भारत के दक्षिण में तमिलनाडु राज्य का आखिरी छोर कन्याकुमारी और रामेश्वरम को देखने का मेरा कई वर्षो का ख्वाब था। साल दर साल गुजरते गए और इसे देखने की इच्छा बलवती होती गई। लंबे इंतजार के बाद प्रभु का लिखा वह दिन भी आया जब मेरा सपना साकार होने जा रहा था। मैंने अपनी पत्नी मंजू के साथ जाने का कार्यक्रम बनाया। इसका जिक्र जब अपने भांजे अमित से किया तो उसने कहा आप जा ही रहे हो तो मम्मी और चाची को भी लेते जाओ वह भी आपके साथ घूम आयेंगी। मेरे लिए तो सोने में सुहागे जैसी बात हो गई, इतना अच्छा साथ हमें मिल रहा था। उसने उनका कार्यक्रम भी हमारे साथ बना कर उनके रिजर्वेशन के लिए आवश्यक जानकारी मुझे दी। पूरे उत्साह के साथ रेलवे की आरक्षण खिड़की पर जा कर सभी के जाने और आने के रिजर्वेशन करवाए। सौभाग्य से सभी की सीटें आरक्षित होने से मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा।
सीटें बुक होने से हम सभी आश्वस्त हो गए और कन्याकुमारी और रामेश्वरम देखने के सपने बुनने लगे। प्रस्थान करने के बीच के समय का उपयोग मैंने इन स्थानों की विस्तृत जानकारी एकत्रित कर एक छोटी सी नोट बुक में याददास्त के लिए लिख ली। जैसे-जैसे प्रस्थान का दिन नजदीक आया हम जाने की तैयारियों में लग गए। आखिरकार वह दिन भी आ गया जब कन्याकुमारी देखने के सपने संजोये हमारा सफर कोटा रेलवे स्टेशन से दोपहर 3.30 बजे तिरूअंतपुरम राजधानी रेलगाड़ी से शुरू हुआ। द्वितीय एसी यान में आरामदायक सफर और बातों का आनंद लेते हुए करीब 8 बजे घर से बना कर साथ लाये भोजन का लुत्फ उठाया। कुछ देर ताश खेल कर मनोरंजन किया और अपनी – सीटों पर निद्रा देवी की गोद में समा गए। बीच – बीच में चेतन हो कर अपने समान को भी देख लेते थे।
सुबह रेल एक स्टेशन पर ठहरी तो पूछने पर पता चला यह गोवा का मडगांव स्टेशन है। यह जानकर मैं डिब्बे से उतर कर बाहर आया तो देखा साफ सुथरा लंबा प्लेटफार्म था। कुछ चायपान के स्टाल थे। यात्रियों की संख्या गिनीचुनी थी। कुछ फेरीवाले भी घूम कर चाय नाश्ता बेच रहे थे। मैं एक स्टाल पर चला गया। देखा दूकान पर एक पैकेट में गोवा के छिलके वाले काजू रखे थे। मन ललचा गया और एक पैकेट खरीद कर प्लेटफार्म और ट्रेन के साथ एक सेल्फी ले कर डिब्बे में आ गया। मेरे हाथ में काजू का पैकेट देख कर सभी के चेहरों पर मुस्कान तैर गई और छिलके वाले काजुओं को कोतुक से देखने लगे। इन्हें छील कर जब खाया तो इनके मीठे स्वाद से सभी का मन प्रसन्न हो गया। दिनभर हम खिड़कियों से दक्षिण भारत के जंगलों, हरी – भरी गहरी और ऊंची घाटियों , पर्वतों और नदियों के नैसर्गिक सौंदर्य को निहारते रहे । कभी कोई सुरंग आ जाती तो अंधेरे से गुजरती ट्रेन बहुत अच्छी लगती। जब किसी पुल से गुजरती थी तो नदी का प्राकृतिक सौंदर्य लुभा लेता था। दक्षिण भारत के वनों और भौगोलिक स्थित को जी भर कर देखते हुए दो रात का सफर तय कर सुबह 5.30 बजे तिरुअनंतपुरम रेलवे स्टेशन पर पूरा हुआ।
