Saturday, November 23, 2024
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टीपू जैसे अत्याचारी का नहीं, बैंगलुरू के संस्थापक राजा केम्पेगौडा का इतिहास जानिये

मुस्लिम वोट बैंक के लिए काँग्रेस द्वारा खामख्वाह टीपू सुलतान की जयंती मनाने के भद्दे विवाद के समय प्रसिद्ध लेखक एवं कलाकार गिरीश कर्नाड ने भी अपनी कथित “सेकुलर उपयोगिता” को दर्शाने एवं अपने महामहिमों को खुश करने के लिए एक बयान दिया था कि बंगलौर के अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे का नाम केम्पेगौडा टर्मिनल से बदलकर टीपू सुलतान के नाम पर कर दिया जाना चाहिए. हालाँकि एक दिन में ही गिरीश कर्नाड को अक्ल आ गई और वे अपने बयान से पलट गए. ऐसा क्यों हुआ, यह हम लेख में आगे देखेंगे.

कई मित्रों को केम्पेगौडा के बारे में जानकारी नहीं है. होगी भी कैसे? टीपू सुलतान जैसे क्रूर बादशाह को महिमामंडित करने के चक्कर में फर्जी इतिहासकारों ने कर्नाटक के इस राजा और खासकर विजयनगर साम्राज्य को हमेशा कमतर दर्शाने अथवा उपेक्षित रखने का भरपूर प्रयास किया है, लेकिन स्थानीय भावनाएँ और जातीय व क्षेत्रीय स्वाभिमान तथा बंगलौर के गौरवशाली इतिहास के कारण केम्पेगौडा को कभी भुलाया नहीं जा सकता. हिरिया केम्पेगौडा को जनता केम्पेगौडा के नाम से जानती थी. वे विजयनगरम साम्राज्य के दौरान एक बुद्धिमान एवं कलाप्रेमी राजा के रूप में विख्यात थे. आज जो बंगलौर हमें दिखाई देता है, वह केम्पेगौडा के दिमाग की ही उपज थी. सन 1537 में केम्पेगौडा ने बंगलौर को अपनी राजधानी बनाने का फैसला किया और उसी के अनुसार व्यवस्थित रूप से बंगलौर को डिजाइन किया. राजा केम्पेगौडा “गौड़ा” खानदान से थे, जो कि येलहंकानाडु प्रभु की विरासत से आरम्भ हुआ था. “गौड़ा” शब्द का एक अर्थ भूमिपुत्र अथवा किसान भी होता है. केम्पेगौडा ने सन 1513 से आरम्भ करके कुल 56 वर्ष शासन किया. जबकि इनके पिता केम्पनान्जे गौड़ा ने 70 वर्ष तक शासन किया. केम्पेगौडा बचपन से ही दूरदृष्टा, बुद्धिमान एवं कलाप्रेमी थे. जब उन्होंने बंगलूरू को राजधानी बनाने का फैसला किया तभी उन्होंने निश्चित कर लिया था कि वे इसे एक व्यवस्थित नगर के रूप में विकसित करेंगे. बंगलूरू शहर में उन्होंने एक किला, फ़ौजी छावनी, ढेर सारे तालाब और मंदिरों का निर्माण करवाया. बंगलूरू में केम्पेगौडा ने सड़कों का निर्माण भी अत्यधिक व्यवस्थित पद्धति से करवाया, जिसमें उत्तर से दक्षिण तक तथा पूर्व से पश्चिम तक बहुत चौड़ी सड़कों तथा इन्हें जोड़ने वाली थोड़ी कम चौड़ी सड़कों का निर्माण पहले करवाया. बंगलूरू में आज जिस स्थान पर डोडापेट चौराहा है (चिक्कापेट जंक्शन) वहीं से बैलों द्वारा हल चलाकर बंगलूरू की सड़कों का निर्माण आरम्भ किया था. उन दिनों भी सड़कें इतनी चौड़ी थीं कि तीन-तीन बैलगाडियां आराम से एक साथ चल सकती थीं.

