निर्भयता। निडरता। निर्भीकता। इन सब का पर्यायवाची शब्द हैं – वीर सावरकर। इस सामान्य कद – काठी के व्यक्ति में असामान्य और अद्भुत धैर्य था। अपने ८३ वर्ष के जीवन में वे किसी से नहीं डरे।
२२ जून, १८९७ को, जब चाफेकर बंधुओं ने अत्याचारी अंग्रेज़ अफसर रैंड को गोली से उड़ाया, तब विनायक दामोदर सावरकर की आयु थी मात्र १४ वर्ष। किन्तु इस घटना ने उनको इतना ज्यादा प्रेरित किया, की उन्होने माँ भवानी के सामने देश को, सशस्त्र क्रांति के द्वारा स्वतंत्र करने की शपथ ली। १९०५ में, जब पूरे देश में अंग्रेजों के विरोध में वातावरण बन रहा था, जब ‘बंग–भंग आंदोलन’ जोश के साथ प्रारंभ हुआ था, जब अंग्रेजों की दमनकारी क्रियाएं भी उसी ताकत के साथ राष्ट्रवाद को कुचलने में लगी थी, तब, दशहरे के दिन, अर्थात शनिवार, ७ अक्तूबर १९०५ को, वीर सावरकर ने पुणे में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई। विदेशी वस्तुओं के विरोध में भारत में यह पहला, बड़ा आंदोलन था।
लेकिन निडर सावरकर जी ने, अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए एक बड़ा कदम उठाया। सीधे शेर की मांद में घुसकर उसे ललकारने का..! राष्ट्रभक्त श्यामजी कृष्ण वर्मा से छात्रवृत्ति लेकर, सावरकर १९०६ में लंदन पहुंचे। उनकी बुध्दिमत्ता के कारण उन्हे इंग्लंड के प्रतिष्ठित ‘सिटी लॉं स्कूल’ में प्रवेश मिल गया, जहां वे बैरिस्टरी की पढ़ाई करने लगे। किन्तु शेर की गुफा में घुसकर, मात्र बैरिस्टर की उपाधि लेना, इतना संकुचित विचार सावरकर जी का नहीं था। उन्हे तो अंग्रेजों के सिंहासन को हिलाना था।
उनके लंदन आगमन के कुछ महीनों बाद ही, १८५७ के स्वातंत्र्य समर का स्वर्ण-जयंती वर्ष प्रारंभ हो रहा था – १९०७। सावरकर जी ने बड़ी हिम्मत के साथ, लंदन यूनिवर्सिटी के छात्र, उनके कॉलेज के छात्र और अन्य भारतीय तरुणों को लेकर एक मोर्चा निकाला। लंदन की सड़कों पर, ये युवा अपनी छाती पर, ‘भारतीय स्वतंत्रता संग्राम चिरायु हो’ ऐसे बिल्ले लगाकर जा रहे थे। बड़ा ही अभूतपूर्व दृश्य था। वीर सावरकर के निडर स्वभाव की यह झलक मात्र थी।
सारे अंग्रेजी और भारतीय साहित्य में उन दिनों, सन १८५७ के संग्राम को ‘भारतीय सैनिकों का असफल विद्रोह’ कहा जाता था। सावरकर जी ने इसके तह तक जाने का निश्चय किया। लंदन के ‘इंडिया हाउस’ से जुड़े एक क्रांतिकारी की पत्नी अंग्रेज़ थी। उनके सहायक के रूप में, सावरकर जी ने ‘ब्रिटिश म्यूजियम’ के पुस्तकालय में अपना प्रवेश करा लिया। अगले एक वर्ष में उन्होने १८५७ के संग्राम पर उपलब्ध डेढ़ हजार से ज्यादा पुस्तके पढ़ी और उनके सामने आया एक दहकता सच – १८५७ यह सिपाहियों का विद्रोह नहीं था। वह था, एक सुनियोजित स्वतंत्रता संग्राम। फिर इन सभी ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित पुस्तक उन्होने लिखी– ‘१८५७ का स्वातंत्र्य समर’। पुस्तक मराठी में थी। उनके एक क्रांतिकारी सहयोगी अय्यर ने, जो मराठी भी अच्छे से जानते थे, उसका अंग्रेजी में अनुवाद किया। और फिर शुरू हुई, पुस्तक छपवाने की प्रक्रिया। जैसे ही अंग्रेजों को इस पुस्तक के बारे में जानकारी मिली, उन्होने ने तुरंत इस पुस्तक पर प्रतिबंध लगा दिया। प्रकाशित होने से पहले ही प्रतिबंध का सामना करने वाली विश्व की यह पहली पुस्तक हैं..!
