कोटा। जब तक आपके भाव समृद्ध नहीं होंगे शब्द उसके साथ यात्रा नहीं करते हैं। कृति समीक्षा में तुलना परिवेश को मार देती है। यह विचार वरिष्ठ कथाकार-समीक्षक विजय जोशी ने एक साक्षात्कार में बोलते हुए व्यक्त किए। हाल ही में राजकीय सार्वजनिक मंडल पुस्तकालय, कोटा में पांच दिवसीय पुस्तक मेला एवं साहित्यिक महोत्सव समारोह के तीसरे दिन के प्रथम में युवा कवि-उपन्यासकार किशन प्रणय साक्षात्कार में वरिष्ठ कथाकार-समीक्षक विजय जोशी से “कहानी कला और समीक्षा” पर चर्चा कर रहे थे। किशन प्रणय ने चर्चा करते हुए कहा कि कोटा में नया रचनाकार उभरता है या लिखने के लिए प्रयासरत् रहता है तो वह विजय जोशी जी के सम्पर्क में आकर उत्तरोत्तर अपने रचनाकर्म में प्रगति करता जाता है। आज हम इनसे गूढ़ता लिए उनके साहित्य कर्म के बारे में चर्चा कर रहे हैं।
एक प्रश्न के जवाब में जोशी ने कहा कि लेखक की कृति की समीक्षा करते वक्त कई समीक्षक भारतीय संस्कृति को छोड़कर पाश्चात्य संस्कृति के लेखकों के विचारों से तुलना करने लग जाते हैं और यही तुलना अपने परिवेश के लेखक को मार देती है। मेरा मानना है कि जो किताब प्रायोजित होगी वो आपके विचारों को बाँध देगी और जो नैसर्गिक रूप से आएगी वह आपके विचारों को खोल देगी और आपके पथ को प्रदर्शित कर देगी। मेरी समीक्षा पद्धति यही है। मेरी विचारधारा यही है कि आप रचनात्मकता को आधार देने के लिए वट वृक्ष तो बनें परन्तु उसे स्वयं ही सूर्य की किरणों की ओर जाने की प्रेरणा देते रहें। मेरी समीक्षाओं में यही कुछ है। हर पुस्तक में कोई न कोई सच्चाई होती है। नैसर्गिक रूप से लिखी पुस्तक विचारों को स्वयं उद्वेलित करती है। उन्होंने बिना किसी पूर्वाग्रह के रचना की समीक्षा करने पर बल दिया।
प्रणय ने विज्ञान के विद्यार्थी तथा वनस्पति शास्त्र में अधिस्नातक होते हुए हिन्दी और राजस्थानी में सतत् रूप से लेखन करने की बात कहते हुए जब साहित्य की ओर रुझान के बारे में जानना चाहा तो विजय जोशी ने कहा कि मेरा जन्म राजस्थान के हाड़ौती अंचल की साहित्यिक एवं सांस्कृतिक नगरी झालावाड़ में हुआ और साहित्य और कला-संस्कृति पर लेखन अपने गुरु पिता श्री रमेश वारिद से विरासत में मिला। साथ ही कला एवं संगीत के प्रति रूझान अपने सुसंस्कृत संयुक्त परिवार से प्राप्त हुआ। बचपन से किशोरावस्था तक चित्रकला और संगीत को समर्पित रहा। एम.एससी. करने के बाद वर्ष 1985 से विज्ञान-पर्यावरण सन्दर्भित लेखन प्रारम्भ किया। मेरा प्रथम आलेख ‘कटते हुए वृक्ष : गहराता हुआ प्रदूषण’ एक समाचार पत्र में 1985 में प्रकाशित हुआ। इसी प्रकार ‘कचरे के तेवर में कैद हुआ एक शहर’ तथा ‘शहर की नदी चम्बल को लील रहा प्रदूषण’ एवं ‘एक शहर ज़हरीली हवा में’ आलेख लिखे। यहीं से लेखन के प्रति आश्वस्ति और विश्वास बढ़ा और लेखन प्रारम्भ हुआ। साथ ही कला-समीक्षा और कला सन्दर्भित लेखन भी होता रहा। जहाँ तक कथा -साहित्य की ओर प्रेरित होने की बात है तो यह भी सहज रूप में हुआ। वृक्षों से सम्बन्धित पहली कहानी ‘टीस’ लिखी। जिसका प्रसारण आकाशवाणी कोटा से हुआ। इससे मेरे कथा लेखन को प्रोत्साहन मिला ।