केम्पेगौडा के शासनकाल में बंगलूरू कपास, चावल, रागी और चूड़ियों के लिए अत्यधिक प्रसिद्ध था. कुरुबारापेट, कुम्बारपेट, गनिगारपेट, उप्पारापेट जैसे इलाके व्यावसायिक केन्द्र थे, जबकि हलसूरपेट, मुटियालापेट, बल्लापुरापेट जैसे कई इलाके रिहायशी बनाए गए. किले के उत्तरी येलहांका द्वारा के पास विनायक एवं आंजनेय के मंदिर बनाए गए (जहाँ आज स्टेट बैंक ऑफ मैसूर का मुख्यालय है). इसके अलावा केम्पेगौडा ने नगर को पानी आपूर्ति हेतु कई विशाल तालाबों का भी निर्माण करवाया, जो कहीं-कहीं आज भी देखे जा सकते हैं. विजयनगर साम्राज्य के प्रमुख शासक केम्पेगौडा के इन कामों से अत्यधिक प्रसन्न हुए और उन्होंने उल्सूर, बेगुर, वर्थुर, जिगनी, थालागात्तापुरा जैसे कई गाँव केम्पेगौडा को भेंट में दिए. सन 1569 में केम्पेगौडा का निधन हुआ, और सन 1609 में उनकी एक धातुमूर्ति शिवगंगा स्थित गंगाधरेश्वर मंदिर में स्थापित की गई. आगे चलकर कर्नाटक सरकार ने केन्द्र को प्रस्ताव भेजा कि बंगलूरू अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे का नाम राजा केम्पेगौडा के नाम पर कर दिया जाए. तत्कालीन यूपीए सरकार ने 2012 में कर्नाटक सरकार के इस प्रस्ताव को मंजूरी दी और 18 जुलाई 2013 को कैबिनेट ने सर्वसम्मति से बंगलूरू एयरपोर्ट का नाम “केम्पेगौडा अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा” कर दिया.K1

अब आप सोच रहे होंगे कि जब काँग्रेस सरकार ने ही बंगलूरू एयरपोर्ट का नाम राजा केम्पेगौडा के नाम पर रखा है तो फिर सिद्धरामय्या सरकार और काँग्रेस के खासुलखास गिरीश कर्नाड ने इस मामले को जबरन क्यों उछाला? गिरीश कर्नाड को यह कहने की क्या जरूरत थी कि इस हवाई अड्डे का नाम टीपू सुलतान के नाम पर रखा जाए? ऐसा इसलिए, क्योंकि टीपू के कई इस्लामिक कारनामों की वजह से आज भी मुस्लिमों के दिल में टीपू के प्रति काफी इज्जत है, सो मुसलमानों को खुश करने के लिए काँग्रेस ने गिरीश कर्नाड के मुँह से यह बयान दिलवाया ताकि वह वोट बैंक खुश हो जाए, कि देखो काँग्रेस हमारे नायकों का कितना ख़याल रखती है… और फिर दो दिन बाद ही गिरीश कर्नाड के मुँह से यह बयान भी दिलवा दिया गया कि “मेरे कहने का आशय यह नहीं था, राजा केम्पेगौडा तो महान व्यक्ति थे..”. अब आप फिर सोच में पड़ गए होंगे कि अपने ही बयान से पलटी मारने का क्या मतलब?? तो ऐसा इसलिए क्योंकि कर्नाटक में गौड़ा समुदाय एक शक्तिशाली राजनैतिक वोट बैंक अर्थात “वोक्कालिगा” के अंतर्गत आता है. गिरीश कर्नाड के बयान देते ही राजा केम्पेगौडा के समस्त “गौड़ा” अर्थात वोक्कालिगा समुदाय समर्थक नाराज हो गए…. तत्काल काँग्रेस को समझ में आया कि टीपू सुलतान को लेकर खेला गया यह दाँव महँगा भी पड़ सकता है, तो गिरीश कर्नाड साहब ने तत्काल माफी भी माँग ली. वोट बैंक के लिए दोनों हाथों में लड्डू रखने का यह घृणित खेल काँग्रेस 1948 से खेलती आई है. काँग्रेस ने ही हिंदुओं को खुश करने के लिए राम जन्मभूमि स्थल का ताला खोल दिया था और मुसलमानों को खुश करने के लिए ही शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट को लात मारते हुए संविधान ही बदल दिया.
खैर…. अब हम आते हैं भारत के “महान”(??) इतिहासकारों द्वारा टीपू सुलतान और उसके बाप हैदर अली को अत्यधिक सहिष्णु और उदार बादशाह साबित करने के प्रयास का पोल खोलते एक तथ्य पर. बंगलूरू से पचहत्तर किमी दूर मगादी तहसील में केम्पापुरा नामक गाँव है. इस गाँव में सिर्फ साठ मकान हैं और आबादी लगभग पाँच सौ मात्र. यह गाँव राजा केम्पेगौडा की शहीद स्थली है और इसी गाँव में, बंगलूरू जैसा आईटी शहर बसाने और विकसित करने वाले राजा केम्पेगौडा का स्मारक भी है. आश्चर्य की बात है कि यह महत्त्वपूर्ण जानकारी बंगलूरू में बहुत कम लोगों को पता है, क्योंकि इतिहासकारों (यानी कथित इतिहासकारों) ने केम्पेगौडा शासनकाल की उपलब्धियों को आम जनता तक पहुँचने से रोके रखा, उनके लिए इतिहास हैदर अली से शुरू होता था. केम्पापुरा गाँव के रहवासियों से बात करने पर जानकारी मिलती है कि 1568 में इसी गाँव के आसपास हुए भीषण युद्ध में केम्पेगौडा बुरी तरह घायल हुए और उन्होंने इस गाँव में शरण ली, तथा यहीं वीरगति को प्राप्त हुए. केम्पेगौडा के पुत्र इम्मादी ने अपने पिता की स्मृति में यहाँ एक स्मारक बनवाया तथा इसी स्मारक के सामने बासवराज का मंदिर भी निर्मित किया. इस गाँव के सभी निवासी अपने राजा के प्रति अत्यधिक कृतज्ञ थे और प्रति सोमवार को केम्पापुरा का प्रत्येक व्यक्ति राजा केम्पेगौडा के स्मारक पर पुष्प अर्पित कर सामने बने मंदिर में पूजा-आरती करता था. यह सिलसिला सत्रहवीं शताब्दी तक अर्थात लगभग 150-160 वर्ष तक लगातार जारी रहा.

