Friday, November 22, 2024
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ऐसी चौपाल और कहां…!

मुंबई की चौपाल क्या नहीं है, किसी के लिए ताजा हवा का झोंका है तो किसी के लिए जिंदगी जीने का तरीका किसी के लिए पारिवारिक संस्कृति है तो किसी के लिए हजारों किताबें पढ़ लेने जैसा। जब मुंबई की चौपाल 25 बरस की हो गई तो इसके चाहने वाले गोआ, पुणे, जयपुर से लेकर मुंबई के सुदुर उपनगरों की लंबी थका देने वाली यात्रा करके समय से पहले पहुँच गए। समय से पहले पहुँचना बहुत जरुरी होता है क्योंकि चौपाल में किसी का इंतजार नहीं किया जाता, जो समय दिया है उस पर चालू हो जाती है। चौपाल का अपना एक अलग ही अंदाज है, न हार -फूल न स्वागत सत्कार, न किसी की मिजाज पुरसी। पहली लाईन से आखरी लाईन तक में बैठे सभी अतिथि -अतिथि देवो भव के साक्षात रुप। न किसी की आगे बैठने की जिद न किसी को पीछे बैठने में हिचक। चौपाल में संगीत, साहित्य, कला, अध्यात्म से लेकर संस्कृति के तमाम रस बरसते ही ऐसे हैं कि कोई भी अपना एक मिनट भी आगे पीछे देखने में जाया नहीं करना चाहता। जिसको जहाँ जगह मिली वहीं जम गया। 25 साल की अपनी अनवरत यात्रा में इस चौपाल ने मुंबई शहर ही नहीं बल्कि देश भर के साहित्यिक व सासंकृतिक जगत में अपनी ऐसी पहचान बनाई है कि कोई भी रचनाधर्मी मुंबई आने का अपना कार्यक्रम इस हिसाब से बनाता है कि वह चौपाल का आनंद ले सके। किसी अखबार ने चौपाल के बारे में भले ही न लिखा हो मगर अमरीका, लंदन और सिंगापुर में किताबें लिखने वालों ने चौपाल का उल्लेख किया है।

25 साल की चौपाल की इस यात्रा पर जितना लिखा जाए कम है। न कोई अध्यक्ष, न सचिव न कोषाध्यक्ष। मगर चौपाल से जुड़े शेखर सेन अशोक बिंदल, अतुल तिवारी, दिनेश गुप्ता, कविता गुप्ता, राजेन्द्र गुप्ता का समर्पण ऐसा कि चौपाल बगैर बाधा के चलती रही। कोरोना ने चौपाल के पग थाम दिए मगर ऑन लाईन मजमा जमता रहा। कोरोना से श्राप मुक्त होते हि चौपाल एक बार फिर चमकती दमकती रसिक श्रोताओं के लिए पलक पाँड़े बिछाकर आ गई।  पहली चौपाल कालिदास के मेघदूत पर हुई तो राजेन्द्र गुप्ता जी के खुले आंगन में पानी बरस गया। सब श्रोता भागे भागे बगल में ही गुप्ता जी के भतीजे के घर में गए और चौपाल सजाई मगर इस चक्कर में सबके जूते चप्पल भीग गए।  ऐसे अनगिनत किस्से और यादें चौपाल के खाते में दर्ज है।

 
25 सालों में  चौपाल जब जब चातुर्मास करने (बारिश की वजह से ) कविताजी और दिनेश जी गुप्ता  के जुहु स्थित घर पहुँची  तो श्रोताओं  ने साहित्य, कला व संस्कृति के रस के साथ हर बार नए नए सुस्वादु व्यंजनों का स्वाद भी लिया और कविता व दिनेश जी के पूरे परिवार की आत्मीय अतिथि सेवा का भी।  इनके घर पर हर चौपाली का स्वागत किसी बाराती से भी ज्यादा आवभगत के साथ होता है। 

25 साल की चौपाल की यात्रा में विनोद शर्मा, ब्रह्मशंकरजी व्यास, दिनेश ठाकुर, उषा भटनागर, कैलाश सेंगर, सुखबीर सिंह, जावेद खान, राजकुमार रिजवी, विजय गोयल भुवंस के ललित वर्मा जैसे कई साथी बिछड़ गए अतुल तिवारी जी ने कार्यक्रम के प्रारंभ में ही इनके योगदान का उल्लेख किया और इन्हें श्रध्दांजलि अर्पित की गई

