आयुर्वेद हमारे ऋग्वेद का भाग है। यह तीन हज़ार वर्षों से पचास हज़ार वर्षों तक की प्राचीन व युगों से प्रमाणित पद्धति मानी गई है। विश्व की सबसे प्राचीन सनातन सभ्यता ने जिस चिकित्सा आधार पर अपनी लाखों करोड़ों पीढ़ियाँ गुज़ार दी; सबसे पहले तो उसे चुनौती देनें वालों पर आपको स्वयं ही संज्ञान लेना चाहिये था! सबसे प्रथम तो आप हमारे आयुर्वेदचार्यों को छद्मवैज्ञानिक (pseudoscience) मानने वालों को दंडित करें न्यायालय श्रीमान!!
Beall, Jeffrey (2018). “Scientific soundness and the problem of predatory journals”
13 Semple D, Smyth R (2019). Chapter 1: Thinking about psychiatry. Oxford Handbook of Psychiatry (4th संस्करण). Oxford University Press. पृ. 24. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-19-879555-1. डीओआई:10.1093/med/9780198795551.003. 0001 “These pseudoscientific theories may…confuse metaphysical with empirical claims (e.g….Ayurvedic medicine)”
ये दो संदर्भ हैं जिसमें आयुर्वेदचार्यों व आयुर्विज्ञानियों को छद्म वैज्ञानिक कहा गया है।
न्याय व्यवस्था केवल वितंडावादियों, बिज़नेस गैंग्स, मल्टीनेशनल लुटेरों, अंग्रेजों, धनपतियों व नेक्सस के लिए तो नहीं है। न्याय हमारे लिए भी है जो भारत की साधारण जनता है और अपनी परंपराओं से प्रेम करती है। हमारी जितनी परंपराओं पर इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने चोट की है उनका संज्ञान उच्चतम न्यायालय यदि स्वयं ले लेगा तो कोई हज़ार पाँच सौ ट्रकों में भरकर दस्तावेज आयेंगे उसके पास।
ये कथित सेकुलरिज्म का ही एक छोटा प्रकार है। हम अपने धर्म, आदर्शों, परंपराओं, आग्रहों, गुणों, विशेषताओं को पढ़ें, लिखें, गायें, विज्ञापित करें तो इससे भला किसी को क्या ख़तरा हो सकता है?! और यदि होता भी हो, तो होते रहे, हमें अपने गुणों को विज्ञापित करने से रोकने का अधिकार भला इन विदेशी पद्धति वालों के पास कैसे हो सकता है?! एलोपैथिक की आलोचना अपराध हो सकती है। एलोपैथी से तुलना तो तर्कसिद्धि की एक विधि ही है। तुलना की है, आलोचना नहीं की है।
यदि इस प्रकार आयर्वेद के गुणों का बखान रोका जाने लगा तो फिर हमें तो बाबा तुलसीदास की रामचरिमानस पढ़ना भी छोड़ी पड़ेगी जिसमें कई कई बार आयुर्वेदिक औषधियों का उल्लेख किया गया है। गोस्वामी जी ने मानस में लिखा है –
“राम पदारबिंद मिर नायउ आइ सुषेन।
कहा नाम गिरि औषधी जाहु पवन सुत लेन।।
देखा सैल न ओषध चीन्हा।
सहसा कपि उपारि गिरि लीन्हा।
हमें तो हनुमान जी की संजीवनी बूटी को ही झूठ मानना होगा। फिर हमें तुलसी को, जाम्बवंत को, वैद्यराज सुषेण आदि आदि इन सभी को भी झूठा सिद्ध मानना होगा जिन्होंने भैया लक्ष्मण को गहन, मृत्यु सदृश मूर्छा से आयुर्वेद औषधि लेने के बाद पलों स्वस्थ और चैतन्य होते हुए देखे था। रामचरितमानस में, रामायण में, महाभारत में, चारों वेद, सभी पुराण, सभी उपनिषद आदि न जाने कितने ही ग्रंथ आयुर्वेद महात्मय से सराबोर हैं और हमें प्राकृतिक चिकित्सा का ज्ञान धार्मिक आख्यानों के माध्यम से देते हैं; सभी को हमें छद्म मानना होगा।
गांधी जी ने आयुर्वेद व एलोपैथ के परस्पर द्वन्द पर यंग इंडिया में लिखा था – अंग्रेजों ने अपने चिकित्सा व्यवसाय का उपयोग हमे परतंत्र रखने हेतु सफलतापूर्वक किया है। पाश्चात्य चिकित्सा पर निर्भरता हमारी दासता को बढ़ाना है। यह प्रणाली बहुत खर्चीली है। रोग का पता लगाने हेतु किए जाने वाले टेस्ट्स से खर्च अत्यधिक बढ़ जाता है। यह चिकित्सा पद्धति पश्चिमी देशों की जलवायु पर आधारित है और हमारे लिए उचित नहीं है। तो, क्या अब हम गांधी जी को भी इसके लिए दंडित करेंगे?
