पाकिस्तान बनने से पहले पंजाब की दो प्रमुख आर्यसमाजें थीं जहां से पंजाब ही नहीं, किसी सीमा तक देश भर के आर्यजगत् की गतिविधियों की कल्पना की जाती थी और उन्हें साकार किया जाता था। आर्यसमाज अनारकली आर्य प्रादेशिक सभा की प्रमुख समाज थी उसके प्रेरणा स्त्रोत महात्मा हंसराज जी थे। दूसरी थी- आर्यसमाज वच्छोवाली जिसकी धुरी थे महाशय कृष्ण जी जो दैनिक प्रताप और साप्ताहिक प्रकाश के सम्पादक और संचालक थे।
आर्यसमाज अनारकली-
पहले आर्यसमाज अनारकली की बात करूंगा। क्योंकि मेरा घर और कार्यालय, ‘आर्य-पुस्तकालय’ दोनों अनारकली बाजार के साथ लगती हुई हस्पताल रोड पर स्थित थे इसलिए विशेष आयोजन हो तो अनारकली समाज में जाता ही था। नाम तो अनारकली था परन्तु समाज अनारकली बाजार में नहीं थी। वह निकट की ही एक सड़क गणपत रोड पर बहुत बड़े भवन में स्थित थी। आर्यसमाज का अपना विशाल भवन था। इसकी ऊपरी मंजिल पर दैनिक उर्दू मिलाप का कार्य चलता था जिसके सर्वेसर्वा महाशय खुशहाल चंद खुर्सन्द जी थे जो उन दिनों भी अपना पूरा समय आर्यसमाज को देते थे और बाद में संन्यास लेकर जिन्होंने महात्मा आनन्द स्वामी के नाम से आर्यसमाज की अविस्मरणीय सेवा की। गणपत रोड पर ही एक मकान की पहली मंजिल पर उर्दू साप्ताहिक ‘आर्य गजट’ का कार्यालय था जिसके सम्पादक महात्मा हंसराज जी थे। कालान्तर में लाला खुशहाल चंद जी सम्पादक बने। उन दिनों उर्दू का बोलबाला था, उर्दू ही राजभाषा थी, इसलिए आर्यसमाज के समाचार पत्र भी उर्दू में ही छपा करते थे।
आर्यसमाज अनारकली में प्रवेश करने के लिए एक बड़े गलियारे में से गुजरना पड़ता था। इसे पार करके एक बड़ा आंगन और इसके बाद आर्यसमाज का विशाल भवन। अतिथियों के ठहरने के लिए कुछ कमरों की व्यवस्था थी। वहीं मैंने पहली बार वीतराग स्वामी सर्वदानन्द जी के दर्शन किये थे। रविवार के साप्ताहिक सत्संग में डी०ए०वी० आन्दोलन से जुड़े सभी प्रमुख व्यक्ति नियम से आते थे जिनमें जस्टिस मेहरचंद महाजन प्रिंसीपल श्री जी० एल० दत्ता, प्रिंसीपल मेहर जी, बक्षी रामरतन जी, लाला सूरजभान जी, प्रो० दीवानचंद शर्मा, प्रो० चारूदेव जी, प्रो० ए० एन० बाली आदि अनेकानेक महापुरुष नियम से आते थे। महात्मा जी अपनी उपस्थिति से सदा यह सन्देश देते थे- सत्संग में आना बड़ा महत्वपूर्ण है। उनके अपने उच्च उदाहरण से भी सभी प्रभावित होते थे। उन दिनों उपस्थिति बहुत अधिक होती थी और पूरा हॉल भर जाता था। कार्यक्रम की शुरुआत तो वैसी ही होती थी जो आज है। पहले यज्ञ, फिर प्रार्थना, वेद प्रवचन, सामयिक विषयों पर भाषण और बाद में मन्त्री द्वारा आर्यसमाज की गतिविधियों की सूचना और समाचार। मेरी स्मृति के अनुसार इस विशाल भवन में बिजली के पंखे लगे हुए थे। बड़ी बात यह है कि सभी आर्यपुरुष अपनी आन्तरिक प्रेरणा से नियमपूर्वक साप्ताहिक सत्संग में बड़े उत्साह से भाग लेते थे।
पाकिस्तान बन जाने के तीन चार वर्ष बाद मुझे पाकिस्तान जाने का अवसर मिला। वहां आर्यसमाज मन्दिर अनारकली की जो दुर्दशा देखी, हृदय रो उठा। मन्दिर के भव्य भवन को मुसलमान शरणार्थियों का अड्डा बना दिया गया था। मन्दिर के चारों ओर गन्दगी फैली थी। मन्दिर के सबसे ऊपर जो गुम्बद था, जिस पर ओ३म् ध्वज फहरा करता, वह टूटा हुआ था। सीलन और दुर्गन्ध में ही वहां लोग रह रहे थे। जैसे भारतवर्ष में महात्मा गांधी और नेहरू जी ने मस्जिदों की रक्षा के लिए पूरी शक्ति लगा दी थी कि पंजाब से आने वाले शरणार्थी वहां घुस न पायें, वैसे पाकिस्तान ने क्यों नहीं किया। वहां तो डी०ए०वी० कॉलेज