मध्य प्रदेश में अनेक तालाब और उनके घाटों पर स्थित मन्दिर और राजप्रसाद जिनकी उम्र 1000 साल या उससे भी अधिक है, आज भी अस्तित्व में हैं। यह अकारण या आकस्मिक नहीं है। तकनीकी लोगों के अनुसार पुराने तालाबों की लम्बी उम्र का राज उनकी डिजाइन, निर्माण कला, निर्माणकर्ताओं की दक्षता और उपयोग में लाई सामग्री के चयन में छुपा है।
वह मनुष्य की प्रज्ञा, सृजनशीलता, नवाचार, स्थानीय पर्यावरण और मौसम के प्रभाव और टिकाऊ प्राकृतिक आकृतियों की अवलोकन आधारित समझ के सतत विकास तथा भारतीय जल विज्ञान का विलक्षण उदाहरण है। यह चर्चा इन तालाबों की लम्बी उम्र के रहस्य को समझने में मदद करती है।
राजा भोज को सुयोग्य निर्माणकर्ता माना जाता है। राजा भोज ने नगर आयोजना, मन्दिर आयोजना, मूर्ति निर्माण कला, राजभवन या राजप्रसाद निर्माण विज्ञान, जनप्रसाद निर्माण विज्ञान, चित्रकला तथा रंगकर्म विज्ञान जैसे अनेक विषयों पर विश्वस्तरीय लेखन किया है। राजा भोज ने धार में इंजिनियरिंग तथा वास्तुशास्त्र का विद्यालय स्थापित किया था।
भारत का पहला प्रामाणिक वास्तु ग्रंथ समरांगण सूत्रधार है। इसकी रचना राजा भोज ने की थी। समरांगण सूत्रधार की मदद से संरचनाओं के निर्माण की फिलासफी, प्रक्रिया और तकनीक का अध्ययन किया जाता है। इन विधाओं के जानकार को वास्तुविद कहते हैं।
इन संरचनाओं के निर्माण का महत्त्वपूर्ण पक्ष स्थायित्व, सौन्दर्यबोध और समाज के लिये अविवादित उपयोगिता है। इसीलिये कहा है कि वास्तु सम्मत संरचना को नयनाभिराम (सुन्दर), उपयुक्त (समाज के लिये उपयोगी) तथा दीर्घायु होना चाहिए। लोगों का मानना है कि मध्यप्रदेश के परमारकालीन तालाबों पर समरांगण सूत्रधार का तथा बुरहानपुर की जलप्रणाली पर ईरानी वास्तुशास्त्र का प्रभाव दिखाई देता है।
तालाबों की लम्बी आयु का रहस्य
मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्य अभियन्ता सी.वी. कांड ने तालाबों की लम्बी आयु के लिये निम्नलिखित बातों को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना है-
1. निर्माण सामग्री
2. सीमेंटिंग मेटीरियल या जोड़ों में लगने वाला पदार्थ
3. स्थायित्व
निर्माण सामग्री
भारतीय शिल्पियों तथा वास्तुविदों द्वारा सैकड़ों सालों तक तालाबों, भवनों, बाँधों की पाल एवं मन्दिरों का निर्माण किया जा रहा है। विदित है कि बरसात, गर्मी, ठंड अैर सूरज की रोशनी के प्रभाव से उक्त संरचनाओं की निर्माण सामग्री में सड़न तथा टूटन पैदा होती है।
सड़न तथा टूटन के कारण निर्माण सामग्री कमजोर हो बिखरती है। उसमें भौतिक तथा रासायनिक क्रिया सम्पन्न होती है और कालान्तर में वह पूरी तरह नष्ट हो जाती है। इसे ध्यान में रख भारतीय वास्तुविदों ने दीर्घायु संरचनाओं के निर्माण में मौसम के असर से खराब होने वाली निर्माण सामग्री का यथासम्भव उपयोग नहीं किया। उन्होंने ग्रेनाइट या सेंडस्टोन, जैसे अपक्षयरोधी पत्थरों, मुरम, बोल्डरों और मिट्टी का उपयोग किया।
