जीवन की सांझ आ रही है। सभी प्राणी घर लौट रहे हैं। वृद्धावस्था आ गई है। अचानक नहीं। धीरे धीरे। जीवन ऊर्जा घट रही है। शरीर क्षीण हो रहा है। मन और शरीर का संगीत टूट रहा है। मन करता है – नाचें। गतिशील रहें। चरेवैति चरेवैति चलते रहो – चलते रहो। यह ऋषि आह्वान है। लेकिन शरीर शिथिल और लाचार। झिल मिल तारों की आकाशगंगा के दर्शन आनंद नहीं देते। नदियां प्रवाहमान हैं। उनका नाद आनंदित करता है। धीरे धीरे नाद की ध्वनि मद्धिम हो रही है। श्रवण शक्ति कम होने की तैयारी कर रही है। स्मृति भी क्षीण हो रही है। सभी वृद्ध तरुणाई की स्मृतियों में रस लेते हैं। वर्तमान भूत हो रहा है प्रतिपल। जरामरण सारभूत हैं। यह जीवन का अटल सत्य है। महाभारत के यक्ष प्रश्न और युधिष्ठिर के उत्तर सामने हैं। मृत्यु सत्य है लेकिन लोग इस सत्य को स्वीकार नहीं करते। वृद्ध होना जीवन का पीड़ादायी सत्य है। शरीर भी फल की तरह पकता है। पहले खट्टा होता है। फिर धीरे धीरे रसवान होता है। मधुवान होता है। गंधवान होता है। पक्षी फलवान मधुवान वृक्षों पर गीत गाते हैं। पूरा पका फल एक दिन टहनी डंठल से अलग हो जाता है। महामृत्युंजय मंत्र के ऋषि कवि ने त्रयम्बक देव से स्तुति की है, ‘‘हम त्रयम्बक रूद्र का ध्यान करते हैं। वे पोषणदाता हैं। वे पककर अलग हो जाने वाले ककड़ी खीरा की तरह हमको मृत्यु बंधन से अलग करें। मुक्त करें।‘‘
वृद्धावस्था जीवन अवसान की तैयारी है। वृद्ध होना शरीर का स्वभाव है। शरीर निस्संदेह कमजोर होता है लेकिन वृद्धावस्था का अपना सौन्दर्य है। मृत्यु जीवन का अंतिम सत्य है। इसके पहले वृद्धावस्था है। जीवन ऊर्जा का अवसान है। प्रश्न अनेक हैं। क्या मृत्यु दुख देती है या नहीं देती ? प्रश्न अनुत्तरित है। मृत्यु का अनुभव अज्ञात है लेकिन वृद्धावस्था के कष्ट सर्वविदित हैं। हिन्दू दार्शनिकों ने जरा (वृद्धावस्था) और मृत्यु को दुखदायी बताया है। बुद्ध की कथा में भी वृद्ध दर्शन की अनुभूति है। ऋग्वेद में 100 शरद् जीवन की स्तुति है। दीर्घ जीवन के साथ स्वस्थ शरीर भी जरूरी है। इसलिए इस स्तुति में ‘पश्येम शरदः शतं-100 वर्ष देखने की भी इच्छा है। दीनहीन न होने की भी स्तुति है। वृद्धावस्था में अधिकांश इन्द्रियां काम नहीं करती। बुढ़ापे के कष्टों की ओर वैदिक समाज का ध्यान गहरा है। जीवन अमूल्य है। वृद्ध हमारे समाज का अनुभव समृद्ध भाग हैं। उनके जीवन को कष्टरहित बनाना समाज का कर्तव्य है। हिन्दू चिंतन में वृद्धों की सेवा उनके पुत्रों पौत्रों का प्रथम वरीयता वाला दायित्व है। यह राष्ट्र राज्य का भी कर्तव्य है। राष्ट्र राज्य सतर्क है। इस पर कानून भी है लेकिन आधुनिक समाज इस महत्वपूर्ण समस्या पर सजग व सतर्क नही है। वृद्ध संरक्षक अभिभावक जीवन की सांझ में दुखी हैं।
भारतीय चिंतन में विश्व परिवार है। भारतीय समाज जीवन संयुक्त परिवारों में विकसित हुआ है। ऐसे परिवारों के सदस्यों के सुख दुख साझे रहे हैं। वृद्ध अपने बड़े परिवारों के मुखिया रहे हैं। वे अपनी वरिष्ठता में ही आनंदित रहते हैं। लेकिन अब संयुक्त परिवारों की परंपरा टूट गई है। परिवार के सदस्य एकाकी रहना चाहते हैं। वृद्ध अकेले हो रहे हैं। परिवार के भीतर उपयोगितावाद है। वृद्ध अशक्त होते हैं। वे परिवार आश्रित हैं। उपयोगी नहीं माने जाते। आधुनिक उपयोगितावादी दृष्टि के कारण वृद्धावस्था के शारीरिक कष्टों में अब मानसिक संताप भी जुड़ गए हैं। एकाकी होने के कारण ज्यादातर वृद्ध मानसिक अवसाद से व्यथित हैं। परिजन उपेक्षा करते हैं। समाज के लिए यह स्थिति त्रासद है। संवेदनाए कुचालक हो रही हैं। सभी प्राणी काल के भीतर है। जन्म और शैशव ऊषाकाल है। बचपन संभावनाओं का बीज है। संभावना का बीज फूटता है। जीवन ऊर्जा से भरीपूरी तरूणाई आती है। तरूणाई भी स्थिर नहीं है। मैंने स्वयं को काल पाश बंधन में देखा है। सूर्य आए, सूर्य गये। काल का पहिया घूमता रहा। 