हर महीने होने वाली चौपाल को निरंतर अपने शब्दों में पिरोने वाली निर्मला डोसी की ये रिपोर्ट बताती है कि  मुंबई के रचनाधर्मियों, साहित्य व कला प्रेमियों के लिए चौपाल क्या है…

चौपाल की ये रिपोर्ट भी पढ़िये…

 

 

 

मुंबई का अंधेरी स्थित भवंस कॉलेज का एस पी जैन सभागार कल साक्षी बन गया चौपाल के पच्चीसवें वर्ष पूर्व पूरे होने के उपलक्ष में आयोजित किए गए भव्य जश्न का। शाम चार बजे से लेकर गई रात तक सभागार और उसका परिसर खचाखच भरा था। कार्यक्रम के दौरान तो सीढ़ियों पर भी दर्शक जमे थे और उस दिन कला जगत के विविध क्षेत्रों के गुणी  लोगों की उपस्थिति थी। कार्यक्रम को सफल होना ही था जिसके लिए अशोक बिंदल तथा कविता गुप्ता पिछले कई दिनों से जुटे हुए थे ।मुंबई के अलावा अन्य शहरों यहां तक कि विदेशों से भी चौपाल के समारोह में शरीक होने लोग आए थे।

सर्वप्रथम हमेशा की तरह भवंस के आगामी कार्यक्रमों की जानकारी दी गयी और फिर संचालन की डोर अतुल तिवारी के सधे हाथों में थी। बड़ी ही गर्मजोशी से उन्होंने शुरुआत की चौपाल की।  सुंदर सरल व सहज परिभाषा देकर  मुग्ध कर दिया अतुल जी ने-

‘ “चौपाल” यानी खुली बैठक, ऊपर छत और छाया तो हो पर दीवारें ना हो’ और ऐसी ही रही अब तक कि हमारी चौपाल और उसका इतिहास।

सबसे पहले अनंत की तरफ निकल गए चौपालियों को स्मरण किया गया। फिर जयपुर से आए पवन झा द्वारा बनाई गई  फिल्म को दिखाया गया जिसमें उन तमाम चौपालों की झलकियाँ थी जब चौपाल की चौखट को घनघोर गुणवंतों ने धन्य ही नहीं किया अपने हुनर की सुगंध भी बिखेरी थी। फिल्म में आवाज के जादूगर यूनुस खान अपना जादू चला रहे थे और साथ में अतुल जी का कमाल का संवाद भी चल रहा था जो बड़ी खूबसूरती से चौपाल का जुगराफिया बयां करते जा रहे थे, मसलन चौपाल मैं बतरस की जगह रस की बात ज्यादा की जाए, हमने एनालाईज करने वालों की जगह सिन्थेसाईज करने वालों को नजदीक रखा।

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शेखर सेन और अतुल तिवारी के बीच चल रही थी मजेदार चुहलबाज़ी का आनंद ले रहे थे प्रेक्षक। शेखर जी ने नागार्जुन की उसी कालजयी कविता से कार्य क्रम का आगाज़ किया जिसे पच्चीस वर्ष पूर्व पहली चौपाल में भी गाया था—

कालिदास सच सच बतलाना
इंदुमती के मृत्यु शोक से
अज रोया या तुम रोए थे

उसके बाद कवि प्रदीप की अर्थपूर्ण रचना प्रस्तुत की जिस की प्रासंगिकता आज के बड़बोले युग में बहुत ज्यादा है–

कभी खुद से बात करो कभी खुद से बोलो.
अपनी नजर में तुम क्या हो
कभी मन की तराजू पर तोलो

अगली रचना ललित किशोरी की  थी जो अनगिनत बार सुनने के उपरांत भी जब तक शेखर जी से सुन न ले, चौपाली टस से मस नहीं होते। पूरी की पूरी रचना में सिर्फ कृष्ण  की आँखों को  अलग-अलग शब्दों से उपमा देकर गुंथा गया है। उसे प्रस्तुत करने वाले शेखर सेन जैसे रंगकर्म की सभी विधाओं में निष्णात कलाकार हों तो वह रचना और भी ज्यादा ग्राह्य हो जाती है।