गौरतलब है कि ग्रेनाइट सेंडस्टोन, मुरम और मिट्टियों पर मौसम का न्यूनतम प्रभाव पड़ता है, वे नष्ट नहीं होतीं इसलिये उनसे बनी संरचनाएँ दीर्घायु होती हैं। भोपाल के बड़े तालाब और भोजपुर के भीमकुण्ड की पाल के निर्माण में अच्छे किस्म के सेंडस्टोन का उपयोग किया गया है। उसके उपयोग के कारण लगभग 1000 साल बीतने के बाद भी पाल पर जमाए पत्थर अभी तक यथावत हैं।
सीमेंटिंग मेटीरियल या जोड़ों में लगने वाला पदार्थ
संरचना के स्थायित्व का सम्बन्ध, निर्माण सामग्री को जोड़ने में प्रयुक्त सीमेंटिंग मेटीरियल से भी होता है। अनगढ़ पत्थरों की सामान्य जुड़ाई में सीमेंटिंग मेटीरियल की हिस्सेदारी 30 से 35 प्रतिशत तक होता है। छेनी से कटे चौकोर पत्थरों में यह हिस्सेदारी लगभग 15 प्रतिशत होती है पर यदि पत्थरों को सभी दिशाओं में बहुत सफाई से काट कर जोड़ा जाये तो सीमेंटिंग मेटीरियल की हिस्सेदारी 10 प्रतिशत से भी कम हो जाती है।
वास्तुविद बताते हैं कि मौसम का असर अपक्षयरोधी पत्थर के ब्लाक पर कम और सीमेंटिंग मेटीरियल पर सर्वाधिक पड़ता है। मौसम के प्रभाव से सीमेंटिंग मेटीरियल नष्ट होता है, वह बिखरता है और बिखरकर पत्थर के ब्लाक पर पकड़ कमजोर करता है। इसलिये कहा जा सकता है कि दीर्घायु संरचनाओं के निर्माण के लिये सीमेंटिंग मेटीरियल की न्यूनतम हिस्सेदारी अन्ततोगत्वा संरचना की आयु को लम्बा बनाती है। उल्लेखनीय है कि भीमकुण्ड और बड़े तालाब की पाल पर स्थापित पत्थरों के संयोजन में सीमेंटिंग मेटीरियल का उपयोग नहीं हुआ है।
सीमेंटिंग मेटीरियल का उपयोग नहीं होने के कारण, पाल पर जमाए पत्थर मौसम के कुप्रभाव से बचे रहे। इसी कारण बड़े तालाब और भीमकुण्ड की पाल लगभग 1000 साल बाद भी अच्छी हालत में हैं।
स्थायित्व
संरचनाओं के स्थायित्व को निर्माण सामग्री, सीमेंटिंग मेटीरियल, आकृति और उसका ढाल प्रभावित करता है। यह सर्वविदित है कि भूकम्प, तेज हवा और बरसात का मानव निर्मित संरचनाओं (बाँध तालाब इत्यादि) पर असर पड़ता है। भूकम्प की विनाशकारी तरंगों के कारण संरचनाओं में तेज कम्पन उत्पन्न होता है और वे विभिन्न दिशाओं में डोलती हैं।
भूकम्पों के अलावा तुफान और तेज हवाएँ (आँधी) भी अल्प समय के लिये संरचनाओं में थोड़ी हलचल पैदा करती हैं। भूकम्प, तूफान और तेज हवाओं के असर से कई बार अस्थिर संरचनाएँ गिर जाती हैं। पुराने समय में वास्तुविदों के सामने, संरचनाओं को गिरने से बचाने के लिये, अवलोकन आधारित ज्ञान ही एकमात्र विकल्प था। अतः उन्होंने भूकम्प, तूफान और तेज हवाओं (आँधी) के असर को जानने के लिये निश्चित ही प्रयास किया होगा।
प्रभावित क्षेत्रों की बसाहटों, संरचनाओं, जंगल, वृक्षों तथा पहाड़ों इत्यादि का लगातार अवलोकन कर प्रभाव समझा होगा। प्राकृतिक कम्पनों को झेलने के बावजूद शान से सीना ताने खड़ी अप्रभावित (नष्ट नहीं हुई) भू-आकृतियों (पहाड़ों) तथा वृक्षों ने स्थायित्व की फिलासफी को समझाया होगा। इसी समझ या फिलासफी पर पुरानी संरचनाओं के स्थायित्व की नींव टिकी है।
1. बाँध की चौड़ाई 125 मीटर, लम्बाई 400 मीटर और ऊँचाई 18 मीटर है।
2. बाँध के ऊपर की सतह पर लगभग 18 मीटर चौड़ी सड़क है। इस सड़क के एक ओर लगभग 20 मीटर चौड़ा बगीचा तथा दूसरी ओर अर्थात छोटे तालाब की ओर 87 मीटर चौड़ा बगीचा है।
