विकास के दौर में भी बारां जिले के सहरिया आदिवासी आज भी अपनी संस्कृति की मौलिकता को बनाए हुए हैं। इनको विकास की मूल धारा में लाने के लिए अलग से परियोजना चला कर बच्चों को शिक्षित करने, पढ़ लिख कर बड़े होने पर सरकारी सेवाओं में रोजगार उपलब्ध कराने, कृषि से जोड़ने, झाड़ फूंक और जादू टोनों से छुटकारा दिला कर बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराने, झोपड़ियों की जगह पक्के मकान के प्रयास शुरू किए गए जो सतत रूप से जारी हैं। विकास की इस रोशनी से इनके जीवन में परिवर्तन तो नज़र आता है पर आज भी ये मूलरूप से अपनी संस्कृति से विमुख नहीं हुए हैं और संस्कृति की मौलिकता को बनाए हुए हैं।
सहरिया को कुल्हाड़ी के द्वारा पहचाना जा सकता है। जैसे भीलों के पास तीर कमान होता है उसी प्रकार सहरिया कुल्हाड़ी अपने साथ रखते है। सहरिया अपनी रक्षा के लिये हर पल कुल्हाड़ी अपने साथ रखते है साथ ही वन्य उत्पादनों को प्राप्त करने में भी कुल्हाडी काम की होती है। यहाँ तक कि महिलायें और बच्चे भी कुशलता से कुल्हाडी चला लेते है। सहरिया महिला बड़ी मजबूत, चंचल, चपल और मेहनत से काम करने वाली होती हैं, जबकि पुरूष जड़बुद्धि वाले ढीले-ढाले होते हैं। महिलाएं कुशलता से पेड़ों पर चढ जाती हैं। महिलाएं निडरता से जंगल जाती हैं और ईधन और घास एकत्रित करती है और अन्य वन्य उत्पाद बटोर लाती हैं। महिलाएं श्रम की प्रतिमूर्ति होती हैं।
सहरिया स्वयं झोपड़ियों में रहते हैं और आने वाले मेहमानों को बंगले का सुख देते हैं। ऐसा है आदिवासी सहरिया समाज का जीवन। राजस्थान की आदिवासी जाति में सहरिया बारां जिले के किशनगंज और शाहबाद कस्बों में निवास करते हैं। ये राज्य की प्राचीनतम जाति में माने जाते हैं और राजस्थान में एक मात्र घोषित आदिम जनजाति में आते हैं।
फारसी भाषा में ‘‘सहर’’ शब्द का अर्थ जंगल होता है। ये खड़ी बोली बोलते हैं और यहीं इनकी भाषा है। इनकी आजीविका का साधन, वन्य उत्पादन, शिकार (मछली) और कृषि है। ये कन्दमूल, पत्तियां, जंगली फल और छोटे – छोटे पक्षियों का जंगल में शिकार से अपना जीवन यापन करते हैं। जंगली पेड़ पौधा व औषध की जड़ी बूटी ही इनकी औषधी हैं। यह बड़ी रोचक बात है कि ये काली माता की पूजा करते हैं और अपने प्रियजन के बीमार पड़ने पर देवी को शान्त करने के लिये पेड़ों को जलाते हैं।
सहरिया अपनी बस्ती के मध्य में एक गोलाकार झौपड़ी तैयार करते हैं जिसे “बंगला” कहते हैं जिसका अर्थ है सामुदायिक केन्द्र। परम्परागत पंचायत यहां मिलती है। विशेष रूप से समुदाय के समारोह या भोज यहाँ आयोजित किये जाते हैं। बंगला में जूते पहन कर प्रवेश नहीं लिया जा सकता। बाहर से आने वाले मेहमानों को यहाँ ठहराया जाता है।
सहरिया राम और सीता के साथ-साथ ये अपना परम पिता परमेश्वर भगवान को मानते हैं जो सम्पूर्ण संसार का रचयिता है। ये सीता माता, काली माता, बीजासन माता, अम्बा माता, बालाजी और भैरवदेव, ठाकुरदास और रामदेव की पूजा अर्चना करते हैं। पारिवारिक देवी के रूप में खोड़ा देवी की पूजा की जाती है। साथ ही ये सांपों के लोक देवता तेजाजी की भी पूजा करते हैं। जब कभी भी किसी व्यक्ति को सांप काटता है तो ये उस रोगी को उपचार के लिये तेजाजी के चबूतरे पर ले जाते
हैं।