आखिरकार यह पुस्तक हॉलैंड में छपी। गुप्त रूप से इसका वितरण हुआ और जल्दी ही, यह क्रांतिकारियों की ‘गीता’ बन गई। इसका दूसरा संस्करण, अमेरिका में स्वतंत्रता की अलख जगाने वाले, ‘गदर’ पार्टी के संस्थापक, लाला हरदयाल ने छपवाया। इन दोनों संस्करणों में, लेखक के स्थान पर ‘नेशनलिस्ट’ लिखा था। लेकिन सरदार भगत सिंह ने जब १९२९ में इस पुस्तक का तीसरा संस्करण, प्रतिबंध के बावजूद गुप्त रूप से, भारत में छपवाया, तब लेखक के नाम के आगे उन्होने वी. डी. सावरकर लिखा। भगत सिंह ने इसका पंजाबी में अनुवाद भी कराया। इस पुस्तक का चौथा संस्करण, नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने छपवाया…
सावरकर जी ने जब ‘सिटी लॉं स्कूल’ से बैरिस्टरी की शिक्षा अच्छे अंकों के साथ उत्तीर्ण की, तब उन्हे इंग्लैंड के राजा के प्रति वफादार रहने का शपथपत्र भरकर देने को कहा गया। निर्भीक सावरकर ने बड़ी स्पष्टता के साथ, उस शिक्षा विभाग के उच्चाधिकारी से कहा, “मैं ऐसी शपथ कदापि नहीं लुंगा।“
उस अधिकारी ने कहा, “तो फिर बैरिस्टरी की डिग्री नहीं मिलेगी।“
सावरकर तपाक से जवाब देते हैं, “तुम्हारी इस कागज की डिग्री की परवाह किसे हैं…? मैं ज्ञान लेने यहां आया था, जो मुझे मिल गया।“
सावरकर की प्रेरणा से मदनलाल धींगरा ने लंदन के इंपीरियल थिएटर में, एक कार्यक्रम के दौरान भारत सचिव के राजनीतिक सलाहकार विल्यम कर्ज़न वायली को, १ जुलाई १९०९ को गोली मारकर खत्म किया। शक की सुईयां सावरकर की ओर मुड़ी। उन्ही दिनों, ब्रिटीशों के प्रति, कुछ वफादार भारतियों ने मदनलाल धींगरा के विरोध में एक सभा आयोजित की थी। किन्तु सावरकर जी ने ऐसा होने नहीं दिया। उन्होने सभा ही समाप्त करवाई।
अस्थिरता के इस समय में, कुछ दिनों तक श्यामजी कृष्ण वर्मा के साथ पेरिस में रहने के बाद, जब दोस्तों और सहयोगियों के मना करने पर भी, फ्रांस से सावरकर वापस लंदन लौटे, तो उनका गिरफ्तार होना तय था। वैसा हुआ भी। किन्तु सावरकर किसी अलग मिट्टी के बने थे। उन्होने अपने सहयोगियों के साथ योजना बनाई। और यहां दिखता हैं, निर्भीक और निडर सावरकर जी का अद्भुत रूप।
उनको भारत ले जाने वाला जहाज, एसएस मारिया (SS Morea), जब फ्रांस के मार्सेलिस बन्दरगाह के पास था, तब रविवार दिनांक ८ जुलाई, १९१० को प्रातः उन्होने शौचालय जाने की बात कही। इसलिए उनके हाथ और पाव की बेड़िया उतारी गई। शौचालय के अंदर जा कर सावरकर जी ने अदम्य साहस का परिचय दिया। शौचालय के पॉट होल से, उन्होने ने खुले समंदर में छलांग लगा दी…!
