गीता जयंती, 5100 साल पहले अद्भुत ज्ञान, भगवद् गीता के प्रकट होने के उपलक्ष्य में मनाया जाने वाला एक विशेष उत्सव है। भगवद् गीता हमारे जीवन का कालजयी एवं शाश्वत सत्य है। सत्य का न तो कभी जन्म हुआ और न ही इसका अंत होता है, किंतु हम इस दिन को सूत्रों के रूप में दिए गए इस कालातीत ज्ञान पर विचार करने, इसे समझने और आत्मसात करने के एक अच्छे अवसर के रूप में लेते हैं।
भौतिक जगत में डूबने वालों के लिए, भगवद् गीता के श्लोक, उस रस्सी के समान हैं जो आपको किनारे तक ले जाती है। इसलिए भगवद गीता को बार-बार पढ़ते रहें और स्मरण करते रहें। यह जान लें कि आप दिन के प्रत्येक क्षण में जिस ज्ञान को जी रहे हैं, वह भगवद गीता है।
दुनिया में दो तरह के लोग हैं- एक तो वे लोग जो निष्क्रिय हैं और दूसरे वे जो आक्रामक हैं। जो लोग बहुत निष्क्रिय होते हैं वे किसी भी चीज में शामिल नहीं होते हैं और जो लोग बहुत आक्रामक होते हैं। वे जो चाहते हैं उसे प्राप्त करने के लिए कुछ भी कर सकते हैं। देर-सवेर दोनों के हाथ खाली ही मिलते हैं। तो फिर सही दृष्टिकोण क्या होना चाहिए?
क्या हमें निष्क्रिय होना चाहिए या आक्रामक होना चाहिए? गीता दोनों में से किसी की भी वकालत नहीं करती। यह कहती है, व्यक्ति को ‘शांति के साथ गतिशीलता’ रखनी चाहिए। यह एक ही समय में गतिशील और शांत रहने की शिक्षा देती है। वह शांति, जो सक्रिय है, वही किसी भी समस्या के प्रति सही दृष्टिकोण रखने में सहायक होगी। भगवद् गीता आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी कई युगों पहले थी।
‘योग्यता’ शब्द ‘योग’ से आया है। ‘जब अस्तित्व के साथ गहराई से मिलन होता है, तब आप वास्तव में एक मनुष्य बनने के योग्य होते हैं।’ किसी भी कार्य को करने के लिए, आपको इस कार्य के साथ एकीकृत होने की आवश्यकता है। आपको ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है। आपको रोगों से मुक्त रहने की आवश्यकता है। आपको अपने आस-पास क्या हो रहा है, इसके विषय में जागरूक रहने की आवश्यकता है।
‘योग’ हमारे भीतर गहरी शांति लाता है और ‘कर्मयोग’ गतिविधियों में गतिशीलता लाता है। आज समाज में जिम्मेदारी लेने की आवश्यकता है- यही ‘कर्मयोग’ है। ‘कर्मयोग’ का अर्थ है ‘कर्म को पूरी जिम्मेदारी के साथ करना’। एक व्यक्ति वही कार्य कर्मयोग या अयोग में कर सकता है।
उदाहरण के लिए, एक शिक्षक जब वह बच्चों में रुचि लेता है तब वह ‘कर्मयोगी’ हो सकता है, लेकिन अगर शिक्षक की रुचि केवल हर महीने की पहली तारीख को मिलने वाले वेतन में है, तो वह ‘कर्मयोगी’ नहीं है। इसी तरह, आप एक पिता या मां, बेटी या बेटे, पति या पत्नी किसी भी भूमिका में ‘कर्मयोगी’ हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, एक ‘कर्मयोगी’ पिता वास्तव में अपने बच्चे के जीवन में रुचि लेता है, वह अपने बच्चे के मन को समझता है। उसका बेटे या बेटी किस दिशा में जा रहे हैं, उनकी रुचियां क्या हैं, इन सभी विषयों पर ध्यान देता है।
अर्जुन, भगवान कृष्ण से कहते हैं कि मन को नियंत्रित करना बहुत कठिन है, जिस पर भगवान कृष्ण ने कहा- ‘मन जहां भी जाता है उसे कुशलतापूर्वक वापस ले आओ।’ मन से लड़ो मत! यह बिल्कुल अपने बच्चों को घर वापस लाने जैसा है। यह वैसा ही है, जैसे यदि आप किसी छात्र या किशोर से कुछ न करने के लिए कहें, तो वे वही करना चाहेंगे। आपका मन एक किशोर की तरह है जिसे आप अपने साथ लेकर घूम रहे हैं और यह परिपक्व नहीं हुआ है। यह ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहता जिसे आप इसे करने के लिए कहें, तो आप इसे घर वापस कैसे लाएंगे?- कुशलता से!
यदि आप भगवद् गीता को आरंभ से अंत तक पढ़ेंगे तो पाएंगे कि इसमें कितने विरोधाभास हैं! कृष्ण ने अर्जुन के सामने विरोधी तर्क रखकर उसे पूरी तरह भ्रमित कर दिया है। कई लोगों ने इनमें ‘समन्वय’ लाने का प्रयत्न किया है, अर्थात उन्होंने विरोधाभास को समाप्त करने की कोशिश की है, किंतु मेरा विचार भिन्न है। आपको इन विरोधाभासों को मिटाने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। सत्य विरोधाभास में ही प्रकट हो सकता है। सत्य सदैव विरोधाभासी होता है।
उदाहरण के लिए किसी विशेष स्थान पर जाने के लिए, आप कह सकते हैं: ‘दाएं जाओ और बाएं मुड़ो’ या ‘दाएं जाओ और दाएं मुड़ो’। दोनों सही हो सकते हैं। यह ‘गोलाकार सोच’ है, जो धर्मशास्त्र या दर्शन की दुनिया के लिए सबसे बड़ा उपहार है। यह दुनिया के किसी अन्य भाग में मौजूद नहीं है।
उदाहरण के लिए, पश्चिम में लोग इस बात पर भ्रमित हैं और सोच रहे हैं, ‘यदि ईश्वर सर्वव्यापी है, तो शैतान को कहां स्थान दिया जा सकता है?’ आप शैतान को ‘रख’ नहीं सकते। यदि आप ऐसा करते हैं, तो ईश्वर सर्वव्यापी नहीं है ! यही है न? लेकिन पूर्व में यही विरोधाभास, समग्रता के एक अंश के रूप में सह-अस्तित्व में स्वीकृत किया गया है और यही अद्वैत है।