समान लेकर हम स्टेशन से बाहर आ गए और समीप ही एक दुकान पर ठहर कर चाय – नाश्ता किया। सब को वही बेटा कर मैं टैक्सी की व्यवस्था के लिए बाहर आया। तीन चार से पूछा तो वे कन्याकुमारी के चार से पांच हजार रुपए किराया बता रहे थे। जिसने चार हजार रुपए बताए थे उसको मैंने कहा भाई ढाई हजार देंगे चलना हो तो चलो। वह नहीं माना और मैं दूसरी टैक्सी के आने का इंतजार करने लगा। करीब पांच मिनट बाद वह मेरे पास आया और बोला साहब चार हजार वाजिब रेट है। मैंने उसको कहा हम सब मालूम कर के आए हैं । करीब 6 माह पूर्व मेरे दोस्त यहां आए थे और उन्होंने ढाई हजार में टैक्सी ली थी। मोलभाव करते – करते वह तीन हजार में तैयार हो गया। मैं टैक्सी ले कर दूकान पर पहुंचा। सामान रख कर हम 7.30 बजे कन्याकुमारी के लिए रवाना हो गए। करीब 90 किलोमीटर के सफर में रास्ते के नजरों को निहारते हुए लगभग 10.00 बजे हम कन्याकुमारी पहुँच गए । रास्ते में टैक्सी ड्राइवर से बात कर हमने अपनी सुविधा का एक होटल तय कर लिया था। वह हमें सीधा होटल पर ले गया। मैंने रिसेप्शन काउंटर पर जा कर एक हजार में अच्छा बड़ा रूम बुक किया। टैक्सी का किराया चुका कर समान ले कर हम अपने रूम में चले गए। सभी तैयार हो करीब 11,30 बजे कन्याकुमारी दर्शन के लिए निकल पड़े।
होटल से कोई 150 कदम पर ही मुख्य दर्शनीय स्थल थे। रास्ते पर थे होटल और रेस्टोरेंट काफी संख्या में थे। कहीं चाय तो कहीं कॉफी की स्टाल। स्थानीय समुद्री उत्पाद सीप, कोड़ी, मोती, शंख आदि की नाना विध शिल्पकला कृतियों से अनेक दुकानें सजी थी । सड़क के किनारे पर फूलमालाएं और पूजा का सामान बेचने वाले मंदिर के लिए पूजन सामग्री लेने के लिए आग्रह कर रहे थे। बाजार का दृश्य पर्यटक बाजार होने पूरा अहसास करा रहा था। सबसे पहले हम पहुंच गए समुद्र के किनारे जहां से बोट में हमें विवेकानंद रॉक जाना था। अब इसे अपना दुर्भाग्य कहें या
संयोग कि किसी अपरिहार्य कारण से उस दिन बोटिंग बन्द करदी गई। मन बड़ा खिन्न हुआ पर कर भी क्या सकते थे, शायद यहां आ कर भी यह स्थल देखना हमारे भाग्य में नहीं था। स्थिति से समझौता कर हमने मालूम किया कि ऐसी कौन सी जगह है जो समुंद्री आकर्षण के सबसे नजदीक है। एक ने बताया कन्याकुमारी मंदिर के दांई और चले जाइये वहां से आप को सामने ही सबसे नजदीक दिखाई देंगे दोनों टापू। हमें यह भी बताया गया कि कन्याकुमारी मंदिर में काफी बड़ी लाइन में लगना होता है और करीब एक घंटे में दर्शन होते हैं।