पॉट होल से निकलते समय छलनी हुआ वह शरीर, उस जख्मी हिस्से पर चूभता समंदर का खारा पानी। समंदर की बड़ी बड़ी लहरे। समंदर के अंदर के भयंकर जीव-जन्तु… किन्तु इन सबकी फिकर न करते हुए, वीर सावरकर अपनी कृश काया से, समंदर के पानी को चीरते हुए आगे बढ़ रहे थे। तब तक जहाज पर यह पता लग चुका था, की सावरकर निकल चुके हैं। इसलिए जहाज से गोलियों की बौछारे हो रही थी। जहाज की छोटी नावों को पानी में उतारकर सावरकर जी के पास जाने का प्रयास हो रहा था।
दुर्दम्य साहसी सावरकर जी ने, फ्रांस के किनारे पर जाकर, भीगे हुए कपड़ों के साथ, फ्रांस में शरण लेने का प्रयास किया। दुर्भाग्य से फ्रेंच पुलिस उनकी बात समझ नहीं सका, और अंग्रेज़ उन्हे फिर अपने जहाज पर ले गए।
साहस और निडरता का यह एकमात्र प्रसंग थोड़े ही था..! २५ दिसंबर १९१० को आजन्म कारावास की सजा, और फिर दूसरे आरोपों में ३० जनवरी १९११ को दूसरे आजन्म कारावास की सजा। दोनों सजा, एक के बाद दूसरी। अर्थात पूरे ५० वर्ष की सजा, और वो भी काले पानी की। लेकिन तब भी बड़े धैर्य और हिम्मत के साथ, सावरकर जी ने न्यायालय में अपनी बात रखी।
अंदमान–निकोबार द्वीप समूह (जिसे ‘काला पानी’ कहा जाता था) के उस सेल्यूलर जेल में पहुचने पर जब वहां के क्रूर जेलर ने जब उनका मखौल उड़ाया, की “दो जनम, अर्थात अगले पचास वर्ष तक तुम जीवित भी रहोगे..?”
आत्मविश्वास से भरपूर सावरकर जी तुरंत प्रतिवाद करते हैं, “अगले पचास वर्षों तक तुम्हारी अँग्रेजी हुकूमत भी कायम रहेगी…?”
बिलकुल छोटी सी कोठडी में, एकांत में रहना। ऊपर के एक छोटे से झरोखे से दिखने वाला आकाश, यही बाहर की दुनिया से जुडने वाली एक कड़ी। रोज बैलों के स्थान पर खुद को जोतकर कोल्हू पीसना, उसमे से दिये गए लक्ष्य के अनुसार तेल निकालना, और तेल कम निकला, तो पशुओं की तरह कोड़े खाना। खाने के लिए कीड़ों से बिलबिलाते रोटी – चावल। रात को चूहों और छिपकलियों के बीच सोना। मल-मूत्र त्याग की भी स्वतंत्रता नहीं… ऐसा एक नहीं, दो नहीं तो ग्यारह वर्ष सावरकर जी ने सहन किया। लेकिन इन सारे अमानवीय अत्याचारों के बीच भी, उनकी राष्ट्रभक्ति की ज्वाला सतत प्रज्वलित रही, धधकती रही। वे पूरे आत्मसम्मान के साथ जेल में रहे। जेलर बारी जैसे क्रूरकर्मा को भी उन्होने उसी की भाषा में उत्तर दिया।
सावरकर क्रांतिकारियों के मुकुटमणि थे, कारण वे निर्भीक थे, निडर थे, दुर्दम्य आशावाद के प्रतीक थे…!