प्रसिद्ध इतिहासकार और पश्चिमी प्रकार के लोगों के प्रिय रामचंद्र गुहा ने अपने एक लेख – “द महात्मा ऑन मेडिसिन” ( टेलीग्राफ , 14 मई, 2016) में लिखा है कि 1920, 30 और 40 के दशक में अपने जीवन के शुरुआती दौर में, गांधीजी प्राकृतिक उपचार में दृढ़ विश्वास रखते थे। आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति और योग भी सीखा। प्रकृति और हर्बल उपचार के साथ उनके प्रयोग हमेशा स्वयं पर होते थे; उन्होंने अपने दोस्तों और शिष्यों को भी इन उपायों को अपनाने की सलाह दी।
तो क्या हम गांधीजी के आयुर्वेद अपनाने के परामर्श को भी अदालती घेरे में रखेंगे?!
दो तीन बातें अकाट्य और ध्रुव सत्य हैं जो हमें समझ लेनी चाहिये। पहली बात, एलोपैथ अपने साइड इफ़ेक्ट्स के कारण एक विवादित चिकित्सा पद्धति है। दूजी, आयुर्वेद एक मद्धम किंतु लक्ष्यभेदी व बिना किसी भी प्रकार के साइड इफ़ेक्ट्स वाली चिकित्सा पद्धति है, और तीसरी बात, भारत में एलोपैथ महंगी, असहज व पर्यावरण विरोधी चिकित्सा पद्धति है जबकि आयुर्वेद निःशुल्क या अत्यधिक कम लागत वाली एक सहज, सुलभ व पर्यावरण सम्मत पद्धति है।
जीवन शैली से उपजे रोग जैसे, ब्लड-प्रेशर, कोलेस्ट्राल, डायबिटीज, ह्रदय-रोग व थायरायड आदि की चिकित्सा हेतु आयर्वेद बड़ी ही सिद्ध पद्धति है जबकि एलोपैथ इन विषयों में मनुष्य के तन को प्रयोगशाला बना देता है। संपूर्ण आधुनिक एलोपैथ विज्ञान कोई सहज चिकित्सा पद्धान्ति नहीं अपितु आपदा प्रबंधन का माध्यम है। आज के समय में एलोपैथ का अधिकतम उपयोग स्वार्थों हेतु, व्यक्तिगत लाभ हेतु, समय की बचत हेतु किया जा रहा है या दूसरों के बहकावे या यूँ कहें कि, एक नेक्सस में फँसने के कारण मात्र ही किया जा रहा है। आज एलोपैथ में एजेंट्स, ब्रोकर्स, दवा निर्माताओं, दवा व्यवसायी, डॉक्टर्स, आदि आदि का फैला हुआ जंजाल या नेक्सस हमारे आयुर्विज्ञान को खाये जा रहा है। बहुराष्ट्रीय और बड़ी दवा कंपनियाँ अपने कमीशन बाज डॉक्टर और एजेंट्स के कारण दवा व्यवसाय में चालीस से साठ प्रतिशत तक का लाभ ले रहीं हैं और देश है कि इस लूट को चुप्पी साधे देख रहा है।
