न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर 9/11 और मुंबई में 26/11 को हुए भयावह आतंकी हमले की तरह अगर ईस्वी सन् 1235 में उज्जैन में आज जैसे जागरूक मीडिया की मौजूदगी होती तो उस समय दुनिया भर की सबसे चर्चित सुर्खियाँ कुछ इस तरह की होतीं-
“उज्जैन के महाकाल मंदिर पर आतंकी हमला हुआ है… मंदिर को पूरी तरह नेस्तनाबूत कर दिया गया है… मंदिर के भीतर सदियों से जमा सोने-चांदी की मूर्तियों को लूट लिया गया है… राजा विक्रमादित्य की मूर्ति भी गिरा दी गई है…
हमले की जिम्मेदारी शम्सुद्दीन इल्तुतमिश ने ली है… उसका कहना है कि दिल्ली पर अब उसका कब्जा है और वही सुलतान है… उसके साथ बड़ी तादाद में आए हमलावरों ने सिर्फ उज्जैन ही नहीं विदिशा के भी बेमिसाल मंदिर मिट्टी में मिला दिए हैं… पूरे इलाके में दहशत का आलम है… हर जगह हमलावरों के मुकाबले में आए स्थानीय सैनिक बड़ी संख्या में मारे गए हैं… इनकी संख्या अभी पता नहीं है।”
शम्सुद्दीन इल्तुतमिश के इस्लामी बहेलियों ने एक दिन विदिशा को बरबाद करने के बाद उज्जैन को घेरा था। यह 1235 की घटना है। वे अपनी तलवारें चमकाते हुए राजा विक्रमादित्य और कालिदास की स्मृतियों से जगमगाते ज्योर्तिलिंग की तरफ दौड़े।
तब गलियों-बाज़ारों में पहली बार वही भयंकर शोर सुना गया था, जो आज के दौर में दुनिया के कोने-कोने में सुनाई देता रहा है-“अल्लाहो-अकबर।“ तब उज्जैन में अपनी अंतिम शक्ति को बटोरकर परमार राजाओं के सैनिक मजहबी जुनून से भरे इन विचित्र वीर तुर्कों से सीधे भिड़े होंगे और अपने सिर कटने तक उन्हें रोका होगा। कई लोगों ने अपनी जान बचाने के लिए मजहब बदला होगा, जो कि उन दिनों एक ज़रूरी और आम घटना थी।
उज्जैन को तबाह करने का फैसला करते वक्त मुमकिन है इन हमलावर आतंकियों ने विक्रमादित्य का नाम सुना होगा, कालिदास उनके लिए काला अक्षर भैंस बराबर थे, भर्तहरि के बारे में उनके फरिश्तों को भी ज्ञान नहीं होगा, वराहमिहिर से उनका कोई लेना-देना नहीं था। मंदिरों में लदा सोना-चांदी और रत्न-भंडार लूटना उन्हें मजहबी हक से हासिल था। बुतों से इस कदर नफरत जिसने उन्हें सिखाई थी, उसे वे इस्लाम कहते थे।
उस दिन महाकाल मंदिर में ट्विन टॉवर जैसा ही हाहाकार मचा होगा। मध्य भारत में मालवा के इस विध्वंस पर मिनहाज़ सिराज की रिपोर्ट है–
“1234-35 में इस्लामी सेना लेकर उसने मालवा पर चढ़ाई की। भिलसा के किले और शहर पर कब्जा जमा लिया। वहाँ के एक मंदिर को, जो 300 साल में बनकर तैयार हुआ था और जो 105 गज ऊँचा था, मिट्टी में मिला दिया।
वहाँ से वह उज्जैन की तरफ बढ़ा और महाकाल देव के मंदिर को नष्ट-भ्रष्ट कर डाला। उज्जैन के राजा विक्रमाजीत की मूर्ति, जिसके राज्य को आज 1316 साल हो चुके हैं और जिसके राज्य से ही हिंदवी सन् शुरू होता है, तथा पीतल की अन्य मूर्तियों और महाकाल देव की पत्थर की मूर्ति को दिल्ली लेकर आया।”
अब सवाल यह है कि उज्जैन से हाथी-घोड़ों पर ढोकर दिल्ली ले जाई गई इन विशाल मूर्तियों का क्या किया गया?
