गौतम बुद्ध के जीवन ,विचार और कार्यों की उपादेयता पर संपूर्ण दृष्टि डालें, तो उनके जीवन में एक भी प्रसंग नहीं है कि उन्होंने वंश, परंपरा, जाति – व्यवहार के प्रति क्रांति की हो या अवहेलना करने को कहा हो ।जब उनके मित्रों या अनुयायियों के बीच धर्म को लेकर दुविधा के प्रसंग आए तो महात्मा बुद्ध ने स्पष्ट रूप से पहले से चली आ रही नीतियों, परंपराओं, प्रथाओं और सांस्कृतिक अवधारणाओं का सम्मान करने को कहा था।महात्मा बुद्ध ने अपने जीवन में जाति – भेदों को तोड़ डाला और किसी भी समतामूलक दर्शन या समाज की स्थापना नहीं किया था। कुछ वामपंथी लेखकों ने तो बुद्ध को कार्ल मार्क्स का व्यवहारिक अनुयाई विचारक ठहरा दिया ;उन्होंने गौतम बुद्ध को वर्ग विहीन समाज(राज्यविहीन ) बनाने का विचार शुरू करने का दार्शनिक सिद्ध करने का प्रयास किए;क्योंकि आज भी समाज का एक बौद्धिक वर्ग हैं,जो विद्वान,पांडित्य ,प्रज्ञावान,चिंतनशील,विचारशील व्यक्ति को पथभ्रष्ट सिद्ध करने का प्रयास करता हैं।
ऐतिहासिक तथ्य यह है कि हिंदू समाज से अलग कोई और अ- हिंदू बौद्ध समाज भारत में कभी नहीं रहा था।अधिकांश हिंदू विभिन्न देवी – देवताओं की उपासना करते रहे हैं। उसी में कभी किसी को जोड़ते, हटाते भी रहे हैं ।जैसे ,आज किसी- किसी हिंदू के घर में राम कृष्ण जी, श्री अरविंद जी या डॉ आंबेडकर जी की मूर्ति मिलती हैं, उसी पंक्ति में मिल जाएंगे जहां शिव- पार्वती, सीता- राम जी और दुर्गा जी आज विराजमान रहते हैं। गौतम बुद्ध संत कबीर या गुरु नानक के उपासक उसी प्रकार के थे, वह अलग से कोई बौद्ध या सिख धर्म का उपासना नहीं किए थे। पुराने बौद्ध विहारों, मठों और मंदिरों को भी देखें तो उनमें वैदिक प्रतीकों और वास्तुशास्त्र की बहुतायत गुणात्मक पार्श्व मिलेगी। उनमें पुराने हिंदू नमूनों का ही अनुकरण करते रहे हैं। बौद्ध मंत्रों में भारत से बाहर भी वैदिक मंत्रों की अनुकृति मिलती है, जब बौद्ध धर्म का भारत से बाहर प्रसार हुआ। जैसे, चीन , जापान,थाईलैंड ,कंबोडिया,श्रीलंका आदि देशों में तो उनके साथ भारत वैदिक देवताओं के अस्तिव का आध्यात्मिक प्रसार व प्रचार हुआ था। जापान के हर एक नगर में देवी सरस्वती का मंदिर है,सरस्वती को वहां ले जाने वाले धूर्त ब्राह्मण नहीं ,बल्कि बहुत ही बहुतायत बौद्ध लोग थे।
महात्मा बुद्ध ने भविष्य में अपने जैसे किसी और ज्ञानी ,महात्मा बौद्धिक व्यक्तित्व(“मैत्रेय” )के आगमन का भी भविष्यवाणी किया था, और यह भी कहा था कि वह ब्राह्मण कुल में जन्म लेंगे। यदि गौतम बुद्ध के लिए कुल, जाति एवं वंश महत्वहीन होते तो वे ऐसा नहीं कर सकते थे। उन्होंने अपने मित्र प्रेसेनादी को वही समझाया, जो सबसे प्राचीन उपनिषद में सत्यकाम जाबालि के संबंध में तय किया गया था। यदि उसकी माता दासी भी थी तभी भी परिस्थिति बस उसके पिता को ब्राह्मण कुल का ही कोई व्यक्ति दिखाती थी ।अतः वह ब्राह्मण बालक था, और इस प्रकार अपने गुरु द्वारा स्वीकार शिष्य हुआ। उसी पारंपरिक रीति का पालन करने की सलाह गौतम बुद्ध ने अपने अनुयायियों को भी दिया था; इसलिए वास्तविक इतिहास यह है कि पूर्वी भारत में गंगा के मैदानों वाले बड़े शासकों, क्षत्रपों और क्षत्रिय राजाओं ने गौतम बुध का आदर, सम्मान सत्कार अपने बीच के विशिष्ट व्यक्ति के रूप में किया था ;क्योंकि गौतम बुद्ध वही के थे।उन्हीं शासकों ने बुद्ध के अनुयायियों, भिक्षुओं के लिए बड़े-बड़े मठ व बिहार बनवाए थे। जब महात्मा बुद्ध का देहावसान हुआ, तब आठ नगरों के शासकों और बड़े लोगों(विद्वान व्यक्ति) ने उनकी अस्थि – भस्मी पर सफल दावा किया था: ‘ हम क्षत्रिय हैं,गौतम बुद्ध भी क्षत्रिय थे, इसलिए उनके भस्म पर हमारा अधिकार है।’ बुद्ध के देहांत के लगभग आधी सदी बाद बुद्ध के शिष्य सार्वजनिक रूप से अपने जातीय नियमों का पालन निसंकोच करते मिलते थे। यह सहज था क्योंकि बुद्ध ने उनसे अपने जातीय संबंध तोड़ने की बात कभी नहीं कही थी।
