Saturday, May 18, 2024
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संसदीय लोकतंत्र : संविधान और कार्यान्वयन

15 अगस्त, 1947 को पराधीन भारत ब्रिटिश दासता से मुक्ति प्राप्त किया और गंभीर चिंतन, गहन मनन और विचार- विमर्श के पश्चात हमने लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था को ग्राह्य किया और संविधान (राष्ट्र-राज्य की सर्वोच्च विधि) की रचना के लिए संविधान सभा का गठन किया जिसके द्वारा सर्वोत्कृष्ट  संविधान तैयार किया गया और 26 जनवरी, 1950 को अपने संविधान को आत्माप्रीत किए। विपक्ष, बड़बोले नेताओं और सोशल मीडिया पर धड़ल्ले से सवाल उठाए जा रहे हैं कि संविधान और लोकतंत्र खतरे में है?
संविधान की उद्देशिका में उल्लेखित विचार, आदर्श और मौलिक सिद्धांत भारत की मूलभूत प्रकृति को निर्धारित करती हैं। संविधान की उद्देशिका जो शासन के लिए प्रकाश स्तंभ होता है जिसको शासक लोकतांत्रिक संस्कृति में क्रियान्वित करता है। संविधान के उद्देशिका ‘हम भारत के लोग’ से शुभारंभ होती है जो यह संप्रेषित करता है कि भारत एक संप्रभु (जो वाह्य और आंतरिक रूप से स्वतंत्र हो), समाजवादी (संसाधन पर सार्वजनिक नियंत्रण), पंथनिरपेक्ष (राज्य का अपना कोई निजी धर्म नहीं है अर्थात राज्य धर्म के विषय में तटस्थ है) और लोकतांत्रिक गणराज्य (राज्य का संवैधानिक प्रधान /प्रमुख जनता के द्वारा निर्वाचित हो) एवं लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने के लिए यह संविधान स्वयं को आत्मा प्रीत किया है और राज्य को प्रत्येक नागरिक के साथ समानता, स्वतंत्रता, न्याय और आपसी बंधुता बनाए रखने का सिद्धांत प्रतिपादित करता है ।
संविधान की उद्देशिका यह संकेत करती है कि संविधान किसके द्वारा, किस लिए और कब बनाया गया है? उद्देशिका मूलतः
१. सत्ता का स्रोत;
2.  राज्य और सरकार का स्वरूप;
३. शासन व्यवस्था के लक्ष्य और
4. संविधान के अधिनियमन।
भारत के संविधान की प्रस्तावना ‘हम भारत के लोग’ शब्दों से प्रारंभ होती है जो इस तथ्य को स्पष्ट करता है कि भारत के संविधान का स्रोत जनता है और राजनीतिक सत्ता अंतिम रूप से जनता में है, जिसका प्रयोग करते हुए जनता ने स्वेच्छा से संविधान का निर्माण अथवा अपनी पसंद की शासन व्यवस्था को स्थापित किया है। प्रस्तावना का अंतिम भाग भी इस तथ्य  की पुष्टि करता है कि भारत में अंतिम सत्ता का स्रोत जनता है और  समस्त शक्तियों का स्रोत जनता है।
भारत वैश्विक स्तर पर सर्वाधिक बृहद एवं जीवंत लोकतांत्रिक राज्य (देश) के रूप में जाना जाता है, क्योंकि लोकतंत्र के केंद्र में जनता है, जिसने 17 आम चुनाव में अपने विवेकी सूझबूझ और बुद्धिमत्ता से मताधिकार का प्रयोग कर सत्ता के सुचारू हस्तांतरण का मार्ग सुनिश्चित किया है और राजनीतिक इतिहास में 10 बार निर्वाचित सरकार बदली है। यह लोकतांत्रिक राजनीतिक यात्रा संविधान के सफलतापूर्वक कार्यान्वयन, लोकतांत्रिक शासकीय व्यवस्था और लोकतांत्रिक जीवन पद्धति का पाथेय है। भारत में उदार राजनीतिक व्यवस्था है। व्यक्ति स्वतंत्रता और अधिकार से बड़ा सामूहिक मौलिक कर्तव्य एवं सामूहिक बोध भावना है। भारत बहुसांस्कृतिक देश होने के साथ पंथनिरपेक्षता की अवधारणा राज्य के व्यक्तित्व में है। भारतीय परंपरा हमारे विचार, व्यवहार और आचरण में प्रतिबिंबित है। लोकतंत्र की सफलता के पीछे लोक की सामूहिक ऊर्जा, निष्ठा एवं मनोयोग होता है।
