दूर देश की इस कथा में कहार केवल डोली उठाने वाले महज एक किरदार नहीं होंगे बल्कि बिछड़न के पलों में दुल्हन के सुख दुख के राही भी रहे होंगे। कहते है घर आंगन से विदा लेती दुल्हन जब सिसकते हुए डोली पर बैठती तो यही कहार अपनी चुटीली बातों और खिलंदड़ेपन से दुल्हन का मनोरंजन करते। और उसका सफ़र आसान बनाते। दुल्हन का मन बहलाने के लिए वे बीच बीच में गीत भी गाते जिससे गमज़दा दुल्हन को सामान्य होने में थोड़ी मदद मिलती। रास्ते में जब डोली गांवों से होकर गुजरती तो गांव की महिलाएं और बच्चे कौतूहलवश डोली रुकवा देते और घूंघट हटवाकर दुल्हन देखने और उसे पानी पिलाकर ही जाने देते थे, जिसमें अपनेपन के साथ मानवता और प्रेम भरी भारतीय संस्कृति के दर्शन होते थे। फिल्मों में इस प्रथा को खूब चित्रित किया गया है।डोली, बहु-बेगम, रजिया सुल्तान, जानी-दुश्मन आदि फिल्में इसकी बानगी है।
जाहिर है लोकसंस्कृति के इस सबसे सुनहरे अध्याय के अंत का अवलोकन नई पीढ़ी बहुत जल्द किताबों में रही होगी। क्योंकि डोली और कहार हमारी लोक परम्परा से लगभग विलुप्त हो गए है। विकसित होते सुविधा भोगी समाज ने अपने हिसाब से फेरबदल कर काठ की डोली की जगह लक्जरी गाड़ियों को अपनी आवश्यकता सूची में शामिल कर लिया है। एक वक्त था जब लोग दूर दूर से डोली और कहारों की तलाश में आते थे। शादी ब्याह में मांग के चलते हरेक गांव में पर्याप्त संख्या में डोली बनवा कर रखी जाती। तब कहारों के भी अच्छे दिन थे। एक लगन से पूरे साल का खर्च निकल जाता ।नेग या इनाम आदि मिलता सो अलग।कुल मिलाकर कमाई ठीक ठाक हो जाती।।
लेकिन खूब मांग में रहने वाले कहारो के दिन अब रीतने लगे है।उस दौर में जब मोटर कारों का चलन ज्यादा न था। लोग बैलगाड़ी या छोटे मोटे वाहनों से ही ज्यादा सफ़र किया करते थे। तब शादियों में डोली ही ऐसा जरिया थी जिससे विदाई की रस्म पूरी होती। दूल्हा दुल्हन न केवल भावनात्मक रूप से इससे जुड़े थे अपितु वो उनके प्रथम औपचारिक मिलन का गवाह भी बनता। उत्तरपट्टी के इलाकों में उन दिनों डोली का चलन बहुतायत था। ऐतिहासिक रूप से बिहार के सीतामढ़ी को इसकी शुरुआत का स्थल माना जा सकता है। कहते है प्रभु राम जब जनकनंदनी सीता को ब्याह कर ले गए तो मां सीता की जनकपुर से अयोध्या के लिए विदाई इसी काठ की डोली में हुई थी। माना जाता है तभी से ये हमारी लोक संस्कृति का हिस्सा बन गई।
धीरे धीरे ये बादशाहों और उनकी बेगमों या राजाओं और उनकी रानियों के लिए यात्रा का प्रमुख साधन बन गई। तब आज की भांति न तो चिकनी सड़कें थीं और न ही आधुनिक साधन। तब घोड़े के अलावा डोली प्रमुख साधनों में शुमार थी। इसे ढोने वालों को कहार कहा जाता था। उसके बाद शादियों में इसका इस्तेमाल होने लगा। प्रचलित परंपरा और रस्म के अनुसार शादी के लिए बारात निकलने से पूर्व दूल्हे के सगी संबंधी महिलाएं बारी-बारी से दूल्हे के साथ डोली में बैठती थी। इसके बदले कहारों को यथाशक्ति दान देते हुए शादी करने जाते दूल्हे को आशीर्वाद देकर भेजा जाता। दूल्हे को लेकर कहार उसकी ससुराल तक जाते।
बदलते वक्त के साथ डोली और कहार दोनो गायब हो गए।इस धंधे से जुड़े लोग जमाने के अनुरूप अपना व्यवसाय भी बदल चुके हैं। जाहिर है मेहनत मशक्कत के इस काम में श्रम ज्यादा और आमदनी कम रह गई थी।सो बदलाव लाजिमी था। गांव से यह प्रथा समाप्त होकर कुछ दशकों तक आदिवासी समुदाय में बनी रही। बाद में इस समाज ने भी इसे बिसार दिया।
कितनी अनूठी होती हैं ये लोक परंपराएं।जिन्हें कभी विस्मृत न किया जा सकेगा।ये हमारी यादों की थाती है।इन प्रथाओं में हमारी समूची सांस्कृतिक विरासत समाई होती है।बेशक हमने इसे बिसार दिया हो लेकिन समय का सुनहरा अध्याय जब भी खोला जाएगा डोली और कहार दोनो इबारत बनकर वक्त के पन्ने पर चमक उठेंगे।हम कहते है प्रथाएं चली जाती है। ओह! ये तो यहीं बनी रहती है सदा सदा के लिए और रची बसी होती है इसी मिट्टी की लोक संस्कृति में गंध बन कर। बस हम चले जाते है।
(लेखिका राज्यसभा टीवी में कार्यरत है और लोक परंपराओं व जीवन शैली पर लिखती हैं)