30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की हत्या हुई थी। आज तक इस हत्याकांड को 75 बरस हो चुके हैं। नाथुराम गोडसे, नारायण आप्टे को गांधी जी की हत्या में फांसी की सजा हुई। जबकि गोडसे के छोटे भाई गोपाल गोडसे, विष्णु करकरे, मदनलाल पाहवा को उम्रकैद की सजा हुई। शंकर किस्तैया, डॉ. दत्तात्रेय परचुरे हाईकोर्ट से बरी हो गए। वीर सावरकर को फंसाने की दिल्ली पुलिस ने पूरी साजिश की लेकिन वह भी बरी हुए। बहरहाल मैं यहां गांधी जी हत्या के बारे में बात करने के लिए कोई स्टोरी नहीं कर रहा हूं बल्कि हाल ही में गांधी जी हत्या की प्रमाणिक पड़ताल पर आई वरिष्ठ पत्रकार प्रखर श्रीवास्तव की पुस्तक ” हे राम: गांधी हत्याकांड की प्रमाणिक पड़ताल” शीर्षक से आई पुस्तक को पढ़ने के बाद इस पुस्तक को लेकर अपने विचार साझा कर रहा हूं।
गांधी जी हत्या के बाद से आज तक इस विषय पर इतना कुछ लिखा जा चुका है कि आपको यदि सारा कुछ पढ़ना चाहें तो सालों लगेंगे। इस पुस्तक को पढ़ने के बाद बहुत सी ऐसी जानकारी निकलकर सामने आती हैं तो यह पुख्ता करने के लिए काफी हैं कि गांधी जी की हत्या की पड़ताल सही से नहीं की गई। गांधी जी को बचाया जा सकता था, संभव था गांधी जी हत्या ही नहीं होती और गांधी हत्या का जिन्न गाहे—बगाहे नाथुराम गोडसे को हीरो बताने वाले कई लोगों के बयानों के बाद निकलकर साल दो साल में सामने आ जाता है ऐसा कुछ होता ही नहीं। अक्सर गांधी जी की हत्या को लेकर आरएसएस को घेरने की कोशिश की जाती है और ऐसा तब जरूर होता है जब चुनाव नजदीक होते हैं। कई बार भाववेश में कुछ नेता या अतिवादी लोग गोडसे को देशभक्त बताते हुए बयान भी दे देते हैं, जिसके बाद यह विवाद और तेज हो जाता है,
इस पुस्तक को पढ़ने के बाद मेरी जो समझ बनती है यदि उसके अनुसार मैं लिखूं तो गांधी हत्या के बाद बहुत कुछ ऐसा है तो आज तक लिखा ही नहीं गया। यदि यूं कहा जाए कि गांधी जी हत्या की प्रमाणिक तरीके से जांच ही नहीं की गई। वैसे यह भी कहा जा सकता है कि यदि उस समय सतर्कता बरती जाती तो गोडसे जैसे अतिवादी गांधी जी की हत्या कर ही नहीं पाते… और यदि ऐसा होता तो आज स्थिति कुछ अलग ही होती। गांधी जी जो देश के लिए देशहित में किया वह अद्भुत है उनके योगदान को नकारा ही नहीं जा सकता। संवाद के माध्यम से पूरे देश को एकजुट करने की जो क्षमता गांधी जी में नजर आती है वह कम से कम इस युग के किसी नेता में तो नहीं दिखाई देती, लेकिन यहां सवाल दूसरा है यदि गांधी जी की हत्या नहीं होती तो क्या वास्तव में आज वैसी ही स्थिति होती, यहां मैं गांधी जी कतई आलोचना नहीं कर रहा हूं।
