Saturday, November 23, 2024
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हिंदी काव्य जगत में अब कोई ‘नीरज’ नहीं होगा

जन्म – 04 जनवरी 1924
उपनाम – नीरज
जन्म स्थान – ग्राम- पुरावली, जिला- इटावा, उत्तर प्रदेश

साहित्य, फिल्म, समाज और आम लोगों के दिलों में अपने गीतों से हिंदी को सम्मान और गौरव प्रदान करने वाले महाकवि गोपाल प्रसाद व्यास ‘नीरज अब हमारे बीच नहीं रहे। आजीवन फक्कड़ मसीहा की तरह जीवन जीेने वाले इस महाकवि ने हिंदी कविता को शब्दों के जाल से निकालकर आम लोगों तक ही नहीं पहुँचाया बल्कि कविता के मंच से लेकर फिल्मी गीतों तक में हिंदी को सम्मान दिलाया।

गोपालदास सक्सेना ‘नीरज’ का जन्म 4 जनवरी 1924 को इटावा जिले के पुरावली गांव में हुआ। मात्र छह साल की उम्र में पिता ब्रजकिशोर सक्सेना का साया उनके उपर से उठ गया। फिर उन्हें घर से दूर एटा में पढ़ने के लिए भेज दिए गए 10 साल घर से दूर रहे. मां से, अपने भाइयों से, अपने पूरे परिवार से. जब नीरज इस अलगाव को बयां करते थे तो उनकी बूढ़ी आंखों से सात साल के बच्चे का दर्द छलका करता था. नीरज ने 1942 में एटा से हाई स्कूल परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। परिवार की माली हालत अच्छी नहीं थी इसलिए शुरुआत में इटावा की कचहरी में कुछ समय टाइपिस्ट का काम किया उसके बाद सिनेमाघर की एक दुकान पर भी नौकरी की। लंबी बेरोजगारी के बाद दिल्ली जाकर सफाई विभाग में टाइपिस्ट की नौकरी करने लगे।

नीरज ने अपने अंगदान करके अपनी कही हुई बातों को साबित भी कर दिया और जीवन के अंतिम सफर को आसान कर नीरज ने अपनी मृत्यु से पहले अपने अंगदान करने की घोषणा कर दी थी. उनकी अंतिम इच्छा के अनुसार एम्स के डॉक्टर शुक्रवार की सुबह अंगदान की क्रिया पूरी करेंगे. इसके बाद उनका पार्थिव शरीर अलीगढ़ ले जाया जाएगा, जहां उनका अंतिम संस्कार किया जाएगा.

दिल्ली से नौकरी छूट जाने पर नीरज कानपुर पहुंचे और वहां डीएवी कॉलेज में क्लर्क की नौकरी की। फिर बाल्कट ब्रदर्स नाम की एक प्राइवेट कंपनी में पांच साल तक टाइपिस्ट का काम किया। कानपुर के कुरसंवा मुहल्ले में उनका लंबा वक्त गुजरा। नौकरी करने के साथ ही प्राइवेट परीक्षाएं देकर उन्होंने 1949 में इंटरमीडिएट, 1951 में बीए और 1953 में प्रथम श्रेणी में हिन्दी साहित्य से एमए किया।

नीरज ने मेरठ कॉलेज मेरठ में हिन्दी प्रवक्ता के पद पर कुछ समय तक अध्यापन कार्य भी किया। बाद में वहां की नौकरी से त्यागपत्र देना पड़ा। उसके बाद वे अलीगढ़ के धर्म समाज कॉलेज में हिन्दी विभाग के प्राध्यापक नियुक्त हो गए। फिर अलीगढ़ उनका स्थायी ठिकाना बना और मैरिस रोड जनकपुरी अलीगढ़ में स्थायी आवास बनाकर रहने लगे।

दिनकर उन्हें हिंदी की ‘वीणा’ मानते तो अन्य भाषा-भाषी ‘संत कवि’ की संज्ञा देते थे. नीरज की रचनाओं में दर्द दिया है, आसावरी, बादलों से सलाम लेता हूँ, गीत जो गाए नहीं, नीरज की पाती, नीरज दोहावली, गीत-अगीत, कारवां गुजर गया, पुष्प पारिजात के, काव्यांजलि, नीरज संचयन, नीरज के संग-कविता के सात रंग, बादर बरस गयो, मुक्तकी, दो गीत, नदी किनारे, लहर पुकारे, प्राण-गीत, फिर दीप जलेगा, तुम्हारे लिये, वंशीवट सूना है और नीरज की गीतिकाएँ शामिल हैं.