उज्जैन पर हुए हमले के 77 साल बाद सन् 1312 में मोरक्को का मशहूर यात्री इब्नबतूता दिल्ली पहुंचता है। वह नौ साल दिल्ली में रहा। उसने कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद के बाहर इन मूर्तियों को पड़े हुए अपनी आंखों से देखा था। उसने इसे जामा मस्जिद कहा है और इससे सटकर बनी कुतुबमीनार का भी जिक्र किया है। इब्नबतूता कुतुबमीनार के सामने खड़ा होकर बता रहा है-
“मस्जिद के पूर्वी दरवाजे के बाहर तांबे की दो बड़ी-बड़ी मूर्तियां पत्थर में जड़ी हुई जमीन पर पड़ी हैं। मस्जिद में आने-जाने वाले उन पर पैर रखकर आते-जाते हैं। मस्जिद की जगह पर पहले मंदिर बना हुआ था। दिल्ली पर कब्जे के बाद मंदिर तुड़वाकर मस्जिद बनवाई गई।
मस्जिद के उत्तरी चौक में एक मीनार खड़ है, जो इस्लामी दुनिया में बेमिसाल है।”
गौर करें, मिनहाज़ सिराज और इब्नबतूता दोनों ही इन हमलों को इस्लामी सेना और इस्लामी दुनिया से जोड़कर स्पष्ट कर रहे हैं कि यह एक राज्य का दूसरे राज्य पर अपने राज्य की सीमाओं के विस्तार की खातिर हुए हमले नहीं, बल्कि यह इस्लाम की फतह के लिए किए गए हैं और इसके लिए किसी कारण की ज़रूरत नहीं है।
ये एक राज्य और दूसरे राज्य के बीच किसी मसले पर लड़े गए युद्ध या आक्रमण नहीं थे। यह साफ तौर पर आतंकी हमले थे, क्योंकि जिस पर हमला किया जा रहा है, उसे पता ही नहीं है कि उसका कुसूर क्या है? कोई चुनौती नहीं, कोई मुद्दा नहीं। सीधे हमला। लूट और मारकाट।
आप कल्पना कीजिए कि तब विदिशा या उज्जैन के आम निवासियों को क्या पता होगा कि अजीब सी शक्ल-सूरत और अजनबी जबान वाले ये हमलावर हैं कौन, क्यों उन्हें कत्ल कर रहे हैं, क्यों मंदिर को तोड़ रहे हैं, क्यों उनके देवताओंं की मूर्तियों को इस बेरहमी से तोड़ा जा रहा है, बेजान बुतों से क्या खतरा है, हमारी संपत्तियाँ लूटकर क्यों ले जा रहे हैं?
क्षिप्रा के तट पर एक काल्पनिक दृश्य-
पद्मविभूषण स्वर्गीय पंडित सूर्यनारायण व्यास और राजशेखर व्यास के किसी विद्वान पूर्वज ने 800 साल पहले अपनी आँखों के सामने उस विध्वंस को देखा होगा। किसी ने एक तुर्क लुटेरे से पूछा- “आप कौन हैं बंधु? मंदिर क्यों तोड़ रहे हैं? हम पर ये आक्रमण क्यों? इस लूटपाट का कारण क्या है?’
“दिल्ली पर इस्लाम का कब्ज़ा हो चुका है…अब इस मुल्क पर हमारी हुकूमत है…।“ इल्तुतमिश का जोशीला तुर्क गुलाम आगे आकर बोला।
“इस्लामी कब्ज़ा… ये इस्लाम क्या है?’