नाथुराम गोडसे ने भी सदैव अपने बयान में कहा है कि महात्मा गांधी जी ने देश के लिए जो किया वह नहीं नकार सकता लेकिन मैंने उनकी हत्या की है तो मैं किसी भी तरह दया का पात्र नहीं हूं। गोडसे ने अपना मुकदमा भी सिर्फ इसलिए लड़ा कि वह अपनी बात दुनिया के सामने रख सके कि आखिर उसने गांधी जी को क्यों मारा ? हाईकोर्ट में भी उसकी तरह से अपील दया या माफी के लिए नहीं बल्कि सिर्फ यह साबित करने के लिए की थी कि गोडसे मत था कि गांधी की हत्या एक साजिश नहीं है, वह सिर्फ यह साबित करना चाहता था। गांधी जी के पुत्र रामदास गांधी और गोडसे के बीच हुए पत्र व्यवहार रामदास गांधी गोडसे के बीच हुए पत्र व्यवहार के अंश भी इस पुस्तक में हैं। रामदास गोडसे से मिलना चाहते थे लेकिन रामदास गांधी जो गोडसे से मिलने की अनुमति नहीं दी गई। दररअसल रामदास गांधी उस समय पत्रकार थे और संभवत: नेहरू जी और तमाम कांग्रेस नेताओं को डर था कि कहीं गोडसे रामदास गांधी को प्रभावित कर लें। इस पुस्तक में आरएसएस को योजनाबद्ध तरीके से बदनाम करने और साजिश के तहत वीर सावरकर को फंसाने का भी खुलासा होता है।
किताब को पढ़ने के बाद पता लगता है कि सावरकर खुद गांधी जी की हत्या से व्यथित थे और वह इतने व्यथित थे कि करीब एक साल तक जेल में रहने के दौरान और यहां तक इस मामले में कोई में सुनवाई के दौरान वह गोडसे की तरफ देखते तक नहीं थे। उनकी जगह कोई और भी होता तो शायद ऐसा की करता, क्योंकि भले ही गांधी जी और सावरकर जी के विचारों में भिन्नता थी लेकिन गांधी जी को लेकर सावरकर की सोच क्या थी यह इस पुस्तक में लिखा है। पुस्तक के लेखक प्रखर श्रीवास्तव इस पुस्तक में उल्लेख करते हैं कि मराठी के मशहूर कवि नारायण सदाशिव बापट जिन्हें कवि उल्लास के नाम से जाना जाता है।
उन्होंने अपनी पुस्तक ‘स्मृतिपुष्पे में लिखा है ”मैंने सावरकर से एक बार पूछा कि यदि कभी किसी ने गांधी को मार दिया तो ? इस पर सावरकर ने तत्काल जवाब दिया, ‘नहीं’ गांधीजी हमारे अपने हैं उन्हें नहीं मारा जाना चाहिए। इस पर बापट ने फिर कहा ” मान लीजिए उनकी नीतियां राष्ट्र के लिए खतरनाक हो गई तो ? इस पर सावरकर ने कहा” यदि ऐसा होता है तो उन्हें किसी महल में कुछ समय तक कैद रखा जा सकता है”। पुस्तक में महात्मा गांधी के प्रपौत्र तुषार गांधी की किताब ” लेटस किल गांधी” के अंश भी दिए गए हैं। तुषार गांधी स्वयं लिखते हैं कि कांग्रेस सरकार और उसके मंत्रिमंडल के कुछ सदस्य दखलअंदाजी करने वाले उस बूढ़े आदमी से परेशान हो चुके थे।
गांधी का जीवन बचाने के लिए पुलिस के उदासीन व्यवहार और जांच की गई उससे पता चलता है कि जांच में सत्य उजागर करने की बताए छिपाए जाने का ज्यादा प्रयास किया गया है। 20 जनवरी 1948 से लेकर 30 जनवरी तक पुलिस द्वारा उठाए गए कदमों में गांधी जी की हत्या को रोकने की बताए, हत्यारों का काम आसान किया जाना अधिक नजर आता है। बहरहाल पुस्तक बहुत कुछ ऐसा है तो पढ़ने के बाद ही पता लगेगा, लेकिन इस बात से कतई इंकार नहीं किया जा सकता है कि यह पुस्तक गांधी हत्या पर वास्तव में सवाल खड़े करती है। गांधी जी को लेकर यदि उस समय उदासीनता नहीं बरती जाती तो संभवत: गांधी जी की हत्या होती ही नहीं।