बड़ी बहुराष्ट्रीय दवा व्यवसाय में व्याप्त हो गये उसके नेक्सस या खटमलों के माध्यम से भारत से अरबों डॉलर बाहर ले जा रही है। हमारा राष्ट्रीय स्वास्थ्य सूचकांक सुधरा हुआ दिखाया जाता है किंतु ज़मीनी स्तर पर स्वास्थ्य में इतनी गिरावट आ चुकी है कि हम हमारी स्वाभाविक और प्राकृतिक रोग प्रतिरोधक क्षमता को भी शनैः शनैः खोते चले जा रहे हैं। समय आ गया है कि हम दैनन्दिन जीवन में आयुर्वेद, प्राकृतिक चिकित्सा का प्रयोग उठाते हुए एलोपैथ पर आपदा की स्थिति मात्र में निर्भर रहें। ऐसा करना ही आज देशधर्म और युगधर्म है।
बाबा रामदेव और पतञ्जलि संस्थान पर उच्चतम न्यायालय की टिप्पणी सच है या झूठ; यह तो कह नहीं सकता किंतु न्यायालय की इस फटकार में बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों द्वारा फैलाई गई धुंध का प्रभाव अवश्य दिखता है। दुष्प्रचार व आत्मपरिचय में अंतर होता है। पतञ्जलि ने मिथ्या प्रचार नहीं किया है, उसने स्वयं की क्षमताओं का परिचित देना चाहा है। उत्तम या अति उत्तम ऐलोपैथ उपलब्ध रहने पर भी आयुर्वेद और प्राकृतिक चिकित्सा की अनदेखी क़तई नहीं की जा सकती है।
न्यायालय श्रीमान स्मरण रखे की बाबा रामदेव व पतञ्जलि संस्थान के यशस्वी संस्थापक बाबा रामदेव को बदनाम करने, उनका मिशन आधारित व्यवसाय दुष्प्रभावित करने के बहुतेरे प्रयास पहले भी हो चुके हैं। पतञ्जलि के विरुद्ध दवा गैंगस्टर्स के ये प्रयास हर बार पहले की अपेक्षा अधिक संगठित, योजनाबद्ध व अधिक मारक होते हैं। मल्टीनेशनल्स दवा या उपभोक्ता कंपनियों द्वारा पतञ्जलि या भारतीय चिकित्सा पद्धति को घेरे जाने के दुष्प्रचार, दुर्लक्ष्य, दुर्भाव, को अब समझा जाना चाहिये व इसके विरोध में भी अब केवल शासन व सिस्टम को नहीं अपितु हमारे समूचे जागृत नागरिकों को समझना चाहिये।
न्यायालय श्रीमान के अतिरिक्त भारत का बच्चा बच्चा जानता है कि कोविड कालखंड में इन्हीं बहुराष्ट्रीय मेडिकल कंपनियों ने अपने लाभ को कम न होने देने के चक्कर में किस प्रकार हमारी प्राकृतिक व आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धतियाँ का बेतरह हास्य उड़ाया था और इन्हें ख़ारिज कर रहे थे। वस्तुतः एलोपैथ को आपातक़ालीन चिकित्सा प्रबंधन मानकर उसका सम्मान करते हुए हमें अपने आयुर्वेद व प्राकृतिक चिकित्सा पर आधारित रहना ही उचित और सामयिक होगा। और, आयुर्वेद द्वारा स्वयं के गुणों की चर्चा को मिथ्या प्रचार मानने के स्थान पर उसका परीक्षण किया जाना अधिक उचित होगा।
लेखक विदेश मंत्रालय में राजभाषा सलाहकार हैं (,9425002270 )