“खामोश काफिर… अदब से बात कर… इस्लाम हमारा मजहब है… अब यहाँ इस्लाम का परचम फहराएगा और इस्लामी कानून चलेगा।” दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए वह गुस्से में बोला।
“मगर इस नए कानून का हमारे मंदिर को तोड़ने और लूटने से क्या संबंध है श्रीमान्?“
“नासमझ इस्लाम में बुतपरस्ती हराम है… हमने दिल्ली के सारे बुतखाने तोड़ डाले हैं… वहाँ मस्जिद-मीनार तामीर की जा रही हैं… लूट की यह दौलत माले-गनीमत है… पहली दफा दिल्ली से दूर यहाँ तक अल्लाह ने हमारी फतह आसान की है।“ उसने दुआ में हाथ ऊपर किए और मंदिर में मची लूटपाट में शामिल हो गया।
व्यास परिवार के किसी अनाम पुरखे ने इसके बाद आँखें बंद कर गहरी आह भरी होगी और घर आकर अपने परिवारवालों को पहली बार इस्लाम का नाम लिया होगा! उस दिन मगरिब की नमाज के पहले उज्जैन का हज़ारों सालों का वैभव बर्बर ताकत के आगे ध्वस्त हो गया।
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इल्तुतमिश के इस्लामी लुटेरों ने 26 साल तक सिंध से लेकर बंगाल और मध्य भारत में उज्जैन तक लगातार हमले किए। उज्जैन के रास्ते में मौर्य काल से ही उत्तर से दक्षिण के बीच प्रमुख कारोबारी मार्ग पर बसे विदिशा (पुराना नाम भिलसा) शहर के प्राचीन मंदिरों सहित इस इलाके के सभी पुराने महल-मंदिर सबसे पहले इल्तुतमिश के हाथों ही बरबाद किए गए।
आज भी उनके खंडहर गाँव-गाँव में उस बड़े हमले की गवाही देते हैं। विदिशा में जिस 105 गज ऊँचे मंदिर का ज़िक्र सिराज ने किया है, वह आज पुराने शहर की बदहाल गलियों में मौजूद विजय मंदिर है, जिसे बीजा मंडल भी कहा जाता है। अब इसकी छह-सात फुट ऊंची बुनियाद ही बची है।
जैसे न्यूयॉर्क में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर अमेरिका की आर्थिक समृद्धि का प्रतीक था, वैसे ही अपने समय में उज्जैन और विदिशा के ये मंदिर भारत की हजारों साल की समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा के पूजनीय प्रतीक थे। ये कई-कई बार बने। कई-कई बार तोड़े गए। इल्तुतमिश के समय पहली दफा तोड़े जाने के बाद लगातार विदिशा पर दिल्ली के खिलजी, तुगलकों, मुगलों और स्थानीय कब्जेदार सुलतानों की इस्लामी फौजों ने भी हमले बोले।
विदिशा में विजय मंदिर पर खड़ी इस बदशक्ल इमारत के बाहर पुरातत्व विभाग का एक बोर्ड इसे आलमगीरी मस्जिद बताता है। आलमगीर औरंगजेब (इल्तुतमिश के 450 साल बाद) को कहते थे। बहुत मुमकिन है कि औरंगजेब के समय विजय मंदिर के चार सदी पुराने मलबे से एक नई इबादतगाह यहाँ खड़ी की गई हो।
1990 के दशक के शुरू में राम मंदिर आंदोलन के जोश से भरे दिनों में एक बारिश में इस उजाड़ इबादतगाह की एक दीवार ढह गई थी और उसमें दफन विशालकाय टूटी-फूटी मूर्तियों का भंडार बाहर निकला था। इसके साथ ही मंदिर का वह दबा हुआ हिस्सा भी पहली बार बाहर आया, जो मलबे में ढाई-तीन सौ साल छिपा रहा था।