75 शरद आए गए। शरद पूर्णिमा आईं, र्गइं। जीवन का संध्या काल आया। ऊर्जा घटी, शरीर टूटा। प्राचीन कवि बता गए है – शीर्यते इति शरीरं। जो शीर्ण होता रहता है, वह शरीर है। शरीर सतत् क्षरणशील है। 60 वर्ष के आसपास शरीरिक क्षीणता के अनुभव और वृद्धावस्था आ जाती है।
आयुर्वेद के ग्रंथ शारंगधर संहिता में मनुष्य शरीर के भाव क्षरण का सुंदर उल्लेख है। लिखा है कि प्रत्येक 10 वर्ष बाद भाव ह्नास के लाक्षणिक परिवर्तन आते हैं। जीवन के पहले 10 वर्ष में मनमौजी वाल्यावस्था का ह्नास होता है। फिर अगले 10 वर्ष में वृद्धि का ह्नास होता है। शरीर की वृद्धि रूक जाती है। फिर अगले 10 वर्ष में कान्ति या चेहरे की दीप्ति का ह्नास। आगे के 10 वर्ष में धारणा का ह्नास होता है। 5वें दशक में सौन्दर्य का ह्नास और छठे में दृष्टि का ह्नास बताया गया है। 7वें दशक में ऊर्जाबल का ह्नास, फिर पराक्रम और बुद्धि का ह्नास होता है।” आधुनिक विज्ञान ने इस ह्नास को घटाया है लेकिन प्रकृति के नियम अपना काम करते ही हैं। वृद्ध होना सबकी नियति है।
बुढ़ापा अभिशाप नहीं है। बीमारियों की बात अलग है। वृद्धों के पास जीवन्त अनुभवों का कोष होता है। वे आदरणीय हैं। वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले निष्कर्ष भौतिक रूप में सही होते हैं लेकिन माता पिता व वरिष्ठों से आत्मीयता की व्याख्या वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ही संभव नहीं है। वरिष्ठों से हमारे रिश्ते अव्याख्येय हैं। ऋग्वेद के रचनाकाल से लेकर रामायण महाभारत होते हुए आधुनिक काल तक इन रिश्तों की प्रीति ऊष्मा एक जैसी है। इनका समाज विज्ञान अनूठा है। लेकिन आधुनिक समाज में वरिष्ठों के प्रति श्रद्धा का अभाव है। वैदिक संस्कृति में माता पिता देवता हैं। दुनिया की किसी भी संस्कृति व सभ्यता में माता अदृश्य ईश्वर या मान्य देवों से पिता बड़ा नहीं है लेकिन भारत में माता पिता सुस्थापित देवों से भी बड़े हैं।
हिन्दू परंपरा में माता पिता व आचार्य देवता हैं। तैत्तिरीय उपनिषद में कहते हैं – मातृ देवोभव, पितृ देवोभव। इस परंपरा का आदि स्रोत ऋग्वेद है। हिन्दुत्व है। ऋग्वेद के एक मंत्र में सभी वरिष्ठों को नमस्कार किया गया है ‘‘इदं नमःऋषिम्यः, पूर्वजेम्यः पूवेम्यः पथिकृदम्यः-ऋषियों को नमस्कार है, पूर्वजों को नमस्कार है, वरिष्ठों व मार्गदर्शकों को नमस्कार है।’’ (10.14.15) वरिष्ठों का सम्मान प्राचीन वैदिक परंपरा है। एक मंत्र (10.15.2) में कहते हैं, ‘‘इदं पितृत्यों नमो, अस्त्वद्य ये पूर्वासों-जो नहीं है और जो है, उन सबको नमस्कार है।” ऋग्वेद का यह नमस्कार ध्यान देने योग्य है। यह वरिष्ठों के प्रति आदर का स्थाई भाव है। ऋग्वेद की इसी परंपरा का प्रवाह महाभारत में है। कहा गया है कि वह सभा सभा नहीं है, जिसमें वृद्ध नहीं है, वे वृद्ध वास्तविक वृद्ध नहीं है, जो धर्मतत्व नहीं जानते । रामकथा भी वृद्धों के सम्मान से युक्त है। वृद्ध होना सौभाग्य है। शारीरिक शक्ति की क्षीणता का विचार अर्थहीन है। अनुभव का कोष महत्वपूर्ण है। वृद्धों के दिशा दर्शन में ही हम सबकी गति है। गति के साथ दिशा भी चाहिए। यह वृद्धों के प्रसाद से मिलती है।
(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष और वरिष्ठ साहित्यकार हैं।)