शेखर जी कोई रचना प्रस्तुत करते हैं तो उसकी पृष्ठभूमि बताकर उस रचना को इतना जीवंत कर देते हैं कि वह प्रस्तुति श्रोताओं के ह्रदय पटल पर जम जाती है।

ललित किशोरी जा उल्लैख करते हुए उन्होंने बताया कि ललित किशोरी का असली नाम कुंदनलाल शाह था। वे लखनउ के नगर सेठ थे और नवाब वाजिद अली शाह के प्रिय लोगों में से थे। जब नवाब वाजिद अली शाह की सत्ता उनके हाथ ले जाने लगी तो कुंदन लाल शाह नवाब के पास गए और कहा कि मैं तो अब व़ंदावन जाकर  कृष्ण का मंदिर बनावाकर कृष्ण की भक्ति करुंगा। इस पर नवाब वाजिद अली शाह ने कहा कि तुम किस्मत वाले हो तुम मूर्ति पूजा कर सकते हो मगर मेरा धर्म तो मूर्ति पूजा की इजाजत नहीं देता। लेकिन तुम वडंदावन जा ही रहे हो तो मेरी ओर से वहाँ एक बगैर मूर्ति का मंदिर बनवा देना। वाजिद अली शाह के कहने पर सेठ कुंदनलाल शाह ने उनकी ओर से वृंदावन में वसंती मंदिर बनवाया गया जिसमें कोई मूर्ति नहीं रखी गई। कुंदनलाल शाह कृष्ण भक्ति में ऐसे डूबे कि उन्होंने अपने आपको कृष्ण की सखी मानते हुए अपना नाम ललित किशोरी रख लिया। इन्हीं ललित किशोरी ने कृष्ण की आँखों पर जो पद रचे उन्हें शेखर जी ने इस भाव और अंदाज से राग वृंदावनी सारंग में सुनाए कि श्रोताओं की आँखें भर आई।

लजीले, सकुचीले, सरसीले, सुरमीले से,
कटीले और कुटीले, चटकीले मटकीले हैं।

रूप के लुभीले, कजरीले उनमीले, बर-
छीले, तिरछीले से फँसीले औ गँसीले हैं॥

‘ललित किसोरी’ झमकीले, गरबीले मानौं,
अति ही रसीले, चमकीले औ रँगीले हैं।

छबीले, छकीले, अरु नीले से, नसीले आली,
नैना नंदलाल के नचीले और नुकीले हैं॥

शेखर जी ने अंतिम रचना नरोत्तम दास के खंडकाव्य ‘सुदामा चरित्र’ की  पंक्तियाँ  सुनाई तो ऐसा लगा मानों कृष्ण के राजमहल पर सुदामा नहीं बल्कि श्रोता स्वयं खड़े हैं।

सीस पगा न झगा तन पै, प्रभु! जानै को आहि! बसै केहि ग्रामा।
धोती फटी-सी लटी-दुपटी, अरु पाँय उपानह की नहिं सामा॥

द्वार खरो द्विज दुर्बल एक, रह्यो चकि सों बसुधा अभिरामा।
पूछत दीनदयाल को धाम, बतावत आपनो नाम सुदामा॥

अगले वक्ता  लट्टू जी बागड़ी थे  जिन्होंने  अपनी मातृभाषा खांटी बीकानेरी बोली में बड़ी सहजता से मन की बातें कही और सुनने वालों के कलेजे में सरपट उतार कर  इस अकाट्य सत्य को स्थापित किया कि मन की बात ‘मादरी जबान’ में कहने से ज्यादा जल्दी संप्रेषित होती है।

अगली वक्ता निर्मला डोसी थी जिन्होंने चौपाल की  अनगिनत यादगार शामों को अपनी कलम से संजो कर रखा है।

अशोक बांठिया  चौपाल के मुख्य स्तंभों में से एक रहे हैं। उन्होंने 20:25 मिनट का छोटा सा नाटक ‘लोमड़ी’  प्रस्तुत किया जिसे लिखा रिजवान जहीर उस्मान ने था।