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सावरकर द्रष्टा थे। दूर का देखने की गज़ब की क्षमता उन में थी। सन १९११ में, जब जहाज से वे कैदी के रूप में अंदमान पहुचे, तो उस द्वीप को देखकर उन्होने कहा, “कितना महत्वपूर्ण स्थान हैं यह। स्वतंत्र हिंदुस्तान का नौसैनिक अड्डा बनाकर, इसके माध्यम से समूचे पूर्व दिशा की सुरक्षा हो सकेगी।”
आज वैसा ही हो रहा हैं।
१९३८ में मुंबई में हो रहे अखिल भारतीय मराठी साहित्य संमेलन के वे अध्यक्ष चुने गए। अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होने कहा, “लेखनी तोड़ो, बंदुके पकड़ो”। वे साहित्यकारों को भी सेना में भर्ती होने की प्रेरणा दे रहे थे। उनके इस वक्तव्य की आलोचना हुई। ‘अध्यक्ष के रूप में चयनित, साहित्य का सर्वोच्च सम्मान प्राप्त व्यक्ति ही, लेखनी को तोड़ने की बात कर रहा हैं।‘ यह बात किसी के गले नहीं उतर रही थी। किन्तु सावरकर जी के विचार अत्यंत स्पष्ट थे। ‘तात्कालिक परिस्थिति में वे सभी को सैनिक बनने की अपील कर रहे थे।‘ वे कह रहे थे, “राष्ट्र बचाना सबसे महत्वपूर्ण हैं। अगर सार्वभौम, स्वतंत्र राष्ट्र रहेगा, तो ही तो साहित्य, कला जैसी विधाएँ बचेंगी। इसलिए पहले राष्ट्र का विचार !”
आगे द्वितीय विश्वयुध्द में भी उन्होने युवकों से सेना में भर्ती होने का आग्रह किया। वैसा अभियान चलाया। लेकिन तत्कालीन अधिकतर राजनेताओं को उनकी बात समझ में नहीं आई। उनकी अवहेलना की गई। उपहास उड़ाया गया। उन्हे ‘रिक्रूटवीर’ कहा गया।
इस अभियान के बारे में सावरकर जी के विचार सुस्पष्ट थे। उनको दिख रहा था की जल्दी ही भारत स्वतंत्र होने जा रहा हैं। ऐसे समय में किसी भी सार्वभौम देश को प्रबल सैनिकी शक्ति की आवश्यकता होती हैं। हमारे युवक अंग्रेजों से युध्द शास्त्र के कुछ गुर तो सीख लेंगे। और समय आने पर बंदूकों की नोक किस दिशा में मोड़ना हैं, ये तो हमे ही तय करना हैं।
उनकी इस मुहिम का अर्थ समझ में आया, नेताजी सुभाष चंद्र बोस को। दिनांक २५ जून १९४४ को, ‘आजाद हिन्द रेडियो’ से किए गए भाषण में सुभाष बाबू ने बड़े ही कृतज्ञता पूर्वक, वीर विनायक दामोदर सावरकर का उल्लेख किया, और कहा की सावरकर जी की प्रेरणा से ही आजाद हिन्द सेना को सैनिक मिल रहे हैं।
जॉर्ज ओसावा (George Ohsawa) नाम के एक बड़े जापानी लेखक हो गए (१८९३–१९६६)। उन्होने एक पुस्तक लिखी हैं : ‘The Two Great Indians in Japan – Sri Rash Behari Bose and Netaji Subhash Chandra Bose. सन १९५४ में प्रकाशित इस पुस्तक में उन्होने सावरकर जी का बड़ा गौरवपूर्ण उल्लेख किया हैं। उनके सैनिकीकरण अभियान के बारे में वे लिखते हैं, “Miracle was accomplished. The shooting was stopped. Savarkar’s militarization policy in World War 2 began to shape.”
