वोपदेव विलक्षण प्रतिभा वाले विद्वान्, कवि, वैद्य और वैयाकरण ग्रंथाकार थे। इनका नाम बहुत श्रद्धा और आदर के साथ लिया जाता है। इन्हें लुप्त भागवत का उद्धारकर्ता बताया गया है। वे भगवान के परम भक्त थे। भगवान के मंगल मय नाम,उनके गुणों और लीलाओं के चिंतन में ये सदा निमग्न रहते थे। इनका पांडित्य महान था। वे द्रविण ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम धनेश्वर था। ये धर्म शास्त्र के महान निबंध ग्रंथ चतुर्वर्ग चिंतामणि के प्रणेता ‘हेमाद्रि’ के समकालीन सभासद थे ।वे हेमाद्रि देवगिरि के यादव राजा रामचंद्र के दरबार के मान्य विद्वान् रहे। इनका समय तेरहवीं शती का पूर्वार्ध माना जाता है। ये देवगिरि के यादव राजाओं के यहाँ थे। यादवों के प्रसिद्ध विद्वान् मंत्री हेमाद्रि पंत (हेमाड पंत) का उन्हें आश्रय प्राप्त था।
मंद बुद्धि से बालक से महान विद्वान बनने की कहानी:-
“करत – करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान ,
रसरी आवत जात ते सिल पर पड़त निशान।”
कहा जाता है कि वे बचपन मंद बुद्धि बालक थे।प्रचलित कथा के अनुसार बालक बोपदेव पढ़ने में बहुत कमजोर था। परन्तु वह प्रतिदिन पाठशाला आना नहीं छोड़ता था। गुरु जी उसे पढ़ाने – दिखाने का बहुत प्रयास करते, परन्तु लाख प्रयास करने पर भी उसे कुछ भी समझ में नहीं आता। सभी बच्चे उसे बरदराज अर्थात बैलों का राजा कहकर चिढ़ाते थे। गुरु जी भी प्रयास करते – करते थक गये। एक दिन उन्होंने बालक बोपदेव को अपने पास बुलाया और कहा, बेटा बोपदेव ! लगता है, विद्या तुम्हारे भाग्य में नहीं है। इसलिए अच्छा है कि तुम अपने घर वापस लौट जाओ और वही कुछ अन्न उपजाकर अपने परिवार की सहायता करो। गुरु जी की बातें सुनकर बोपदेव उदास मन से अपने घर वापस जाने लगा। चलते – चलते वह सोचने लगा, घर जाकर वह क्या करेगा ? वहां भी लोग उसे चिढ़ाएंगे ही। उसका जीवन ही बेकार है। तभी उसे प्यास का अनुभव हुआ । रास्ते में एक कुआं दिखाई दिया। वहां कुछ स्त्रियां पानी भर रही थी। बोपदेव पानी पीने वहीं जा पहुंचा। उसकी नजर कुंए की दीवारों पर पड़ी। दीवारों पर बार बार रस्सियों की रगड़ से निशान पर गया था। फिर कुएं की जगत पर भी मिट्टी के बर्तन के निशान थे। यह देखकर बोपदेव की आंखें खुल गईं। उसने सोचा, क्या मेरा दिमाग पत्थर से भी कड़ा है ? मेहनत करने से मैं भी विद्वान बन सकता हूं।
यह जानकर बालक को एक मंत्र मिल गया। उसने सोचा जब रस्सी की बार – बार रगड़ से पत्थर पर निशान पड़ सकता है तो मेरे कोशिश करने पर में बुद्धिमान क्यों नहीं बन सकता। अर्थात मैं भी चतुर बन सकता हूँ। यह सोचकर वह अपने घर लौट आया। उसने पढ़ना एवं श्रम करना प्रारम्भ कर दिया। बड़ा होकर वह बालक संस्कृत के व्याकरण आचार्य बोपदेव के नाम से प्रसिद्ध हुआ और बहुत बड़ा महान विद्वान बना। वह पुनः वापस गुरु के पास जा पहुंचा। गुरु जी भी उसे मन लगाकर पढ़ाने लगे। वह भी मेहनत और लगन से पढ़ने लगा। बोपदेव बहुत बड़ा विद्वान बना। उन्होंने व्याकरण की पुस्तक भी लिखी।
वोपदेव 26 ग्रंथों की रचना की थी। भगवत धर्म के प्रचार प्रसार तथा भगवत भक्ति की प्रतिष्ठा में इनका महान योगदान है।ये भगवत प्रेमी सच्चे संत थे। इनके द्वारा रचित व्याकरण का प्रसिद्ध ग्रंथ ‘मुग्धबोध’ है। इनका लिखा कविकल्पद्रुम तथा अन्य अनेक ग्रंथ प्रसिद्घ हैं। ” परमहंस प्रिया”, “मुक्ताफल” और “हरिलीलामित्र” नामक ग्रंथों की इन्होंने रचना की। हरिलीलामित्र में संपूर्ण भागवत संक्षेप ( अनुक्रमणिका के रूप में ) आया है।
बोपदेव यादवों के समकालीन, सहकारी, पंडित और भक्त थे। कहते हैं, वे विदर्भ के निवासी थे। उन्होंने प्रचुर और बहुविध ग्रंथों की रचना की। उन्होंने व्याकरण, वैद्यशास्त्र, ज्योतिष, साहित्यशास्त्र और अध्यात्म पर उपयुक्त ग्रंथों का प्रणयन करके अपनी बहुमुखी प्रतिभा का परिचय दिया। उन्होंने भागवत पर हरिलीला, मुक्ताफल, परमहंसप्रिया और मुकुट नामक चार भाष्यग्रंथों की सरस रचना की। उन्होंने मराठी में भाष्यग्रंथ लेखनशैली का श्रीगणेश किया। परमहंसप्रिया इनके द्वारा श्री मद भागवत की संस्कृत टीका है। इसी को आधार बना कर कुछ लोग भागवत को वोपदेव की रचना मानते हैं। वैसे भागवत को अमूनन व्यासदेव की ही रचना मानी जाती है।
आयुर्वेद ग्रंथ हृदयदीपक-निघण्टु के प्रणेता :- आयुर्वेद ऋषियों की प्राचीनतम एवं वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति है । इसमें अधिकांश चिकित्सा जड़ी – बूटियों द्वारा की जाती है । जड़ी – बूटियों के परिचय हेतु भारतवर्ष में आयुर्वेदीय वाङ्मय के अन्तर्गत निघण्टु – ग्रन्थों ( औषधीय परिचय कोषों ) की रचना की जाती रही है । इनमें औषध द्रव्यों के स्वरूप , पर्याय शब्द , गुण एवं रोगों में उपयोगिता आदि का वर्णन होता है । औषधीय द्रव्यों की सर्वांगीण जानकारी के लिए निघण्टु – ग्रन्थों का अध्ययन प्रत्येक वैद्य के लिए अनिवार्य माना जाता है । निघण्टु ग्रन्थों की इस प्राचीन शृंखला में वेदपुर ( महाराष्ट्र ) के निवासी पण्डित बोपदेव ( १३ वीं शती ई ० ) ने हृदयदीपक – निघण्टु की रचना की थी । यह निघण्टु संक्षिप्त होते हुए भी बहुत महत्त्वपूर्ण एवं सुव्यवस्थित है । इसमें चतुष्पाद आदि वर्गों के माध्यम से औषधीय – द्रव्यों का संक्षिप्त एवं सारपूर्ण वर्णन प्रस्तुत किया है।