आज तक तो यह सम्भव हुआ नहीं कि काई राष्ट्र अपनी मातृभाषा व राष्ट्रभाषा को महत्त्व दिए बगैर उन्नति की तरफ अग्रसर हो सके । इस धरा के किसी भी महाद्वीप में आज तक ऐसा हुआ नहीं है तथा भविष्य में भी यह सम्भव नहीं है । लेकिन हमारे भारत के शासक, प्रशासक, नौकरशाह संविधान निर्माता, कानून निर्माता व नीति-निर्धारक पूरी ताकत से यह सिद्ध करने हेतु लगे हैं कि किसी राष्ट्र की प्रगति, समृद्धि व विकास हेतु राष्ट्रभाषा व मातृभाषा का कोई योगदान नहीं होता है । हमारे राजनेताओं, शासकों, प्रशासकों व नौकरशाहों की चमड़ी जितनी मोटी है उतनी ही मोटी इनकी सोच है ।
सब मिलकर लगे हुए हैं अपने बैंक बैलेंस को भारी करने तथा सनातन आर्य वैदिक हिन्दू भारत का कबाड़ा करने । यदि कोई इन्हें रोकने की कोशिश करता है तो वह दुनिया का सबसे बड़ा मूर्ख, अज्ञानी व देहाती इनकी नजर में सिद्ध हो जाता है। इनके दृष्टिकोण से आधुनिक व विकसित केवल वही है जो इन द्वारा बनाए खांचे में फिट बैठ जाता हो । जो इन द्वारा निर्मित खांचे में फिट न हो वह गंवार, उज्जड़, देहाती, साम्प्रदायिक तथा मूढ़ है । क्या गजब का पैमाना है इनके पास विकसित व अविकसित को मापने का और यही सब मूढ़ता चल रही है हमारे यहां। इनकी खोपड़ी में यह बात क्यों नहीं घुसती कि तरक्की, विकास व समृद्धि के जो रास्ते अन्य भाषा-भाषियों हेतु हैं वहीं हिन्दी भाषियों हेतु भी सही हैं ।
अमेरिका, जर्मनी, जापान, फ्रांस, ईजरायल, कोरिया व रूस का अपवाद नहीं है भारत। जिस मानसिकता से इन देशों के व्यक्ति कार्य करते है वही मानसिकता इस धरा के सभी व्यक्तियों की होती है । अपनी जमीन से जुड़ाव सबका होता है । जो जहां पर रहता है वहां से वह प्रभावित होता है तथा उस जगह पर अपना प्रभाव भी छोड़ता है । मेरी रगों में, मेरे रक्त कणों में तथा मेरे रोम-रोम में जो भाषा समायी है, इस सम्बन्ध में यह स्वाभाविक है कि उस-उस भाषा में सृजनात्मक करने में हम शीघ्र समर्थ होते हैं, उस-उस भाषा के माध्यम से हम अपने विचारों की अभिव्यक्ति बहुत सरलता से कर सकने में संभव होते हैं, उस-उस भाषा में विज्ञानादि विषयों को हम सरलता से समझ सकते हैं, उस-उस भाषा में कानून व चिकित्सा के क्षेत्र में शिक्षण व शोध-कार्य हम सहजता व सरलता से कर सकते हैं ।
मातृभाषा या राष्ट्रभाषा को छोड़कर किसी अन्य विदेशी भाषा में शिक्षण व शोध-कार्य करना व करवाना किसी छात्र या शोधार्थी हेतु नाकों चने चबाना या चबवाना है । स्वाभाविक प्रतिभा प्रत्येक व्यक्ति में जो मौजुद होती है वह भी इससे समाप्त प्रायः हो जाती है । जब हम अपने लक्ष्य तक 5 ग्राम मेहनत लगाकर पहुंच सकते हैं तो एक किलो ताकत लगाने का क्या तर्क है? लेकिन नहीं, कोल्हू के बैल की तरह उसी रास्ते पर दिन-रात चक्कर काटने की आदत जो है इनकी । सहज-स्वाभाविक तथ्य को स्वीकार नहीं कर रहे हैं हमारे तथाकथित वैज्ञानिक सोच के कहे जाने वाले नीति निर्माता व नियन्ता। मातृभाषा व राष्ट्रभाषा में हर विषय व संकाय की शिक्षा-व्यवस्था न होने से जन्मजात प्रतिभाओं में जो हताशा, कुंठा, तनाव व आत्महत्या की प्रवृत्ति बन रही है वह हमारे राष्ट्र हेतु कतई ठीक नहीं है । लोक सेवा आयोग की ‘सिविल सेवा परीक्षा’ ने तो हिन्दी सहित तमाम भारतीय भाषाओं का मजाक बनाकर रख दिया है।