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अब आते हैं चौपाल के संगीत पक्ष को संभालने वाले  संगीतकार कुलदीप सिंह जी, जिन्हें ‘मंच संगीत’ के लिए राष्ट्रपति जी ने सम्मानित किया  है। उनकी शिष्य मंडली से पूरा का पूरा मंच सजा था। ये सब वे ही बच्चे हैं जिन्होंने पांच- सात साल की उम्र से    सीखना शुरू किया था और आज वे अपने हुनर की धाक  दुनिया भर में जमा रहें हैं।पहली ही रचना साहिर लुधियानवी की सुनाकर समूचे सभागृह को अपनी जद में ले लिया।भड़का रहे हैं आग लब-ए-नग़्मागर से हम
ख़ामोश क्या रहेंगे ज़माने के डर से हमकुछ और बढ़ गए जो अँधेरे तो क्या हुआ
मायूस तो नहीं हैं तुलू-ए-सहर से हमले दे के अपने पास फ़क़त इक नज़र तो है
क्यूँ देखें ज़िंदगी को किसी की नज़र से हममाना कि इस ज़मीं को न गुलज़ार कर सके
कुछ ख़ार कम तो कर गए गुज़रे जिधर से हमदूसरी प्रस्तुति अनघ बेनर्जी की थी दुष्यंत कुमार की गजल-इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है
नाव जर्जर ही सही नदी से टकराती तो हैकुलदीप जी के छोटे बेटे हरप्रीतसिंह ने नजीर अकबराबादी का विख्यात बंजारा गीत गाकर समां बांध दिया।सब ठाठ पड़ा रह जाएगा जब लाद चलेगा बंजारा
अगली प्रस्तुति पूरे समूह की थी और वह निदा फ़ाज़ली साहब की रचना थी

हाथ बढाओ अल्लाह मियां
मेरे घर आ भी जाओ अल्लाह मियां
काम बहुत है अल्लाह मियां
हाथ बढाओ अल्लाह मियां

 जन गीतों को रवींद्रनाथ टैगोर  ने जिंदा रखा और कोरस  गीतों को बचाने  पूरा श्रेय कुलदीप सिंह जी को जाता है अतुल जी ने कहा।

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संयोग से 11 जून को पुष्पा भारती जी का जन्मदिन पड़ता है तो चौपाल में उस रात गुलजार साहब के हाथों उनका अभिनंदन किया गया और पुष्पा जी ने अपनी पहली पुस्तक ‘सुभागता’ जिसमें विश्व भर के नामचीन लोगों की प्रेम कहानियां का संकलन  किया गया था का दोबारा नामकरण गुलजार साहब के सुझाए नाम से किया और वह नाम था ‘प्रेम प्याला जिन पिया’ का संस्मरण पुष्पा जी ने  श्रोताओं के साथ ताजा किया।

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सुभाष काबरा अति व्यस्ततम दिनचर्या के बीच भी चौपाल के लिए हर बार ताजी रचना लिख कर लाते हैं। इस बार तो उनकी कल्पना की लंबी उड़ान ने स्वर्ग में ‘देव चौपाल’ करवा दी जिसे सुनकर श्रोताओं का खूब मनोरंजन हुआ और साथ ही चौपाल के स्वभाव का जायजा लेते हुए कहा–

सरस्वती के लिए पगलाए ये चौपाली
लक्ष्मी को भी कई बार भूल जाते हैं
नारायण नारायण नारायण
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मनजीत सिंह कोहली ने छोटी सी अर्थपूर्ण रचना तथा एक गीत सुनाया और कहा कि चौपाल मेरी आदत बन गई है गीत के बोल थे

हम बेघर हैं हम दर बदर हैं इसलिए ही हम जिंदा है

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अब बारी थी राजेंद्र गुप्ता की। कमाल गुप्ता जी की दमदार आवाज का था या फिर उनके अंदाज़े बयां का पर जो हुआ गजब हुआ। मुझे   लगता है कि पहले वे कविता के एक-एक अक्षर और उसके अर्थ को आत्मसात करते हैं और फिर प्रस्तुत करते हैं।