शादी-ब्याह के समय रस्मों रिवाज निभाने के लिये कागज या दीवार पर सम्बन्ध सूचक चिन्ह बनाया जाता है और आटे की आकृति बनाकर इसे हर जगह पूजा जाता है। शादी के पश्चात् विवाहित जोड़ा इसे चावल और सिन्दूर चढाता है। विवाह के बाद बेटे की झोपड़ी अलग बना दी जाती है।
सीतावाड़ी में वार्षिक मेला आयोजित किया जाता है। सहरिया यहाँ सीताकुंड लक्ष्मण कुड और सूरजकुंड में पवित्र स्नान करने के लिये एकत्रित होते हैं जिसे ये गंगा के समान पवित्र मानते हैं। ऐसी मान्यता है कि इस जगह स्नान करने से अनेकों बीमारियों विशेषकर मानसिक बीमारियों का इलाज हो जाता हैं। इस मेले को ”सहरियों का कुंभ“ कहा जाता है।
मेले में सहरिया महिलाएं शरीर के अंगों पर गोदना गुदाते हुए दिखाई देती हैं। ऐसा मानना है कि इससे जीवन में प्रसन्नता रहती है। बिच्छु, सांप, मोर, मछली चारों हाथ पैरों पर गुदाये जाते हैं। ठोड़ी, गाल और आंखों के तरफ छोटी-छोटी बिन्दु गुदायी जाती हैं। इस मेले में मध्य प्रदेश और राजस्थान से हर उम्र के हजारों सहरिया आदिवासी पहुंचते हैं। यहां वे अपने पूर्वज वाल्मीकी के दर्शन करते हैं और विवाह योग्य युवक-युवतियां अपने जीवन साथी का चुनाव करते हैं और मन्नतें पूरी होने पर मनौतियां भी चढ़ाते हैं।
इस जनजाति में ऐसी मान्यता एवं परम्परा है कि यदि कोई युवक इस मेले में किसी युवती के सामने पान या बीड़ी का बण्डल फेंक देता है तो उसका अर्थ माना जाता है कि उसे वह लड़की पसन्द है। और यदि वह युवती इन वस्तुओं को उठा लेती है तो यह इस बात का प्रतीक है कि उस लड़की ने भी उसे अपने जीवन-साथी के रूप में स्वीकार कर लिया है। फिर वह लड़की उस लड़के संग किसी गुप्त स्थान पर भाग जाती है और बाद में उनके अभिभावक परम्परागत तरीके से उनका विवाह कर देते हैं।
तपती दोपहरी में यहां जामुन, आम और वटवृक्षों की घनी छाया में बैलगाड़ियों के नीचे विश्राम करते दाल-बाटी बनाते, श्रंगार प्रसाधन खरीदते, सजे-धजे हजारों सहरिया नर-नारी इस मेले को अपनी उपस्थिति से रंगीन और उन्मुक्त बनाते हैं। सहरिया क्षेत्रों में तेजाजी का मेला एक प्रसिद्ध मेला है। ये तेजाजी को प्रसन्न करने के लिये नारियल, सिन्दूर और गुड चढ़ाते हैं।
सहरिया गीतों में भगवान राम और सीता को दोहराते हुए मध्य भारत से इनका सम्बन्ध दर्शाया जाता है। होली पर पन्द्रह दिनों तक फाग और रसिया गाये जाते हैं। सहरिया के अन्य प्रसिद्ध गीतों में लांगुरिया, डोला, खांडियाजी है। ढोलकी, नगाड़ी और कुन्डी संगीत के लिये प्रयोग में लाये जाते हैं। आदिम जाति के आर्थिक उत्थान के लिए किए जा रहे प्रयासों का असर भी साफ दिखाई देता है परंतु इनका समाज और संस्कृति की मौलिकता बरकरार हैं।
सहरिया आदिवासियों के एक दल द्वारा बनाई गई ”शंकर नृत्य नाटिका“ देश-विदेश में लोकप्रिय हो गई है। इस नृत्य पर वाद्य इतनी तेज गति से लयात्मक रूप से बजते हैं कि देखने वाला इनके साथ अपने को थिरकने से नहीं रोक पाता हैं। इस नृत्य नाटिका ने इनकी कला को देश – विदेश तक पहुंचा दिया है। जब राहुल गांधी जी की भारत जोड़ों यात्रा ने झालावाड़ से राजस्थान में प्रवेश किया तो इन कलाकारों ने नृत्य प्रदर्शन से स्वागत किया तो राहुल गांधी भी अन्य वरिष्ठ नेताओं के हाथ पकड़ कर थिरक उठे। इनके साथ फोटो खींचा कर खुश हुए और इनका होंसला बढ़ाया।
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लेखक कोटा में रहते हैं व कला, संस्कृति, पर्यटन आदि पर नियमित लिखते हैं)