1958 में मुंबई में नीरज निशा का आयोजन हुआ था जिसमें रसिक श्रोताओँ के बीच नीरजी ने अकेले अपनी रचनाओं का पाठ किया था, ये कविता पाठ पूरी रात चला। इस नीरज निशा में फिल्म निर्माता आर. चंद्रा भी मौजूद थे। चंद्रा एटा के पास अलीगढ़ से ही थे. नी तो उनसे फिल्मों के लिए गीत लिखने का आग्रह किया इस पर नीरज जी ने कहा कि मैं नीरज ने कहा मैं तो नौकरी छोड़कर यहाँ मुंबई नहीं आ सकता। आप चाहें तो मेरी कविताओँ में से कोई कविता चुनकर उसे फिल्मी गीत के रूप में प्रयोग कर लें। आर चंद्रा ने “नई उम्र की नई फसल” फिल्म में नीरज के गीतों को ही समर्पित कर बना दी। उसी दौर में लखनऊ रेडियो से “कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे” गीत का प्रसारण हुआ जिसने लोकप्रियता की ऐसी बुलंदी को छुआ कि बसो में, रेलों में या राह चलते लोग कारँवा गुज़र गया, गुबार देखते रहे गुनगुनाने लगे। ये गीत किसी फिल्मी गाने से भी ज्यादा लोकप्रिय हो गया।

इसी बीच गीतकार शैलेंद्र का निधन हो गया. नीरज शैलेंद्र का बड़ा मान करते थे. ऐसे में उन्हें देवानंद से हुई एक मुलाकात याद आई. किसी कवि सम्मेलन में देवानंद चीफ गेस्ट बनकर आए थे. वहां उन्होंने नीरज की कविता सुनी थी. कवि सम्मेलन के बाद उन्होंने नीरज से कहा था कि तुम्हारी कविता बहुत अच्छी लगी, कभी मेरे साथ काम करना.

बड़े लोगों की बड़ी बातें. कौन जाने देवानंद को वह मुलाकात याद होगी भी कि नहीं. हो सकता है, नौजवान कवि का दिल रखने के लिए सुपरस्टार ने वे बातें कह दी हों. लेकिन दिल नहीं माना. नीरज ने देवानंद को खत लिखा. अपना परिचय दिया और देव साहब को वादा याद दिलाया. जल्द ही देवानंद की हेंडराइटिंग में लिखा खत नीरज को मिला. बंबई से दावतनामा आया था. नीरज पहली गाड़ी पकड़कर बंबई रवाना हो गए.

देव साहब मिले. सीधे पूछा कितने दिन के लिए आए हो. नीरज ने कहा छह दिन की छुट्टी लेकर आया हूं. देव साहब प्रेम पुजारी बना रहे थे. संगीतकार थे, एस डी बर्मन. लेकिन गीतकार शैलेंद्र की जगह खाली थी. देवानंद ने बर्मन दादा से कहा नीरज से गीत लिखाएं. दादा ने पूछा, कौन नीरज. बहरहाल, बर्मन दादा आए. उन्होंने नीरज को पूरी सिचुएशन समझाई. कैसे एक भारतीय लड़की अपने प्रेमी को खोजते हुए विदेश पहुंचती है. वहां जाकर क्या देखती है कि जिस प्रेमी के लिए वह इतनी दूर आई, वह किसी और की बाहों में झूल रहा है. लडकी बौराई हुई सी हाथ में शराब का प्याला लिए नाच रही है. और साथ ही महान संगीतकार ने दो शर्तें लगाईं- गीत के बोल रंगीला शब्द से शुरू होंगे. दूसरी बात यह कि इसमें हल्के शब्द गुलगुल-बुलबुल, शमां-परवाना, शराब-जाम का इस्तेमाल नहीं होगा. बर्मन दादा चले गए, नीरज को गीत का बीज देकर. देवानंद भी सो गए.

लेकिन नीरज जागते रहे. सुबह देवानंद को गीत सुनाया: “रंगीला रे, तेरे रंग में जो रंगा है, मेरा मन, छलिया रे, किसी जल से, न बुझेगी, ये जलन.” देवानंद भाव-विभोर. बोले- ओह नीरज क्या कहने. तुरंत बर्मन दादा को फोन लगाया. कहा, गीत तैयार है. सचिन देव वर्मन अवाक, रात भर में गीत बन गया. उन्होंने भी गीत सुना. उन्होंने भी ओके कर दिया. देवानंद ने नीरज से कहा, चलो चलें. बर्मन दादा ने पूछा- कहां. अब ये कहीं नहीं जाएंगे मेरे साथ रहेंगे. और फिर नीरज सुनाते थे कि कैसे वह महान संगीतकार उन्हें अपने यहां अक्सर खाने पर बुलाता था. यह एक ऐसा सम्मान था, जिसके लिए बड़े-बड़े सितारे तरसते थे. बर्मन दादा के लिए नीरज ने ऐसे मधुर और मैलोडियस गीत लिखे, जिन्हें आज की पीढ़ी एक क्लिक पर यू ट्यूब पर सुन सकती है.