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सत्रहवीं शताब्दी के मध्य तक हैदर अली का आतंक इस पूरे क्षेत्र में छा गया था. एक बार हैदर अली युद्ध लड़ने के लिए इसी केम्पापुरा गाँव से सोमवार को गुजरने वाला था. ग्रामीण भयभीत थे कि कहीं हैदर अली बासवराज मंदिर और केम्पेगौडा के स्मारक को नष्ट ना कर दे, इसलिए उन्होंने पूरे स्मारक और मंदिर को बड़ी-बड़ी झाड़ियों और काँटों से ढँक दिया और गाँव खाली कर दिया. दुर्योग से कुछ ऐसा हुआ, कि हैदर अली को इसी गाँव के पास अपनी सेना के साथ लंबी अवधि तक डेरा डालना पड़ा. हैदर अली के भय से केम्पापुरा के ग्रामीणों ने लंबे समय तक उस स्मारक का रुख ही नहीं किया. इस गाँव के सबसे वृद्ध व्यक्ति 105 वर्षीय चिंगाम्मा गौड़ा बताते हैं कि हैदर अली के बाद टीपू सुलतान बादशाह बना और उसने भी वही आतंक मचाया. अंततः ग्रामीणों ने उधर जाना ही बन्द कर दिया और वह स्मारक तथा वह मंदिर घने जंगलों एवं झाडियों के बीच कहीं खो गया. कभीकभार कुछ बहादुर युवा इस जंगल में जाकर राजा की समाधि के पास सहभोज (पिकनिक) वगैरह मना लिया करते, परन्तु टीपू का भय इतना अधिक था कि किसी ने भी इस स्मारक और मंदिर को सार्वजनिक नहीं किया. टीपू सुलतान की मृत्यु के काफी बाद अर्थात लगभग अठारहवीं सदी के मध्य में अंततः ग्रामीणों ने निश्चय किया कि अब वे अपने प्रिय राजा केम्पेगौडा के स्मारक को पुनर्जीवित करेंगे और वैसा ही किया गया. परन्तु भारत के सेकुलर इतिहासकारों ने केम्पेगौडा के इस स्मारक को पूरी तरह भुला ही दिया, और आज भी यह खराब स्थिति में है, और किसी को इसकी जानकारी नहीं है, क्योंकि जैसा कि मैंने ऊपर लिखा, इतिहासकारों के लिए टीपू सुलतान अधिक महत्त्वपूर्ण थे, ना कि विजयनगरम साम्राज्य अथवा कोई और भारतीय सम्राट.

साभार- http://blog.sureshchiplunkar.com/ से

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