यही सोच कर हमने पहले कन्याकुमारी मंदिर देखने का प्लान बनाया और हम पहुंच गए मंदिर के सामने। मंदिर के बाहर फूलमाला और प्रसाद वाले बुला रहे थे देवी के लिए पूजा ले जाओ। हमने भी पूजा की सामग्री ली और लाइन में लग गए। यहां लाइन छोटी थी और करीब 20 मिनट में ही हम देवी पार्वती के दर्शन कर रहे थे। देवी पार्वती की श्यामवर्णीय पाषाण से निर्मित खड़ी मुद्रा की मूर्ति आलोकिल आनंद प्रदान कर रही थी। प्रज्वलित दीपों की रोशनी में गर्भगृह का दृश्य मनभावन था। मंदिर परिसर काफी बड़ा था। चारों और देवी देवताओं की प्रतिमाएं विराजित थी। यह मंदिर तीन समुन्द्रों हिन्द महासागर, बंगाल की खाड़ी तथा अरब सागर का संगम स्थल पर बना है। कुछ भक्त पहले त्रिवेणी में स्नान कर मंदिर में दर्शन के लिए जा रहे थे। त्रिवेणी संगम स्थल मंदिर के बांई ओर करीब 500 मीटर दूरी पर ही है। मंदिर का संपूर्ण वातावरण भक्ति भाव से सरोबार था।
मंदिर में जी भर कर दर्शन कर हम दांई और चल दिये। कोई दो मिनट में ही हम समुद्र के किनारे मंदिर के पीछे बने अच्छे चौड़े प्लेटफार्म पर पहुंच गए। सामने था विशाल समुद्र और उसके बीच विवेकानंद स्मारक और गुरुवल्लुर स्मारक का खूबसूरत दृश्य। यहां कई दुकानें फोटोग्राफर , हस्तशिल्प और खाने पीने के समान की सजी थी। एक फोटोग्राफ ने कहा यादगार के लिए फोटो खिंचवा लीजिए। हमारे पास मोबाइल होते हुए भी उसके आग्रह को म्मानना उचित समझते हुए हमने समूह चित्र खिंचवा लिया। इसका सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि उसने बारी – बारी से हम सब को अपने लॉन्ग शॉट कमरे से दोनों स्मारकों को
बारिकी से देखने का अवसर प्रदान किया। मैने तो जी भर कर बहुत बारीकी से स्मारकों का अध्ययन किया। वास्तव में बेजोड़ थे स्मारक और उनके किनारे समुद्र की उठती – गिरती लहरें जो सर्दी की गुनगुनी धूप में चांदी सी चमक रही थी।
हमें बताया गया कि विवेकानंद स्मारक को 1970 में विवेकानंद रॉक मेमोरियल कमेटी ने स्वामी विवेकानंद के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए बनवाया था। इसी स्थान पर स्वामी विवेकानंद गहन ध्यान लगाया था। इस स्थान को श्रीपद पराई के नाम से भी जाना जाता है। प्राचीन मान्यताओं के अनुसार इस स्थान पर कन्याकुमारी ने भी तपस्या की थी। कहा जाता है कि यहां कुमारी देवी के पैरों के निशान भी हैं। इसके समीप ही तिरुक्कुरुल की रचना करने वाले अमर तमिल कवि तिरूवल्लुवर की ऊँची प्रतिमा देखते ही बनती है। बताया जाता है कि 38 फीट ऊंचे आधार पर बनी यह प्रतिमा 95 फीट की है और इस प्रतिमा की कुल ऊंचाई 133 फीट है। यद्यपि इन्हें इनके पास जा कर देखने की हमारी हसरत दिल में ही रह गई परंतु इन स्मारकों का शिल्प एवं समुंद्र में उठती – गिरती नीली हरी सफेद लहरों को कमरे से निहारना भी एक अलग ही दुनियां में ले जाता हैं। करीब एक घंटे का समय कब इन नज़रों को देखते और अपने मोबाइल में कैद करने में कैसे बीत गया पता ही नहीं चला। मन नहीं होते हुए भी हम वापस हो लिए और पास ही एक भोजनालय में भोजन करने चले गए। यहां हमने लजीज भोजन का लुफ्त उठाया और ऑटो से अपने होटल में वापस आ गये। कुछ देर विश्राम किया और देखा तो चार बज गए थे। हमारे पास पर्याप्त समय था, हमारी ट्रेन रात 10.30 की थी।