गौतम बुद्ध को अपना आध्यात्मिक संदेश देना था तो यह तर्कपूर्ण था कि वे सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक व्यवस्थाओं में कम से कम हस्तक्षेप करते थे, उनकी चिंता कोई ब्राह्मणवाद के विरुद्ध विद्रोह व राजनीतिक कार्यक्रम आदि की नहीं थी, जो आज के मार्क्सवादी, नेहरूवादी,भिमवादी, आंबेडकर वादी, सोनिया वादी,राहुल वादी,ब्राह्मणवादी,ठाकुर वादी,बनियावादी में देखते या जाति का जहर भरते रहते हैं। इसलिए स्वाभाविक स्तर पर गौतम बुद्ध के चुने हुए शिष्यों में लगभग आधे लोग ब्राह्मण थे,जो उन्हीं के बीच से हुए अधिकांश प्रखर दार्शनिक बने, जिन्होंने समय के साथ बौद्ध दर्शन और महान ग्रंथों को महान चिंतन और तार्किक व वैज्ञानिक विश्लेषण करके महान सिद्धांत बनाया।
यह भी एक तथ्य है कि भारत के महान विश्वविद्यालय बुद्ध से पहले के स्थापित शिक्षालय थे। तक्षशिला का प्रसिद्ध विश्वविद्यालय गौतम/सिद्धार्थ के पहले से था, जिसमें बुद्ध के परम मित्र बंधुला और प्रसेनादी ने अध्ययन किया था। कुछ विद्वानों के अनुसार स्वयं सिद्धार्थ/ गौतम भी वहां पर अध्ययन किए थे। अतः यह कहना उपयुक्त होगा कि बौद्धों ने उन्हीं संस्थाओं को और मजबूत व जीर्णोद्धार किया जो उन्हें हिंदू समाज द्वारा पहले से मिली थी।बाद में बहुत विश्वविद्यालयों ने भी आर्यभट्ट जैसे अनेक गैर – बौद्ध वैज्ञानिकों को भी प्रशिक्षित किया था;इसलिए, वस्तुतः चिंतन, लोकाचार, सभ्यता, परंपरा एवं सिद्धांत किसी में बुद्ध ने कोई ऐसी नई शुरुआत नहीं की थी, जिसे पूर्वर्ती ज्ञान परंपरा एवं धर्म का प्रतिरोधी कहा जा सकता है।
अपने जीवन के अंत में महात्मा बुद्ध ने जीवन के सात सिद्धांतों का उल्लेख किया था, जिनका पालन करने पर कोई समाज /नागरिक समाज नष्ट नहीं हो सकता है। प्रसिद्ध इतिहासकार सीताराम गोयल ने भी अपने सुंदर उपन्यास”सप्त – शील” में उसी को वैशाली गणतंत्र की पृष्ठभूमि में अपना कथन बनाया हैं। इन सात सद्गुणों में यह भी हैं- अपने पर्व- त्यौहार का आदर करना एवं मनाना, तीर्थ अनुष्ठान करना, साधु – संतों का सम्मान व सत्कार करना, विद्वानों की इज्जत करना, मूर्खों से बहस नहीं करना एवं अपने माननीय या आदरणीय व्यक्तित्व का आत्मीय सम्मान करना। हमारे अनेक त्यौहार वैदिक मूल के हैं। गौतम बुद्ध के समय से भी पूर्व पर्व या त्यौहार थे। महाभारत में भी नदी किनारे तीर्थ करने का विवरण मिलते हैं। भीष्म- पर्व में भी नदी में स्नान करने को पुण्य माना गया है। सरस्वती और गंगा के तटों पर बलराम और पांडव तीर्थ करने गए थे। जहां तक सामाजिक और धार्मिक व्यवहारों की बात है तो महात्मा बुद्ध ने कभी पुराने व्यवहारों के विरुद्ध कुछ नहीं कहा, उनके प्रतिक्रिया स्वरूप में एक शब्द भी नहीं कहे। यदि कुछ कहा तो उनका आदर, सत्कार, सम्मान और पालन करने के लिए ही कहा। इस प्रकार कोई विद्रोही या क्रांतिकारी होने से ठीक उलट गौतम बूढ़ी पूरी तरह परंपरावादी थे ।अतः हम अपने विवेक की समझ के आधार पर कह सकते हैं कि गौतम बुद्ध आजीवन हिंदू रहे।