पहली कविता विश्वनाथ सचदेव की बहु प्रसंसित रचना ‘चेरैवेति चेरैवेति’ थी जिसमें कवि सूरज से पूछता है कि

रोज रात को कहां चले जाते हो सूरज
या फिर भोर तुम्हारे आने से होती है

दूसरी रचना हूबनाथ पांडे की ‘इल्तिजा’ आज के हालात का साफ-साफ हालेबयां था कि
आपने जिस कदर इज्जत बख्शी है झूठ को
जितनी अहमियत दी है फूट को
जितनी आजादी दी है लूट को
उसका कोई हिसाब नहीं
आपकी जम्हूरियत का कोई जवाब नहीं

तीसरी रचना गुलजार साहब की ‘सलीब’ थी जिसे सुनकर पूरा सभागृह स्तब्ध रह गया। स्वयं राजेंद्र जी का कंठ अवरुद्ध हो गया और गुलजार साहब  भाव विह्वल होकर बोले कि मैंने तो यह कविता सिर्फ लिखी है उसे जिंदा आज इन्होंने किया है।

यह मामूली बात नहीं है और गौरतलब यह है यह घटना उसी  चौपाल के बीच घटी है जिसका हम आज रजत जयंती वर्ष मनाने एकत्रित हुए हैं। गुलजार साहब जैसे कद्दावर शायर ऐसी बात कहते हैं तो वह रेखांकित करने योग्य तो है।
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अशोक बिंदल जी बड़ी विनम्रता से  बोले  कि- इन पांच चौपालियों ने  उन पांच सौ से मेरा परिचय करवाया वही मेरी कमाई है और महानगर में इतना बड़ा कुनबा पा जाना मेरा सौभाग्य ।

कविता गुप्ता ने कहा कि- जब से चौपाल मेरे घर आई मेरे बच्चों को कला संस्कारित किया जो स्वयं चाह कर भी मैं नहीं कर सकती थी।

अतुल जी मैं अपना संचालक का बाना उतार चौपाली की तरह बोले कि- मेरा तो अपना परिवार ही यह चौपाल ही है।

अंततः वह पल आ ही गया जिसका सब बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। गुलजार साहब माइक पर थे हमेशा की तरह कड़क कलफ लगे सफेद झक्क कुर्ते पायजामे में और उनके अदृश्य आभामंडल को जगर मगर कर रही थी इल्म की अद्भुत दिप्ती।   सभागार में उपस्थित प्रशंसकों की आंखें जैसे कान बन गई थी उनके कहे एक- एक शब्द के अमृत को चखने के लिए तत्पर और गुलजार साहब ने कहा कि- राजेंद्र गुप्ता ने जिस तरह मेरी कविता सुनाई मुझे क्या कहना है कितना कुछ सोचा था अब कुछ याद ही नहीं रहा। यकीनन चौपाल  सियासत नहीं सिर्फ फन ही फन है।

गुलजार साहब के मुंह से उनकी रचनाएं सुनना और उन  लम्हों को शब्दों में पिरो पाने का हुनर तो मुझे नहीं आता। कैसे बताऊं कि जब वे सच्चे मोती जैसे आब दार लफ्जों में अपना कलाम पढ़ रहे होते हैं तो उनके लफ़्ज़ों को लिखूं या  उनकी रचनाओं में आए टटके और अनोखे उपमानों  की बात करूं या फिर उस नूर की बात करूं जो शायर के रोशन चेहरे पर उतर आता है अपनी रचना पढ़ते वक्त।  ये सारी चीजें बयां नहीं की जा सकती पाठकों! उसे तो देखना होता है  आमने-सामने। सुनना होता है अपने ही कानों से ।

 मजरूह सुल्तानपुरी के सदाबहार पंक्तियों के साथ अतुल तिवारी ने आज की यादगार चौपाल का समापन किया।

रहे ना रहे हम
महका करेंगे
बन के कली बन के सबां बागे वफ़ा में

चौपाल में इस तरह रजत से स्वर्ण की तरफ कदम बढ़ा दिया और  चौपाल की वह  शाम फिर एक  यादगार पृष्ठ बन कर स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज हो गई।

निर्मला डोसी 9322496620

एक निवेदन

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