हम कुछ देर में होटल से बाहर आये और अब हम जा पहुँचे ग़ांधी मंडप जहां राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की चिता की राख रखी हुई है। बताया जाता है कि महात्मा गांधी 1937 में यहां आए थे। उनकी मृत्यु के बाद 1948 में कन्याकुमारी में ही उनकी अस्थियां विसर्जित की गई थी। इस स्मारक की स्थापना 1956 में कई गई थी। कहा जाता है कि स्मारक को इस प्रकार डिजाइन किया गया है कि महात्मा गांधी के जन्म दिवस पर सूर्य की प्रथम किरणें उस स्थान पर पड़ती हैं जहां महात्मा की राख रखी हुई है।
ग़ांधी मंड़प के दर्शन कर हमने ऑटो किया और चल पड़े कन्याकुमारी से 13 किलोमीटर दूर स्थित सुचिन्द्रम के थानुमलायन मंदिर के दर्शन के लिए। यह मंदिर काफी प्रसिद्ध है। मंदिर में स्थापित हनुमान की मानवाकार ऊंची मूर्ति आकर्षक है। मंदिर के मुख्य गर्भगृह में सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा, विष्णु और महेश की मूर्तियां स्थापित है। मंदिर का स्थापत्य एवं मूर्ति शिल्प तो बस देखते ही रह जाओ। यहां नौवीं शताब्दी के प्राचीन अभिलेख भी पाए गए हैं। इस 13 किलोमीटर की यात्रा में कन्याकुमारी का प्राकृतिक दृश्य अत्यंत चित्ताकर्षक है।
सुचिन्द्रम से लौटते लौटते रात गहरा गई और करीब 7 बजे का समय हो गया। एक रेस्टोरेंट में भोजन कर होटल से अपना सामान लिया और 9.30 बजे तक कन्याकुमारी रेलवे स्टेशन पहुँच गए। रात 10.30 बजे ट्रैन रामेश्वरम के लिए रवाना हुई। कन्याकुमारी ट्रिप की यादों में खोया न जाने कब नींद की आगोश में समा गया।
मुझे ज्ञात था की प्रातः की बेला में ट्रेन एक ऐसे पुल से गुजरेगी जो समुद्र के बीच में बना है। इसलिए मैंने मोबाइल में पांच बजे का अलार्म भर लिया था। अलार्म बजा तो मेरी नींद खुली और तुरंत पुल देखने की उत्सुकता से उठ कर सीट से नीचे उतरा। खिड़की से बाहर देखा तो अंधेरा था। डिब्बे में मौजूद टिकट चेकर से पूछा पंबन पुल कितनी देर में आएगा ? उसने कहा करीब एक घंटा और लगेगा। अब नींद कहां आने वाली थी सो समय बीतने के लिए कन्याकुमारी के चित्र मोबाइल पर देखने लगा। आधा घंटे बाद सभी को जगा दिया। डिब्बे के सभी यात्री भी इस अनोखे पुल को देखने के लिए जाग कर खिड़कियों से चिपक गए थे। कुछ – कुछ दिन दिन का उजाला भी दिखाई देने लगा था। मैं तो डिब्बे के दरवाजे को खोल कर सावधानीपूर्वक वहीं खड़ा हो गया। पहले पंबन द्वीप आया। यहीं से मोबाइल शुरू हो गया और जब तक रेल पुल से गुजर नहीं गई अनेक चित्र ले डाले। जब रेल इससे गुजरती है तो लगता है जैसे समुद्र के बीच चल रही हो और देख कर सिरसरी और रोमांच होने लगता है। निश्चित ही यह बेहद रोमांचकारी और साहसिक