लाहौर का नाम भी बदलकर इस्लामिया कॉलेज रख दिया गया और प्रवेश द्वार में घुसते ही कॉलेज के बड़े लान में सफेद संगमरमर की नई मस्जिद बना दी गई। इन सब बातों पर अलग से लिखूंगा। आर्यसमाज के साप्ताहिक सत्संग में कभी-कभी प्रिंसीपल दीवानचंद जी (कानपुर वाले), सर गोकुल चंद नारंग आदि महापुरुष आया करते थे और भाषण देते थे। बक्षी सर टेकचंद जी शायद इसलिए नहीं आते थे क्योंकि वे पंजाब हाईकोर्ट के जज थे। कैसे थे वे दिन, कैसा था वह उत्साह, कैसी थी आर्यसमाज के प्रति दीवानगी उन दिनों।
यहां पर एक बात का और जिक्र करना चाहूंगा कि पंजाब के आर्य युवकों को एक झण्डे के तले लाने के लिए आर्य युवक समाज की स्थापना लाहौर में हुई थी जिसमें हम चार युवक सक्रिय थे- श्री देवराज चड्डा, श्री यश जी (सुपुत्र महात्मा आनन्द स्वामी), श्री ओंकार नाथ जी (मुम्बई वाले) और मैं। मुझे याद है कि आर्यसमाज अनारकली की वार्षिकोत्सव के दिनों हम अपना विशेष अधिवेशन करते थे जिसमें पंजाब के सभी जिलों से आर्य युवक प्रतिनिधि बड़े उत्साह से भाग लेने आते थे।
आर्यसमाज वच्छोवाली-
अब आर्यसमाज वच्छोवाली की कुछ स्मृतियां। इस समाज की स्थापना महर्षि दयानन्द जी के जीवनकाल में ही लाहौर में हो गई थी। लाहौर के चारों ओर एक बड़ी भारी मजबूत फसील (दीवार) थी जिसमें १२ दरवाजे थे जैसे मोरी दरवाजा, भाटी दरवाजा, मोची दरवाजा इत्यादि। इनमें शाह आलमी दरवाजा भी था जिसके अन्दर अनेकों बाजारों, गली-कूचों में हिन्दुओं के परिवार रहते थे और हिन्दुओं की दुकानें भी थीं। इसके अन्दर एक गली का नाम वच्छोवाली था। महाराजा रणजीत सिंह के समय की एक विशाल हवेली में यह आर्यसमाज स्थित था जो उस समय की स्थापत्य-कला का नमूना था। बेसमेंट का रिवाज तो अब चला है परन्तु आर्यसमाज वच्छोवाली में एक बेसमेंट भी था और गुरुद्वारों की भांति अनेक सीढ़ियां ऊपर की ओर चढ़कर प्रवेश द्वार था जिसके अन्दर एक मुख्य हॉल और तीन दिशाओं में तीन छोटे हॉल थे जिनमें एक महिलाओं के लिए सुरक्षित था।
उन दिनों आर्यसमाज के गणमान्य सभासद हाथों में बहुत बड़े कपड़े के झालरदार पंखे लेकर उन्हें झुलाया करते थे जिससे श्रोतागण को गर्मी का अहसास कम हो और वे सत्संग में शान्तिपूर्वक भाग ले सकें। एक ही सयम में आठ-दस व्यक्ति साप्ताहिक सत्संग में अलग-अलग स्थानों पर इन पंखों को झुलाते थे। साप्ताहिक सत्संग में नगर के गणमान्य व्यक्ति जिनमें महाशय कृष्ण जी, पं० ठाकुर दत्त जी अमृतधारा, पण्डित ठाकुर दत्त वैद्य मुलतानी, पण्डित हीरानन्द जी, पायनियर स्पोर्ट्स के रोशनलाल जी, लाहौर के पोस्ट मास्टर भाटिया जी, रेलवे के बड़े उच्च अधिकारी सरदार मेहर सिंह जी और ऐसे ही कितने अनेक व्यक्ति नियम से आते थे।
लाहौर में आर्यसमाज का केन्द्रीय कार्यालय, गुरुदत्त भवन रावी रोड पर स्थित था जहां आर्य प्रतिनिधि सभा का विशाल कार्यालय भी था। वहां से स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी, स्वामी वेदानन्द जी, पं० प्रियरत्न जी, पण्डित बुद्धदेव जी विद्यालंकार, पण्डित ज्ञानचंद जी आर्यसेवक, पण्डित विश्वम्भरनाथ जी, आदि नियम से आते थे यदि वे लाहौर से बाहर नहीं गये हों। पूरा भवन खचाखच भरा रहता था। उन दिनों श्री देवेन्द्रनाथ अवस्थी एडवोकेट समाज में मन्त्री थे और मैं सहमन्त्री था।
वार्षिकोत्सव की धूम-