3. बाँध की दीवालों के बीच के खाली स्थान में मुरम और बोल्डर भरे हैं। कहते हैं कि मुरम और बोल्डर की परत का सुदृढ़ीकरण हाथियों की मदद से किया गया था। इस सुदृढ़ीकरण के कारण ही मुरम और बोल्डर की परत करीब-करीब अपारगम्य हो दीर्घायु बनी।
4. बाँध की नींव से लेकर 9.0 मीटर की ऊँचाई तक पाल की दीवाल के दोनों तरफ 0.6 मीटरx0.5 मीटर के 2 मीटर से अधिक लम्बे पत्थरों को व्यवस्थित तरीके से जमाया है। पाल का लगभग 3 मीटर निचला भाग पानी में डूबा है। इस परत में संयोजित पत्थरों को जोड़ने में सीमेटिंग मेटीरियल का उपयोग नहीं हुआ।
5. बड़े पत्थरों के ऊपर 0.6 मीटरx0.45 मीटरx0.3 मीटर के पत्थरों की सूखी जुड़ाई की गई है। यह परत लगभग 3.5 मीटर ऊँची है।
6. इस परत के ऊपर लगभग 4.5 मीटर ऊँची परत बनाई गई है। इस परत में अच्छी तरह तराशे पत्थरों को संयोजित किया था और उनकी जुड़ाई में चूने के गारे (लाइम-मार्टर) का उपयोग किया गया है। तराशे पत्थर एस्लर कहलाते हैं।
7. बाढ़ के अतिरिक्त पानी की निकासी के लिये सुरंग बनाई गई थी और रेतघाट पर कमजोर भाग छोड़ा गया था। इस हिस्से को क्षतिग्रस्त कर अनेक बार पानी बहा है।
1. बड़े तालाब के अतिरिक्त पानी की सुरक्षित निकासी के लिये महराबदार सुरंग का निर्माण।
2. पाल की चौड़ाई 125 मीटर और उसकी ऊँचाई का सह-सम्बन्ध सात अनुपात एक रखा है।
3. पाल के निचले 9.00 मीटर भाग को 2.5 टन से अधिक भारी पत्थरों से ढँकना।
4. पाल के अन्दर विकसित छिद्र-दाब की, मिट्टी के गारे के मार्फत, धीरे-धीरे सुरक्षित निकासी। इस व्यवस्था ने पाल को सुरक्षित रख स्थायित्व प्रदान किया।
5. पाल के ऊपर एक मीटर ऊँची जगत का निर्माण। इस जगत पर लगभग 2.5×0.6×0.2 मीटर आकार के भली-भाँति तराशे भारी पत्थरों की कोपिंग। इस कोपिंग ने पाल को ढँक उसकी ऊपरी सतह को स्थायी सुरक्षा प्रदान की।
6. भीमकुण्ड की पाल की सुरक्षा में प्रयुक्त पत्थरों की लम्बाई 1.24 मीटर चौड़ाई 0.93 मीटर और मौटाई 0.77 मीटर है। इस साइज के पत्थरों का वजन 1.5 टन या उससे अधिक है। उसकी पाल में भी मिट्टी, मुरम और पत्थर के टुकड़ों का उपयोग हुआ है।
उपर्युक्त विवरण से पता चलता है कि परमार कालीन बाँधों (भीमकुण्ड और बड़े तालाब) के स्थायित्व का रहस्य उनकी डिजाइन, ढाल, अपक्षयरोधी निर्माण सामग्री, छिद्र-दाब मुक्त जल निकासी, आधार की चौड़ाई, पाल की ऊँचाई के सुरक्षित अनुपात, प्रलयंकारी बाढ़ झेलने की क्षमता और अतिरिक्त जल की सुरक्षित निकासी जैसे अनेक घटकों में छुपा है। बड़े तालाब की पाल उन्हीं रहस्यों को उजागर करती है। यह संक्षिप्त विवरण भारतीय जल विज्ञान की क्षमता का साक्ष्य है।
उम्मीद है, यह छोटी-सी किताब इतिहासकारों, पुरातत्ववेत्ताओं, तथा तकनीकी लोगों के बीच सेतु बनेगी। समाज का ध्यान आकर्षित करेगी और मध्य प्रदेश की कालजयी संरचनाओं में छुपे भारतीय जल विज्ञान पर शोध करने में नींव के पत्थर की भूमिका का निर्वाह करेगी।
साभार- http://hindi.indiawaterportal.org/ से