रेल मार्ग है। समुद्र के ऊपर बना हुआ यह एक ऐसा पुल है जो प्रकृति की खूबसूरती को अपने में समेटे हुए है और कह सकते हैं प्रकृति और तकनीक का बेजोड़ नमूना है, जो बीच में खुल कर जहाजों को आने – जाने का मार्ग देता था और फिर बंद हो जाता था। रामेश्वरम की यात्रा को देश का खतरनाक कहे जाने वाले 145 स्तंभों पर टिके 1885 में शुरू हुए इस पुल ने वास्तव में रोमांचकारी बना दिया।
पंबन पुल के रोमांच की चर्चा करते – करते कुछ समय बाद रामेश्वर के स्टेशन पर ट्रेन ठहर गई। अपना सामान साथ लेकर हम स्टेशन के बाहर आए और भगवान राम और ज्योतिर्लिंग की पौराणिक कथाओं से जुड़ी भूमि को नमन किया। रामेश्वर का भ्रमण कर चुके मेरे साडू भाई अनुज ने मुझे सारी जानकारी दे कर भेजा था सो हम बिना देर किए ओटो लेकर अग्रवाल सेवा सदन धर्मशाला पहुंच गए। जरूरी ओपचारिकता पूरी की और दो कमरे हमें प्रथम मंजिल पर मिल गए। कमरों में पहुंच कर देखा की वे किसी भी अच्छे होटल से कम नहीं थे। हर सुविधा उपलब्ध थी। यहां हमारा दो दिन का कार्यक्रम था अतः किसी बात की कोई जल्दी नहीं थी। सबने पहले तो बाहर निकल कर समीप ही चाय का लुत्फ लिया। कमरे में आ कर आराम से विश्राम किया और नहा धो कर तैयार हो गए। इस बीच धर्मशाला के काउंटर से मैंने भोजन व्यवस्था और रामेश्वर घूमने तथा दर्शन आदि की जानकारी प्राप्त कर एक मार्गदर्शक से पूरा मंदिर घुमाने और आसानी से दर्शन कराने की बात तय करली। यह सब हम स्वयं भी कर सकते थे परंतु मेरी धर्मपत्नी के दोनों घुटनोंका रिप्लेसमेंट होने से वह ज्यादा देर खडी रहने में असमर्थ रहती थी।
लगभग दो घंटे में तैयार और हल्का नाश्ता कर फोन कर मार्गदर्शक को बुला लिया और हम उसके साथ हो लिए। रामनाथस्वामी मंदिर
का परिसर यूं तो धर्मशाला के सामने ही था पर मुख्य प्रवेश द्वार लगभग 50 कदम पर दूसरी और था। मंदिर की महिमा बताते हुए उसने 22 कुओं के बारे में बताया कि माना जाता है इन कुओं का अस्तित्व भगवान राम के अमोध बाणों से सामने आया। उन्होंने अनेक तीर्थो का जल मंगा कर इनमें छोड़ा था इसलिए इन्हें तीर्थ कहा जाता है। शंक,चक्र,गंगा,यमुना, आदि धार्मिक नामों पर रखे गए कुओं का स्नान कराया।आश्चर्य हुआ यह महसूस कर कि किसी में बहुत ठंडा, किसी में सामान्य और किसी में हल्का गर्म पानी था। कुओं के पानी से कपकपी छूट गई। अंतिम बाइसवें कुंड में सभी इक्कीस कुंडों का मिला जुला पानी आता है से स्नान कर मंदिर में ज्योतिर्लिंग के दर्शन कराने ले गया। दर्शनार्थियों की बहुत लंबी कतार लगी थी। वह हमें सीधे गर्भगृह के द्वार पर ले गया जहां पुजारी बैठे थे। पुजारियों ने हमें द्वार के साइड से दर्शन करने को कहा जिससे कतार में लगे भक्तों को भी असुविधा न हो।