श्री जोशी ने कहा हिन्दी और राजस्थानी में अब तक दो हिन्दी उपन्यास, पाँच हिन्दी कहानी संग्रह, चार हिन्दी समीक्षा आलेख ग्रन्थ, दो राजस्थानी कहानी संग्रह, एक राजस्थानी समीक्षा ग्रन्थ के साथ राजस्थानी अनुवाद जिसे बावजी चतर सिंह अनुवाद पुरस्कार मिला है।
राजस्थानी की भावाँ की रामझोळ और अभी अनुभूति के पथ पर : जीवन की बातें कृतियों को इंगित करते हुए प्रश्न किया कि आपकी कहानियों में आपका ही परिवेश या उसका अंश या यूँ कहें उसी की अनुभूति दिखती है, जबकि अभी की कहानियों में बनावटीपन दिखता है और वहीं भाषा के साथ थोड़ा खेलने की कोशिश करते हैं, तो आप यह बताएँ कि आपका जो भावात्मक पक्ष है क्या आपको लगता है वो कहानी को अधिक सुन्दर बनाता है या भाषा में तोड़-मरोड़ करके? इस पर जवाब देते हुए विजय जोशी ने कहा कि जब तक आपके भाव समृद्ध नहीं होंगे शब्द उसके साथ यात्रा नहीं करते। मेरा मानना है कि शब्दों से खेलना इतना आवश्यक नहीं है जितना भावों के पथ पर चलना। साहित्य सृजन में शब्दों के साथ कभी भी खिलवाड़ नहीं करना चाहिए।भावनाओं के साथ शब्द स्वयं चलते हैं।
चर्चा की विशेषता रही कि श्रोताओं की ओर से पूछे गए प्रश्नो लेखन, नवाचार और समीक्षा प्रक्रिया के उत्तर में विजय जोशी ने कहा कि साहित्य अपने समय के समाज की अभिव्यक्ति होता है जो आने वाली पीढ़ी का मार्ग तो प्रशस्त कर सकता है पर लेखन की दृष्टि से सामयिक नहीं हो सकता।
इस संदर्भ में उन्होंने कई उदाहरण से अपनी बात को पुष्ट करते हुए कहा कि आज समय आ गया है जब हमें साहित्य में नवाचार के लिए सोचना होगा और नई सोच के साथ लिखना होगा। इसके लिए उन्होंने तुरन्त ईसी भाव-परिवेश से लेकर स्व रचित एक लघुकथा सुनाई। उन्होंने स्पष्ट किया कि कहानियाँ अपने परिवेश के प्रति सजगता और भावों के प्रति समर्पण से उभरती है वहीं समीक्षा रचना के भीतर की संवेदना को ही नहीं वरन् है उसके सकारात्मक पक्ष के साथ सामाजिक सरोकारों को उजागर करती है।
गीत विधा में दखल रखने वाले जोशी के कला-संगीत के पक्ष को उजागर करने के साथ अंत में जब विजय जोशी से उनके प्रसिद्ध तथा लोगों द्वारा उनकी पसंद का गीत सुनाने की गुज़ारिश की तो विजय जोशी ने ‘रे बंधु तेरा कहाँ मुकाम, भोर हुई जब सूरज निकला छूटा तेरा धाम” जिस तान से सुनाया श्रोता गदगद हो गए।
आरम्भ में सत्र के संयोजक राजेन्द्र पँवार ने जोशी और प्रणय का परिचय प्रस्तुत किया। अतिथि के रूप में वरिष्ठ कवि-उपन्यासकार विश्वामित्र दाधीच, पर्यटक लेखक डॉ. प्रभात कुमार सिंघल और राजकीय सार्वजनिक मंडल पुस्तकालय के अध्यक्ष डॉ. दीपक श्रीवास्तव मंचासीन थे। बड़ी संख्या में साहित्य प्रेमी और विद्यार्थी मौजूद रहे।