परमपिता परमात्मा की कल्याणी वाणी वेद के “विश्वकर्म्मा” शब्द से ईश्वर,सूर्य, वायु, अग्नि का ग्रहण होता है। प्रचलित ऐतिहासिक महापुरुष शिल्पशास्त्र के ज्ञाता विश्वकर्मा एवं वेदों के विश्वकर्मा भिन्न हैं। इस लेख के माध्यम से दोनों में अंतर को स्पष्ट किया जायेगा।
निरूक्तकार महर्षि यास्क विश्वकर्मा शब्द का यौगिक अर्थ लिखते हैं।
विश्वकर्मा सर्वस्य कर्ता तस्यैषा भवति’’ निरुक्त शास्त्रे १०/२५
तथा प्राचीन वैदिक विद्वान् कहते हैं
‘‘विश्वानि कर्माणि येन यस्य वा स विश्वकर्मा अथवा विश्वेषु कर्म यस्य वा स विश्वकर्मा”
अर्थात् जगत के सम्पूर्ण कर्म जिसके द्वारा सम्पन्न होते हैं अथवा सम्पूर्ण जगत में जिसका कर्म है वह सब जगत् का कर्ता परमपिता परमेश्वर विश्वकर्मा है।
विश्वकर्मा शब्द के इस यथार्थ अर्थ के आधार पर विविध कला कौशल के आविष्कार यद्यपि अनेक विश्व कर्मा सिद्ध हो सकते हैं। तथापि सर्वाधार सर्वकर्ता परमपिता परमात्मा ही सर्व प्रथम विश्वकर्मा है। ऐतरेय ब्राह्मणग्रन्थ के मतानुसार ‘प्रजापतिः प्रजाः सृष्ट्वा विश्वकर्माऽभवत्’
“प्रजापति (परमेश्वर) प्रजा को उत्पन्न करने से सर्वप्रथम विश्वकर्मा है।”
वेद में परमेश्वर के विश्वकर्त्व अद्भुत व मनोरम चित्रण विश्वकर्मा नाम लेकर अनेक स्थानों पर किया गया है। सृष्टि का मुख्य निर्माण कारण परमात्मा ही है। वही सब सृष्टि को प्रकृति के उपादान कारण से बनाता है, जीवात्मा नहीं। इस कारण सर्वप्रथम विश्वकर्मा परमेश्वर है। परमेश्वर ने जगत् को बनाने की सामग्री प्रकृति से सृष्टि की रचना की है । इस लिए वही उपासनीय है ।
तथा जो शिल्पविद्या के विद्वान् विश्वकर्मा हुए हैं
उन में ऋषि प्रभास के पुत्र को आदि विश्वकर्मा माना जाता है, तथा इस के अतिरिक्त ऋषि भुवन के पुत्र विश्वकर्मा, ऋषि त्वष्टा के पुत्र विश्वकर्मा आदि अनेक विश्वकर्मा हुए हैं । वर्तमान में विश्वकर्मा समाज शिल्प विद्या से सम्बंधित समाज माना जाता है।
वेद शिल्प विद्या अर्थात श्रम विद्या का अत्यंत गौरव करते हुए हर एक मनुष्य के लिए निरंतर पुरुषार्थ की आज्ञा देते हैं| वेदों में निठल्लापन पाप है| वेदों में कर्म करते हुए ही सौ वर्ष तक जीने की आज्ञा है (यजुर्वेद ४०.२)| मनुष्य जीवन के प्रत्येक पड़ाव को ही ‘आश्रम’ कहा गया है – ब्रह्मचर्य, गृहस्थ,वानप्रस्थ और सन्यास, इन के साथ ही मनुष्य को शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करने का उपदेश है | वैदिक वर्ण व्यवस्था भी कर्म और श्रम पर ही आधारित व्यवस्था है (देखें- वेदों में जाति व्यवस्था नहीं)| आजकल जिन श्रम आधारित व्यवसायों को छोटा समझा जाता है, आइए देखें कि वेद उनके बारे में क्या कह रहे हैं –
कृषि :
ऋग्वेद १.११७.२१ – राजा और मंत्री दोनों मिल कर, बीज बोयें और समय- समय पर खेती कर प्रशंसा पाते हुए, आर्यों का आदर्श बनें|
ऋग्वेद ८.२२.६ भी राजा और मंत्री से यही कह रहा है|