हम आज के बेतरतीब और बदहाल विदिशा और उज्जैन की गलियों में घूमते हुए कल्पना भी नहीं कर सकते कि ये इल्तुतमिश की इस्लामी फौज के हाथों पहली बार बरबाद होने के पहले किस शक्ल में सदियों से मौजूद रहे होंगे। यहाँ मौर्य, गुप्त और परमार राजवंशों ने इस्लाम के झंडाबरदारों के घातक हमलों के 1500 साल पहले से बेहिसाब भव्य निर्माण कराए थे। वे सब अब खंडहरों या उजाड़ और गुमनाम टीलों में मौजूद हैं।
जहाँ भी खुदाई होती है, वहाँ टीलों से मूर्तियाँ या स्तूप झाँकते हैं। नदियाँ सूखती हैं तो घाटों के किनारे तोड़े गए मंदिरों की खंडित मूर्तियाँ आज भी अक्सर इस इलाके से निकलती हैं। अब ये अखबारों के अंदर के पन्नों की छोटी-मोटी खबरें भर हैं। उज्जैन में महाकाल का मौजूदा मंदिर तो 300 साल पहले देवी अहिल्याबाई होल्कर का बनवाया हुआ है। लेकिन विदिशा में विजय मंदिर आज भी एक क्षत-विक्षत लाश की तरह आँखों के सामने है।
दिल्ली में अब हर तरफ से ऐसे ही विध्वंस और कामयाब लूट की खबरें चारों तरफ से आती थीं। इल्तुतमिश ने 26 साल तक भारत के सदियों पुराने कितने मालामाल शहरों को रौंदा, मंदिर तोड़कर लूटे और काफिरों को कत्ल किया, इसे देखिए-रणथंभौर, मंडावर, लखनौती, दरभंगा, थनकिर, ग्वालियर, विदिशा, उज्जैन, वाराणसी, कन्नौज, देवल, सियालकोट, लाहौर, झज्जर…।
ये तो बड़े शहरों के नाम हैं। इनके रास्तों में पड़ने वाले छोटे गांव और कस्बों में कैसी अफरातफरी मची होगी, यह सोच के परे है। आज शहरों के निवासियों की याददाश्त में इतिहास के कितने नृशंस ब्यौरे बचे होंगे, कहा नहीं जा सकता, क्योंकि ये तो बहुत शुरुआती हमले थे।
इन्हीं शहरों में आने वाले 700 सालों तक ऐसे कई इल्तुतमिश आने वाले थे। भारत की असली आपबीती धूल और राख की कई परतों के नीचे दबी हुई है। हमारी आज की पीढ़ी को तो ऊपरी परत का भी ठीक से अंदाजा नहीं है। जबकि कई अंदरुनी परतें सदियों से अपने
आगोश में आंसुओं से भरी कहानियां समेटे हुए हैं। आजादी के बाद सेकुलर आवरण ने इन घावों को एक सुगंधित लेप की तरह ढकने का पाप किया।
महाकाल मंदिर पर झपट्टा मारने के फौरन बाद ही इल्तुतमिश 1236 में मर गया। कब्र में उसके सोते ही दिल्ली में मची चार सालों की उथलपुथल के दौरान उसका पूरा कुनबा बेमौत मरा। आखिरकार नासिरुद्दीन महमूद तख्त पर काबिज होता है। वह 22 साल तक टिका।
उसने नए सिरे से कहानी दोहराई। उसने कटेहर (आज के बरेली, रामपुर, संभल, मुरादाबाद का इलाका, जहाँ तब पृथ्वीराज चौहान के हिंदू सामंत राज करते थे और दिल्ली में हुए बदलाव पर बागी तेवर अपनाए हुए थे।) ग्वालियर, चंदेरी, मालवा, बुंदेलखंड, रणथंभौर, कन्नौज, बिजनौर, हरिद्वार, मुलतान और मेवात (हरियाणा-राजस्थान का यह इलाका तब सीधे पृथ्वीराज चौहान के राज्य की सीमा में था।) पर लगातार हमले जारी रखे।