मैंने देखा मंदिर का गर्भगृह काफी अंदर दूर तक है और मध्य में हल्की धुंधली सी रोशनी में बहुत ध्यान से देखने पर दर्शन होते हैं। हमने पूजा के लिए श्रद्धानुसार भेंट अर्पित कर अच्छी तरह से दर्शन किए। पुजारी ने हमें तिलक लगा कर मौली बांधी और माला का प्रसाद दिया। मंदिर का धार्मिक माहौल दर्शनार्णार्थियों को बांधे रखता है। हमें बताया गया कि यहां शिव की पूजा और अभिषेक गंगोत्री से लाये गंगाजल से की जाती है। दर्शनार्थी भी वहां शीशियों में गंगोत्री से लाये गए गंगा जल से अभिषेक करते हैं। यहां स्वयं जल चढ़ाने की परंपरा नहीं है और पुजारी के माध्य्म से ही अभिषेक किया जाता है। दर्शन का समय:सुबह 5:00 बजे से दोपहर 1:00 बजे तक और दोपहर 3:00 बजे से रात 9:00 बजे तक रहता है।
मन भर कर दर्शन करने के उपरांत मंदिर परिसर का अवलोकन किया। परिसर में जिस प्रकार शिव की दो मूर्तियां हैं वैसे ही देवी पार्वती की भी दो अलग -अलग मूर्तियां स्थापित की गई हैं। देवी पार्वती की एक मूर्ति पर्वतवर्धिनी एवं दूसरी विशालाक्षी कही जाती हैं। विशालाक्षी मंदिर के गर्भगृह के निकट ही विभीषण द्वारा स्थापित 9 ज्योतिर्लिंग स्थापित हैं। एक विशाल नंदी मंदिर भी है। नंदी मंडप 22 फीट लंबा, 12 फीट लंबा एवं 17 फीट ऊँचा है। मंदिर के पूर्वी द्वार के बाहर विशाल हनुमान जी की मूर्ति अलग मंदिर में स्थापित है। मंदिर में सेतुमाधव का कहा जाने वाला भगवान विष्णु का मंदिर भी प्रमुख है। मंदिर का कलात्मक गलियारा तो किसी कल्पना लोक से कम नहीं लगा। गलियारा अत्यंत कारीगरी पूर्ण है । झरोखों से आती धूप इस गलियारे को पीली स्वर्ण आभा अत्यंत मोहक लग रही थी। काफी देर तक गलियारे को निहारने पर भी मन नहीं भरा। इसे विश्व का सबसे लंबा गलियारा बताया जाता है जो उत्तर-दक्षिण में 197 मीटर एवं पूरब-पश्चिम में 133 मीटर है। मंदिर के गलियारों में और अन्य मंदिरों में सैंकड़ों विशाल खँभे हैं जो देखने मे एक से नज़र आते हैं पर नज़दीक से देखने पर ही पता चलता हैं हर एक की कारीगरी अलग अलग है। मंदिर देखने में करीब तीन घंटे का समय कैसे बीत गए पता ही नहीं चला। दर्शन करा कर मार्ग दर्शक हमारे साथ – साथ धर्मशाला तक आया और भी कुछ बातें बताई। अच्छे दर्शनों से प्रफुल्लित हुए मैंने उसे उपयुक्त दक्षिणा भेंट की। वह भी अच्छी दक्षिणा पा कर बहुत खुश था और कोई सेवा हो तो बताना कह कर विदा हो गया। भोजन का समय भी हो गया था सो हम सीधे भोजनशाला में चले गए और भोजन का लुत्फ उठाया। इतनी दूर घर जैसा स्वादिष्ठ भोजन पा कर तृप्त हुए। अपने – अपने कमरों में जा कर विश्राम किया।
