हिन्दी दैनिक ‘अमर उजाला’ के पीलीभीत ब्यूरो चीफ रहे विश्वामित्र टंडन ही वह पत्रकार हैं, जिन्होंने पीलीभीत फर्जी पुलिस मुठभेड़ में मारे गए सिखों की कहानी लोगों के सामने रखी थी। वर्ष 2005 में पत्रकारिता छोड़ने वाले टंडन इन दिनों पीलीभीत में रहते हैं। उन दिनों को याद करते हुए टंडन कहते हैं कि भले ही उस घटना को 25 साल बीत गए हों लेकिन आज भी ऐसा लगता है कि वह कल की ही बात हो।
फर्जी मुठभेड़ मामले में 47 पुलिसकर्मियों को सजा देने के सीबीआई कोर्ट के फैसले के बाद ‘द ट्रिब्यून’ समाचार पत्र की वरिष्ठ पत्रकार शाहिरा नईम से बातचीत में टंडन ने उन दिनों को याद किया है। पेश है इस बातचीत के प्रमुख अंश –
आपको इस घटना का पता कैसे चला ?
: यह 13 जुलाई 1991 की सुबह की बात है। पीलीभीत के पूरनपुर गांव में रहने वाले इस्लामुद्दीन खान मेरे घर आए और बताया कि पुलिस ने फर्जी मुठभेड़ में कई सिख युवकों को मार डाला है। जब तक मैं अपने सूत्रों से खबर की पुष्टि करता, मुझे पता चला कि पीलीभीत के एसपी आरडी त्रिपाठी ने अपने घर पर मीडियाकर्मियों को बुलाया है।
पुलिस ने अधिकारिक रूप से क्या बताया ?
एसपी ने बताया कि पुलिस ने किस तरह यह ऐतिहासिक काम किया है। एसपी ने मीडिया को बताया कि पुलिस ने मुठभेड़ में 10 सिख आतंकियों को मार गिराया है। उस समय तराई क्षेत्र में आतंकवाद चरम पर था। ऐसे में हममें से कुछ पत्रकारों ने पुलिस के इस एक्शन के लिए उन्हें बधाई भी दी। लेकिन यह बात हम लोगों को हजम नहीं हो रही थी। उसका कारण भी था कि इतनी बड़ी घटना में कोई पुलिसकर्मी बिल्कुल घायल नहीं हुआ था। मैंने अपनी स्टोरी तैयार करने के लिए एसपी से मारे गए लोगों के नाम-पते ले लिए। जब मैं वहां से लौटा तो इस्लामुद्दीन मेरे ऑफिस में बैठकर मेरा इंतजार कर रहा था। वहीं मुझे अपने सूत्रों से उस परिवार के बारे में पता चला जो उसी बस में यात्रा कर रही थी। वह इस पूरे मामले की गवाह थी।
आपने कैसे पूरी स्टोरी का पता लगाया?
इस्लामुद्दीन अपनी मोटरसाइकिल पर मुझे अमेरिया में उस परिवार के घर ले गया। वहां पहुंचकर हमने देखा कि वे लोग अपने खेतों में काम कर रहे है। जब हमने उनसे उस घटना के बारे में पूछा तो उन्होंने दो टूक कह दिया ऐसी कोई बात नहीं है। दरअसल, यह पुलिस का खौफ था जिसकी वजह से वह कुछ नहीं बोल रहे थे। परेशान होकर हम वहां से लौट रहे थे, तभी एक सिख युवक ने हमें रोका और बताया कि सिख युवकों के साथ क्या हुआ था। उसने बताया कि वह नरेन्द्र नामक उस सिख की मां को जानता है, जिसका बेटा मार डाला गया। इस घटना के बारे में उसकी मां सब कुछ बता सकती है क्योंकि उसके पास अब खोने के लिए कुछ नहीं है। इसके बाद हम पिस्तौर गांव में नरेन्द्र की मां जोगिन्दर कौर के घर पहुंचे जहां वह चारपाई पर बैठकर रो रही थी। जोगिन्दर ने बताया कि अमेरिया परिवार उस घटना का गवाह है, लेकिन वह पुलिस के डर से कुछ नहीं बताएगा। इसके बाद हम दोबारा उस परिवार के पास आ गए। इस बार वे हमें सब कुछ बताने के लिए तैयार हो गए। उन्होंने बताया कि पुलिसवाले सभी सिख युवकों को हाथ बांधकर जंगल में ले गए और बाद में उनकी हत्या कर दी।
पूरी स्टोरी मिलने के बाद आपने क्या किया?
इस स्टोरी को छिपाना बहुत मुश्किल था। इसलिए मैं सीधा बरेली गया और अपने एडिटर को बताया। उसने मुझे तुरंत तत्कालीन प्रादेशिक डेस्क इंचार्ज सुनील शाह के पास भेज दिया। यहां बैठकर हमने तय किया कि किस प्रकार अपने सूत्रों की रक्षा करते हुए स्टोरी को प्रकाशित किया जाए। उस दिन काफी देर हो गई थी इसलिए निर्णय लिया गया कि इसे अगले दिन प्रकाशित किया जाएगा। मैं पीलीभीत लौट आया और अगले दिन फिर 57 किलोमीटर का सफर तय कर बरेली पहुंचा। वहां निर्णय लिया गया कि स्टोरी को ‘फर्स्ट पर्सन’ (first-person) के तौर पर लिखा जाएगा और इसका शीर्षक फर्जी मुठभेड़ में मारा गया मेरा बेटा होगा। बस यहीं से न्याय के लिए जंग शुरू हो गई।
अब इस मामले में 47 पुलिसकर्मियों को सजा मिल चुकी है, आपको कैसा लगता है ?
मैं खुश हूं कि पीड़ित परिवारों को न्याय मिल गया है लेकिन मुझे अफसोस है कि बड़े अधिकारियों के खिलाफ कुछ नहीं हुआ। इन अधिकारियों ने बड़ी खुशी से आतंकवादियों को मारने का दावा किया था।
कोर्ट में ट्रॉयल के दौरान क्या आप किसी पीड़ित परिवार के संपर्क में भी रहे ?
इनमें से एक पीड़ित के परिवार को मैं जानता हूं। अधिकारियों ने कभी भी उस परिवार के सदस्य की हत्या की बात नहीं स्वीकारी। शुरुआती जांच में पुलिस के बयानों में जब पुलिस के बयानों में विरोधाभास मिला तो सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश पुलिस को उस परिवार को पांच लाख रुपये देने के आदेश दिए थे। लेकिन इसके बाद वे कनाडा चले गए थे। हालांकि उनकी एक बहन अब भी यहां रहती हैं।
साभार-http://samachar4media.com/s से