इन दोनों आर्यसमाजों का वार्षिकोत्सव नवम्बर के अन्तिम सप्ताह में एक साथ ही होता था। वच्छोवाली का वार्षिकोत्सव गुरुदत्त भवन के विशाल प्रांगण में होता था और अनारकली का डी०ए०वी० मिडल स्कूल लाहौर की ग्राउण्ड में और बाद में डी०ए०वी० हाई स्कूल के ग्राउण्ड में होने लगा। पंजाब भर के आर्यसमाजी नवम्बर में आने का कार्यक्रम समय से पहले ही बना लेते थे जहां उन्हें एक से बढ़कर एक विद्वान्, संन्यासी और प्राध्यापकों के विचार सुनने को मिलते थे और साथ ही विख्यात भजन मण्डलियों के भजन जिनमें चिमटा भजन मण्डली भी होती थी। कविवर कुंवर सुखलाल जैसे अद्वितीय कवि भी हुआ करते थे जो श्रोताओं को मन्त्रमुग्ध कर देते थे। लोग रात के ११ बजे तक यह कार्यक्रम सुनते थे। पिछली पंक्तियों में खड़े लोग सुनते नहीं थकते थे। गुरुदत्त भवन और डी०ए०वी० को जोड़ने वाली सड़क पर भीड़ का तांता लगा रहता था सैकड़ों आर्यपुरुष, देवियां और बच्चे उत्साह से इधर से उधर जाते रहते थे- एक उत्सव से दूसरे उत्सव की ओर। वह एक दर्शनीय दृश्य होता था। अब तो बस इसकी यादें रह गई हैं। सम्भवतः आज की पीढ़ी को इन सब पर विश्वास करना कठिन हो परन्तु यह आर्यसमाज के स्वर्ण युग की झांकी है जो अब स्मृति शेष रह गई है।
वार्षिक उत्सव के प्रारम्भ में शुक्रवार के दिन विशाल नगर कीर्तन निकाला जाता था जो सारे नगर की परिक्रमा करता था और जिसकी शान और सजधज देखते बनती थी। प्रत्येक जिले से आर्यसज्जन अपनी-अपनी मण्डली बनाकर ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज का गुणगान करते हुए पैदल चलते थे। ऐसी मण्डलियां ५० से अधिक ही होती थीं। अलग-अलग जिलों से आने के कारण उनके पहनावे और बोली में भी काफी अन्तर होता था। जैसे फ्रंटियर के आर्यसमाजी और मुलतान से आने वाले सज्जन, दोनों का पहनावा और उच्चारण अपनी विशेषता लिए हुए होता था, मानो अनेकता में एकता का दर्शन हो। इस जुलूस में आर्यसमाज के प्रमुख विचारक और प्रचारक जगह-जगह प्रत्येक चौक में गाड़ी खड़ी करके वेद प्रचार करते थे। इसी प्रकार अनेक बैलगाड़ियों पर प्रसिद्ध गायक और भजन मण्डली पूरी साज-सज्जा के साथ भजन गाते थे।
डी.ए.वी. कॉलेज और डी.ए.वी. स्कूलों के विद्यार्थी और अध्यापक केसरी रंग की पगड़ियां पहने हुए पंक्तिबद्ध होकर चलते थे और “हम दयानन्द के सैनिक हैं, दुनिया में धूम मचा देंगे” का गान करते थे तो एक समां बंध जाता था। आप सम्भवतः आश्चर्य करें कि डी.ए.वी. कॉलेज के सभी विद्यार्थियों की हाजिरी ली जाती थी ताकि प्रत्येक विद्यार्थी का नगर-कीर्तन में सम्मिलित होना सुनिश्चित हो। मुस्लिम बहुल लाहौर शहर में इस नगर कीर्तन के कारण मुसलमानों के हृदय पर परोक्ष रूप से आतंक भी छा जाता था। महात्मा हंसराज जी प्रायः अनारकली में प्रसिद्ध दुकान ‘भल्ले दी हट्टी’ के मुख्यद्वार पर बैठकर इस शोभायात्रा का आनन्द लेते थे। गलियों, बाजारों के दोनों ओर दुकानों और छतों से भी नर-नारी बच्चे उस नगर कीर्तन को देखते थे। इस भव्य यात्रा में शारीरिक व्यायाम के करतब, गतकों के खेल आदि भी देखने को मिलते थे। वार्षिकोत्सव शनिवार और रविवार को होता था, परन्तु लाहौर के गली-मोहल्लों में आर्यपुरुषों और देवियों की प्रभात फेरिया एक सप्ताह पहले से ही सबको सूचना देने के लिए शुरू हो जाती थी। डी.ए.वी. के अध्यापक पन्द्रह दिन पहले ही सारे नगर में वार्षिकोत्सव की सूचना देने वाले कपड़े के बोर्ड सड़कों के आर-पार लगा देते थे। आज न वे दिन रहे, न उत्साह, न धर्म के प्रति सच्ची श्रद्धा।
-स्व. विश्वनाथ जी के आलेखों से
[स्त्रोत- टंकारा समाचार : श्री महर्षि दयानन्द सरस्वती स्मारक ट्रस्ट का मासिक पत्र का अगस्त २०२० का अंक; प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]