संध्या काल में शाम की रोनक देखने निकल पड़े।लोगों ने बताया कि यहां विशेष पैदावार नहीं होती है इसलिए खाने पीने का सामान बाहर से ही मंगवाना पड़ता है। यहां के लोग अधिकतर नीचे लुंगी और ऊपर कमीज या कुर्ता पहनते हुए माथे पर बड़ा सा तिलक लगाए हुए ही दिखाई दिए। घूमते – घूमते हम मंदिर के मुख्य द्वार के सामने अग्नि तीर्थ और विशाल समुद्र पर पहुंच गए। मंदिर के सामने की सड़क के उस पार अग्नि तीर्थ के रास्ते पर बड़ी संख्या में मांगने वालें कतार में मार्ग के दोनों ओर बैठे रहते हैं। लोग उन्हें श्रद्धानुसार दान – दक्षिणा दे रहे थे। कुछ लोग कुर्ता – लूंगी वस्त्रों का जोड़ा और कंबल भी दान कर रहे थे। अग्नि तीर्थ के त्रिपोलिया जैसे बड़े – बड़े तीन द्वार बने हैं। इनके उस पार समुद्र के मध्य घाट आदि बनाए गए हैं। घाट पर लोग अर्पण – तर्पण की क्रियाएं पंडित के माध्यम से करवाते हैं। समुद्र में बड़ी संख्या में लोग संध्या स्नान कर रहे थे और समुद्र का मजा ले रहे थे। कुछ लोग चर्चा कर रहे थे यहां का सूर्योदय का दृश्य अत्यंत ही लुभावना होता है।
कुछ समय यहां बिता कर हम बाजार घूमने चल पड़े। प्रमुख बाजार भी मंदिर के चारों ओर ही है। अधिकतर दुकानों पर समुद्री उत्पाद सीप,शंख, मोती, मनके और इनसे बनी वस्तुएं, धार्मिक समान बेचे जाते हैं। कई भोजनालयों पर सभी तरह का अच्छा भोजन उपलब्ध है। धर्मशालाएं काफी अच्छी, साफ-सुथरी एवं हर बजट में हैं। यहीं पर शुद्ध सात्विक भोजन वाजिब दामों पर उपलब्ध हैं। विशाल रामनाथस्वामी मंदिर के चारों ओर का चक्कर लगाया। चारों दिशाओं में ऊंची दीवार और इनमें ऊंचे – ऊंचे अलंकृत गोपुरम द्वार बने थे। यहां अनेक मंदिरों की उपस्थिति इसे धार्मिक स्वरूप प्रदान करती है । मंदिर भारतीय निर्माण कला और शिल्प का बेहतरीन नमूना है। प्रवेश द्वार करीब चालीस फीट ऊंचा है। संध्या भ्रमण कर हम धर्मशाला पहुंच कर भोजन कर कमरों में जा कर सो गए।
मैं सुबह तड़के उठ कर सूर्योदय का दृश्य देखने के लिए समुद्र के किनारे अग्नि तीर्थम घाट की सीढ़ियों पर मोबाइल ले कर जम गया। जैसे -जैसे सूर्योदय हुआ और उसकी कोमल लाल -पीली रश्मियां समुद्र में प्रतिबिंब बनाने लगी उसके हर पल को चित्रों में कैद करने लगा। करीब आधा घंटे तक सूर्यास्त के अद्भुत चित्ताकर्षक नजारों का भरपूर आनंद लिया। साथ में कपड़े ले गया था सो समुद्र स्नान का भी भरपूर लुत्फ उठाया। दो घंटे का समय प्रकृति के साथ बीता कर मैंने एक छोटी सी दुकान पर चाय ली। अदरक वाली स्वादिष्ट चाय का लुत्फ ले कर अपने अस्थाई आवास पर चला गया। वहां जा कर पुनः स्नान किया और तैयार हो गया। इस बीच में सभी स्नान कर तैयार हो चुके थे। हमने दूसरे दिन के कार्यक्रम पर चर्चा कर आस – पास के स्थल देखने का तय किया। पहले भोजनशाला में जा कर भारणपेट नाश्ता किया और बाहर आ कर टैक्सी, ओटो वालों के पास चले गए। टैक्सी वाले बहुत ज्यादा किराया मांग रहे थे अतः ओटो से जाना तय कर एक ओटो कर लिया।
सबसे पहले पंचमुखी हनुमान जिनके दर्शन किए । हनुमान जी की ऊंची खड़ी मूर्ति श्याम वर्ण की आकर्षक मूर्ति थी। यहां से 13 किलोमीटर दूर कोडंड स्वामी मंदिर पहुंचे जो भगवान राम को समर्पित है। मंदिर बाहर से कलात्मक है और यहां मुख्य रूप से विभीषण की पूजा की जाती है। राम, लक्ष्मण, सीता आदि के आलय मंदिर में ही हैं। मंदिर के चारों और रामायण से जुड़े प्रसंगों के सुंदर चित्र