ऋग्वेद ४.५७.४ – राजा हल पकड़ कर, मौसम आते ही खेती की शुरुआत करे और दूध देने वाली स्वस्थ गायों के लिए भी प्रबंध करे|
वेद, कृषि को कितना उच्च स्थान और महत्त्व देते हैं कि स्वयं राजा को इस की शुरुआत करने के लिए कहते हैं| इस की एक प्रसिद्ध मिसाल रामायण (१.६६.४) में राजा जनक द्वारा हल चलाते हुए सीता की प्राप्ति है | इस से पता चलता है कि राजा- महाराजा भी वेदों की आज्ञा का पालन करते हुए स्वयं खेती किया करते थे|
ऋग्वेद १०.१०४.४ और १०.१०१.३ में परमात्मा विद्वानों से भी हल चलाने के लिए कहते हैं|
महाभारत आदिपर्व में ऋषि धौम्य अपने शिष्य आरुणि को खेत का पानी बंधने के लिए भेजते हैं अर्थात् ऋषि लोग भी खेती के कार्यों में संलग्न हुआ करते थे|
ऋग्वेद का सम्पूर्ण ४.५७ सूक्त ही सभी के लिए कृषि की महिमा लिए हुए है|
जुलाहे और दर्जी :
सभी के हित के लिए ऋषि यज्ञ करते हैं,परिवहन की विद्या जानते हैं, भेड़ों के पालन से ऊन प्राप्त कर वस्त्र बुनते हैं और उन्हें साफ़ भी करते हैं ( ऋग्वेद १०.२६)|
यजुर्वेद १९.८० विद्वानों द्वारा विविध प्रकार के वस्त्र बुनने का वर्णन करता है|
ऋग्वेद १०.५३.६ बुनाई का महत्व बता रहा है|
ऋग्वेद ६.९.२ और ६.९.३ – इन मंत्रों में बुनाई सिखाने के लिए अलग से शाला खोलने के लिए कहा गया है – जहां सभी को बुनाई सीखने का उपदेश है|
शिल्पकार और कारीगर :
शिल्पकार,कारीगर,मिस्त्री, बढई,लुहार, स्वर्णकार इत्यादि को वेद ‘तक्क्षा’ कह कर पुकारते हैं|
ऋग्वेद ४.३६.१ रथ और विमान बनाने वालों की कीर्ति गा रहा है|
ऋग्वेद ४.३६.२ रथ और विमान बनाने वाले बढई और शिल्पियों को यज्ञ इत्यादि शुभ कर्मों में निमंत्रित कर उनका सत्कार करने के लिए कहता है|
इसी सूक्त का मंत्र ६ ‘तक्क्षा ‘ का स्तुति गान कर रहा है और मंत्र ७ उन्हें विद्वान, धैर्यशाली और सृजन करने वाला कहता है|
वाहन, कपडे, बर्तन, किले, अस्त्र, खिलौने, घड़ा, कुआँ, इमारतें और नगर इत्यादि बनाने वालों का महत्त्व दर्शाते कुछ मंत्रों के संदर्भ :
ऋग्वेद १०.३९.१४, १०.५३.१०, १०.५३.८,
अथर्ववेद १४.१.५३,
ऋग्वेद १.२०.२,
अथर्ववेद १४.२.२२, १४.२.२३, १४.२.६७, १५.२.६५
ऋग्वेद २.४१.५, ७.३.७, ७.१५.१४ |
ऋग्वेद के मंत्र १.११६.३-५ और ७.८८.३ जहाज बनाने वालों की प्रशंसा के गीत गाते हुए आर्यों को समुद्र यात्रा से विश्व भ्रमण का सन्देश दे रहे हैं|
अन्य कई व्यवसायों के कुछ मंत्र संदर्भ :
वाणिज्य – ऋग्वेद ५.४५.६, १.११२.११,
मल्लाह – ऋग्वेद १०.५३.८, यजुर्वेद २१.३, यजुर्वेद २१.७, अथर्ववेद ५.४.४, ३.६.७,
नाई – अथर्ववेद ८.२.१९ ,
स्वर्णकार और माली – ऋग्वेद ८.४७.१५,
लोहा गलाने वाले और लुहार – ऋग्वेद ५.९.५ ,
धातु व्यवसाय – यजुर्वेद २८.१३|
वेदों के प्रमाण पंडित धर्मदेव विद्यामार्तण्ड जी की पुस्तक “वेदों का यथार्थ स्वरुप” से लिए गए है।
साभार- https://satyasanatan.net/ से