सेना को शक्तिशाली बनाने का वीर सावरकर का स्वप्न, बहुत कम लोगों के समझ में आया था। १९७१ के भारत – पाक युध्द के नायक, जनरल सैम मानेकशॉ ने २६ फरवरी १९७७ को कहा था की “वीर सावरकर, इंदिरा गांधी के स्थान पर होते, तो फिर भारत की सेना वर्ष १९६६ में ही लाहौर पर जीत दर्ज कर लेती। (https://www.newstracklive.com/news/field-marshal-sam-maneksha-birthday-1064856-1.html)
द्वितीय विश्व युध्द के समय ही सावरकर जी को समझ में आया था की अगले दो–चार वर्षों में, अंग्रेजों को भारत छोड़ कर जाना ही होगा। फिर स्वतंत्र भारत की भाषा क्या होनी चाहिए? लिपि क्या होनी चाहिए ? इन विषयों को लेकर उन्होने भाषा शुध्दी आंदोलन चलाया। तब भी उनका खूप उपहास उड़ाया गया। लेकिन स्वतंत्र भारत के ‘सी पी एंड बेरार’ प्रांत के पहले मुख्यमंत्री पंडित रविशंकर शुक्ल ने, प्रा. रघुवीर की अध्यक्षता में ‘राज्य व्यवहार कोश’ बनाने के लिए एक समिति गठित की। इस समिति ने वीर सावरकर द्वारा सुझाएं अधिकतम शब्द स्वीकार किए। आज प्रचलन में हैं, ऐसे – लोकसभा, संसद, महापौर, दिनांक, क्रमांक, दिग्दर्शक, चित्रपट, मध्यांतर, नगरपालिका, उपस्थित, स्तंभ, मूल्य, शुल्क, प्राचार्य, प्राध्यापक, दूरदर्शन जैसे अनेक शब्द वीर सावरकर जी की ही देन हैं।
सावरकर जी दस-बीस वर्ष आगे की सोचते थे, देखते थे। १९५८ से १९६० तक, लगातार सावरकर जी ने नेहरू सरकार को तिब्बत के बारे में चेताया था। वे कहते थे, तिब्बत यह भारत के सुरक्षा की गारंटी हैं। इसलिए तिब्बत को हथियाने के चीनी षड्यंत्र को विफल करना चाहिए। किन्तु, तब हम पंचशील की बाते कर रहे थे…!
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ऐसे प्रखर देशभक्त, राष्ट्रभक्त वीर विनायक दामोदर सावरकर को हमने, इस देश की सरकार ने क्या दिया..?
अपमान, अवहेलना, उपेक्षा, कारागृह में बंदीवास…!
भारत की स्वतंत्रता के तुरंत बाद, १९४८ में, महात्मा गांधी जी की हत्या के झूठे आरोप में नेहरू सरकार ने उन्हे १४ महीने, दिल्ली के लाल किले में बनाएं गए कारागृह में बंदीवान बनाया। इस झूठे आरोप से, निष्कलिंक, निर्दोष छूटने के, कुछ ही महीनों बाद, १९५० में, उन्हे बेलगाव में बंदी बनाया गया। कारण क्या था? पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली खान का भारत दौरा था। वे दिल्ली आने वाले थे, और दिल्ली की नेहरू सरकार को लग रहा था की बेलगाव में बैठे सावरकर जी के कारण उन लियाकत अली खान साहब को खतरा हैं…!
पिछले पचास–साठ वर्ष इस देश में सावरकर जी की खूब उपेक्षा हुई। किन्तु अब नहीं। अब सावरकर जी के विचारों की स्वीकार्यता बढ़ रही हैं। युवा पीढ़ी में वीर सावरकर के बारे में प्रचंड आकर्षण हैं। सावरकर साहित्य की बिक्री अपने उच्चांक पर हैं…
ये देश, सावरकर जी पर हुए अन्याय का परिमार्जन करने का पूरा प्रयास कर रहा हैं…!
(प्रशांत पोळ ऐतिहासिक, धार्मिक, पौराणिक व राष्ट्रीय विषयों पर शोधपूर्ण लेख लिखते हैं, आपकी की पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी है)