बनाए गए हैं। मंदिर के बाहर प्रसाद एवं खाने – पीने की दुकानें और कुछ ठेले लगे हैं। एक जगह से हमने नारियल पानी का स्वाद लिया।
आगे की यात्रा रामेश्वरम से करीब 19 किलोमीटर धनुषकोड़ी और उसके समीप भारत के अंतिम छोर जहां राम ने शिवलिंग की पूजा कर लंका के लिए समुद्र पर सेतु बंद बनाया था शुरू हो गई। सेतु बंद वाले स्थान पर पहले पहुंचे। यहां गोलाई में एक छोटा सा स्तंभ भारत की आखिरी सीमा के प्रतिक के रूप में नजर आता है। नीचे उतर कर मैं विशाल समुद्र के नजदीक गया जहां बताते हैं सेतु बनाया गया था जो अब कहीं नजर नहीं आता है। पर समुद्र का नजारा उसमें उठती लहरें बहुत ही मनभावन लगती हैं। कुछ समय समुद्र की लहरों में खड़े हो कर आनंद लिया। अन्य सह यात्रियों ने ऊपर से ही समुद्र का आनंद लिया। एक खोमचे वाली से लेकर फलों के चाट का लुत्फ उठाया।
यहां से रवाना हो कर लौटते समय कुछ ही दूरी पर आ गया धनुषकोड़ी। कभी समृद्ध नगर रहा वर्षों पूर्व समुद्री तूफान में इसका अस्तित्व खत्म हो गया और आज रेल स्टेशन, पोस्ट ऑफिस, चर्च और अन्य भवनों के कुछ खंडहर ही दिखाई देते हैं। एक तरफ हिन्द महासागर और दूसरी और बंगाल की खड़ी से घिरा धनुष कोड़ी आज भुतहा नगर के नाम से जाना जाता है। खंडहर देख कर अनुमान होता है कि यह कितना समृद्ध नगर रहा होगा। लोग पहले समय में यहां आ कर ही रामेश्वरम दर्शन करने जाते थे , रामेश्वरम काफी बाद में विकसित हुआ ऐसा हमें स्थानीय लोगों ने बताया। यहाँ का शांत वातावरण , समुद्र का साफ नील पानी और नीला आसमान के साथ पुराने खंडहर आज भी लुभाते हैं। मछुआरे दिन में यहां मछली पकड़ने आते हैं और शाम होते – लौट जाते हैं। यहां कुछ लोगों ने आने वाले सैलानियों के लिए समुद्री उत्पाद की कलात्मक शिल्पकृतियों और चाय पान की दुकानें लगा रखी हैं। रात को ये भी अपने घर लौट जाते हैं।रात को यहां कोई नहीं रहता है। पूरे 19 किलोमीटर के रास्ते में समुद्र ही समुद्र और नारियल के वृक्ष दिखाई देते हैं और नजर आते हैं काले रंग के समुद्री पत्थर। ठंडी – ठंडी हवाओं के साथ यह यात्रा बहुत ही आनंदमयी रही।
वापस लौटते – लौटते शाम के तीन बज गए थे। जोरों की भूख भी लग आई थी अतः हमने एक रेस्टोरेंट पर भोजन किया और कमरों में पहुंच कर विश्राम किया। थकान से नींद की झपकी भी आ गई। ट्रेन हमारी 10 बजे की थी अतः हम समान ले कर 9.30 बजे स्टेशन पहुंच गए। वहां से तिरुअंतपुरम होते हुए रास्ते के मनोहारी नजारे देखते हुए और यात्रा की स्मृतियों पर चर्चा करते हुए कोटा पहुंच गए।
(लेखक कोटा में रहते हैं और पर्यटन से लेकर ऐतिहासिक, साहित्यिक व सांस्कृतिक विषयों पर लिखते हैं)