मिनहाज़ सिराज ने हमलों, लूट और कत्ल के ब्यौरे अपने सुलतान की शान में दर्ज किए हैं। इन हमलों में इस्लामी सेना के हाथों” काफिर हिंदुओं को नरक भेजने‘ की कहानियाँ इतनी हैं कि थक-हारकर मिनहाज़ सिराज एक जगह लिखता है– “किलों पर कब्जा जमाने, जंगलों को काटकर रास्ता बनाने, काफिरों को कत्ल करने, हिंदू राय-राणाओं को कैद करने का समस्त ब्यौरा लिख पाना मुमकिन नहीं है।“
दिल्ली पर काबिज होने के बाद तुर्क आतंकियों ने हर जगह स्थानीय राजे-रजबाड़े या तो बुरी तरह रौंद डाले या उन्हें हर साल नियमित फिरौती (खिराज) तय करने के बाद बुरी तरह लूटकर छोड़ा गया। इस तरह से छोड़ा जाना भी कुछेक महीने या साल की मोहलत होती थी और दिल्ली में किसी और के तख्त पर बैठते ही नए सिरे से आतंकी हमले शुरू हो जाते थे।
इस भगदड़ में बड़ी तादाद में लोगों का धर्मांतरण हुआ। नया मजहब मौत की सजा से बचने के लिए जिंदा रहने की सजा थी। जो बुद्धिजीवी हाल के दिनों में “मॉब लिंचिंग’ के प्रति फिक्रमंद हुए हैं, उन्हें अपने बीते हुए कल की इन तस्वीरों को अपने दिमाग में जिंदा करना चाहिए ताकि वे तय कर सकें कि “मॉब लिंचिंग’ जैसे भारी-भरकम शब्द को कहां खर्च किया जाना चाहिए।
हमें मिनहाज़ सिराज और इब्नबतूता का दिल से शुक्रिया अदा करना चाहिए। अल्लाह दोनों को जन्नत बख्शे। उसके बिना हम कभी नहीं जान पाते कि पृथ्वीराज चौहान की हार के बाद भारत की बदकिस्मती का शुरुआती दौर कितना घातक था, क्योंकि आज़ादी के बाद हमारे सेक्युलर इतिहासकारों ने तो उन्हें “गुलामवंश के सुलतान“ कहकर महिमामंडित किया। उनकी व्यापार और विदेश नीतियों पर ज्ञानवर्द्धन किया।
जबकि मिनहाज़ के साथ ग्वालियर, दिल्ली, अवध, लखनौती और मुलतान घूूमते हुए ही हम ठीक से देख पाते हैं कि ये आतंकी लुटेरे उस समय कर क्या रहे थे। विदिशा और उज्जैन के सदियों पुराने जख्म न्यूयार्क के वर्ल्ड ट्रेड टावर की तरह आज भी हरे हैं!
महाकाल ज्योतिर्लिंग को आक्रांताओं से सुरक्षित रखने लिए करीब 550 वर्षों तक पास ही के एक कुएं में छुपाया रखा। मराठा शूरवीर श्रीमंत राणोजी राव सिंधिया ने मुगलों को पराजित कर अपना शासन 1732 में उज्जैन में स्थापित किया था। राणोजी महाराज ने श्री बाबा महाकाल
ज्योतिर्लिंग को कोटि तीर्थ कुंड से निकाल महाकाल मंदिर का पुनः निर्माण करवाया और महाकाल ज्योतिर्लिंग को मंदिर दोबारा स्थापित किया।
राणों जी सिंधिया द्वारा बनवाए महाकाल मंदिर का एक पुराना फोटो साझा कर रहा हूं। जय बाबा महाकाल!. इसके अतिरिक्त लगभग 500 वर्षों के अंतराल के बाद, राणोजीराव सिंधिया जी ने 12 वर्षों में एक बार होने वाले उज्जैन के सिंहस्थ कुंभ उत्सव को भी दोबारा शुरू किया!.
साभार- https://www.facebook.com/PushpendraKulshresth/ से