एक तरफ भारतीय भाषाभाषियों की संख्या 98 प्रतिशत है तो दूसरी तरफ फिरंगी भाषा अंग्रेजी को 2 प्रतिशत लोग समझते व लिखते हैं । इसके बावजूद भी एक विदेशी भाषा को जबरदस्ती करके भारत राष्ट्र पर लादा जा रहा है । उच्च सेवाओं में रहकर वैभव-विलास का जीवन जीने की जिद्द का परिणाम है यह – दो प्रतिशत लोगों की । ये दो प्रतिशत विदेशी सोच के लोग अपना आधिपत्य त्यागना नहीं चाहते हैं । ये जालिम फिरंगियों की तरह अंग्रेजी के माध्यम से भारत को आज भी गुलाम बनाए रखना चाहते हैं । ये क्यों चाहेंगे कि आम भारतीय, जमीन से जुड़ा भारतीय या साधारण मूल भारतीय उच्चे पदों पर विराजमान हो । केन्द्रीय लोकसेवा आयोग की इसी अकड़, जिद्द व साम्राज्यवादी प्रवृत्ति पर काबू नहीं हो रहा श्री मोदी की सरकार द्वारा । लोगों पर लाठियां बरसाई जा रही हैं । राष्ट्रवादी मांग को मनवाने पर राष्ट्रवादी सरकार लाठियों से लहु-लूहान कर रही है भारतीयों को ।
यह कांग्रेस राज है या अंग्रेज राज? भाजपा वाले इसका उत्तर देंगे क्या? मोदी सरकार से तो यह आशा कतई नहीं थी कि राष्ट्रवादी मांगों के फलस्वरूप राष्ट्रवासियों को लाठियां खानी पड़ेगी । अरे! बदल डालो इस अंग्रेजी व्यवस्था को तथा स्थापित करो भारत में भारतीय भाषाओं के माध्यम से शिक्षण व्यवस्था। क्या भारत को अब भी वे लोग चलाऐंगे जिन्हें अंग्रेजी का ज्ञान हो? भारतीय भाषाभाषी क्या निम्न, नीच, गंवार, अज्ञानी व अयोग्य है? भारत तभी पूरी तरह स्वतन्त्र होगा जब भारतीय भाषाओं के माध्यम से हमारे यहां सम्मान सहित कोई भी शिक्षा उपलब्ध होने लगेगी । राष्ट्रवादी मोदी जी! आगे आओ तथा हिम्मत व सूझ से कार्य लेते हुए अपने राष्ट्रवादी होने का परिचय दो । सिविल सर्विस की परीक्षाओं को मूल रूप से हिन्दी सहित भारतीय भाषाओं में आयोजित करवाना शुरू करो । राष्ट्र भाषाओं का रूप मान्य करो तथा अंग्रेजी आदि भाषाओं में इन भाषाओं से अनुवाद करवाने की व्यवस्था करो । अंग्रेजी का रूप हमारे यहां क्यों मान्य हो? गलती होने की संभावना पर भारतीय भाषाओं के रूप को मानक स्वीकार करो, न कि विदेशी गुलामी की प्रतीक चुड़ैल अंग्रेजी को यह अधिकार मिले ।
(लेखक दर्शन विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय,(हरियाणा), में हैं और लेखक की अब तक विभिन्न विषयों ;धर्म, दर्शन, संस्कृति, योग, लोकसाहित्य, काव्य संग्रह आदि पर पैंतीस से ज्यादा किताबें छप चुकी हैं)
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