भारत में संसद  (विधायिका) को सर्वोच्च स्थिति प्राप्त है। वह राष्ट्र की सर्वोच्च पंचायत है एवं भारत के लोगों की निष्ठा का सर्वोच्च मंदिर है। संसद जनसदन और राज्यों की परिषद की अभिव्यक्ति है। संसद मौलिक रूप में जनता का प्रतिनिधित्व करती है। संसद को विधान बनाने, कार्यपालिका पर प्रासंगिक नियंत्रण स्थापित करने, राष्ट्र के खर्चों पर नियंत्रण रखने और संवैधानिक प्रतिनिधियों के व्यवहारों का नियंत्रण करती है। भारत में विधायिका भी संविधान वाद के अंतर्गत कार्य करती है।
लोकतंत्र और संसदीय परंपरा में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका सभी अपने संवैधानिक दायरे में रहकर अपने दायित्वों का सम्यक निर्वहन करते हैं और संवैधानिक दायरे में रहकर प्रत्येक अंग एक दूसरे की सीमाओं का यथोचित सम्मान करते हैं। यही लोकतांत्रिक सार की आत्मा है। भारत में संसद का मौलिक उपादेयता विधान बनाना, प्रशासन की निगरानी करना, बजट पारित करना, लोक समस्याओं का निवारण करना और राष्ट्रीय नीतियों पर विचार-विमर्श करना है। भारत के संविधान के अंतर्गत संघीय मंत्री परिषद सामूहिक रूप से निम्न सदन/ लोकप्रिय सदन के प्रति उत्तरदाई होती है।  संसद अलग-अलग मंत्रालयों से संबंधित अनुदानों की मांगों पर चर्चा और मतदान करने के पश्चात राष्ट्र-राज्य के बजट को अनुमोदित करती हैं।
भारत की संसद ने कई उपलब्धियां के साथ अपनी उपादेयता को कायम रखे हैं। कई उल्लेखनीय विधानों के माध्यम से विविध क्षेत्रों में महत्वपूर्ण परिवर्तन किए हैं। मतदान की आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष करने, भूमि सुधार अधिनियम, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और पिछड़े वर्गों के लिए अलग-अलग राष्ट्रीय आयोगों की स्थापना, पंचायत और स्थानीय निकायों के शक्तियों का हस्तांतरण एवं महिलाओं के लिए पंचायत और शहरी तथा स्थानीय निकायों में कुल स्थान के कम से कम एक तिहाई आरक्षण हेतु महत्वपूर्ण प्रावधान किए गए है। यह सभी विधायन सामाजिक परिवर्तन के लिए अति आवश्यक हैं। संसद ने इन सभी क्षेत्रों में विधान  बनाकर संसदीय परिपक्वता और विवेक का उदाहरण प्रस्तुत किया है।
भारत की विधायिका समय के साथ आने वाली विभिन्न आकस्मिकताओं से निवारण के लिए निरंतर नए नवोन्मेष कर रही है। संसद राष्ट्रीय परंपरा के मजबूती के लिए कई पद्धतियों और पारस्परिक परंपराओं को विकसित किया है। 30 मिनट की चर्चा, अल्पकालिक चर्चा, ध्यान आकर्षण प्रस्ताव, लोकसभा में नियम 377 और राज्यसभा में विशेष उल्लेख के साथ मामलों को उठाया जाना इत्यादि भारतीय नवोन्मेष  की देन है।
हमारा लोकतंत्र एक सक्रिय, जीवंत, ऊर्जावान और मजबूत लोकतंत्र विभिन्न राजनीतिक दल, नागरिक समाज, विपक्ष और निजी सदस्य अपने बातों को पूरी संचेतना, ऊर्जा और मजबूती के साथ रखते हैं, और दबाव डालकर अपने बातों को मनवाने का प्रयास करते हैं। संविधान सभी नागरिकों को समान अवसर प्रदान करने के साथ एक समावेशी शासन व्यवस्था एवं समावेशी समाज की स्थापना में सहयोग दिया है।
 
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)
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