इसी समय राज कपूर “मेरा नाम जोकर” फिल्म बनाने निकले, तो उन्हें एक ऐसा गीतकार चाहिए था, जो फिल्म की कहानी को जिये और फिर उस अहसास को गीत में ढाले. राज कपूर के लिए गीतकार का मतलब शैलेंद्र होता था, लेकिन वे तो कब के जा चुके थे. ऐसे में उनके जेहन में अब एक ही नाम था- नीरज. राज कपूर ने अपनी फिल्म के बारे में नीरज को बताया और नीरज ने दिल के किसी कोने में जमा मुखड़ा उछाल दिया- “कहता है जोकर सारा जमाना, आधी हकीकत आधा फसाना.” राज कपूर को मनचाही मुराद मिल गई. मेरा नाम जोकर के गाने नीरज ने लिखे. लेकिन यह तो आधा ही फसाना है. इन मधुर गीतों का सिलसिला बर्मन दादा के साथ परवान चढ़ा था, वह उनकी मौत के साथ ही रुख्सत हो गया.

नीरज बताया करते थे कि बर्मन की मौत के बाद उन्हें बंबई नीरस लगने लगी और वे वापस लौट आए. उनकी असली छाप तो फिल्मी दुनिया से कहीं बाहर है. बच्चन की निशा निमंत्रण कविता को पढ़कर जिस कवि ने अपनी कविता को गढ़ा था और जिसे बहुत पहले इस बात का अंदाजा हो गया था कि उसका काव्य पाठ बलवीर सिंह रंग से कहीं अच्छा है. उसके लिए तो भारत के कोने-कोने में कवि सम्मेलनों के मंच पलक पांवड़े बिछाए हुए थे. वह गीतकार तरन्नुम में गीत पढ़ने की एक ऐसी विधा विकसित कर रहा था, जो आगे चलकर मंच का व्याकरण बनने वाली थी. लेकिन इस शोहरत और प्रयोगधर्मिता के बीच उन्हें बखूबी याद था कि कविता वही है जो सबको समझ आए. वे अक्सर कहा करते थे कि उर्दू के बहुत कठिन शब्द डालकर या बहुत पहुंची हुई भाषा का इस्तेमाल करके यदि गीत लिखा तो वह आम आदमी से दूर हो जाएगा. आम आदमी तक तो वही कविता पहुंचेगी जो आमफहम जुबान में होगी. वे उसी जुबान में ताउम्र कविता करते रहे.

वे कहा करते थे कि उनकी कविता में दर्द भी मिलेगा, प्रेम भी मिलेगा, विद्रोह भी मिलेगा और देशभक्ति भी मिलेगी. पर असल में उनके कवि में विरोधाभास मिलेगा. हाथ में अंगूठियां और कलाई में कलावा धारण करने वाले नीरज कहते थे, आदमी विरोधाभास और द्वंद्व से बना है, उसे खांचे में नहीं बांटा जा सकता.

अपने जीवन के अंतिम समय में उन्हें इस बात पर अफसोस होने लगा था कि मंच की कविता अपने श्रोताओं के गिरते स्तर के साथ गिरती जा रही है. लेकिन इसे भी वे साक्षी भाव से ही लेते थे. इस दौरान बड़े-बड़े नेताओं, मुख्यमंत्रियों और सरकारों से मिले सम्मान भी वे चुपचाप कमरे में खिसका दिया करते थे.

उन्होंने अपने जीवन के आधे सफर में ही इतनी गुर्बत और इतनी बुलंदी देख ली थी कि जिंदगी का बाकी आधा सफर अपने भीतर की मिठास के साथ ही गुजारा. आज वे जब स्थायी रूप से चले गए हैं तो आंसू बहाने में भी डर लगता है. जैसे वे गुनगुना रहे हों-

फिर तो उन्होंने पीछे पलचटकर नहीं देखा। उन्होंने बरसों तक फिल्मों में गीत लिखे। मेरा नाम जोकर, शर्मीली और प्रेम पुजारी जैसी चर्चित फिल्मों के गीत बेहद लोकप्रिय हुए। हिंदी फिल्म जगत ने भी उतने ही सम्मान से अपनाया. उन्होंने हिंदी फिल्मों के गीतों में भाषायी स्तर पर बेहतरीन प्रयोग किये और ऐसे कई गीत रचे, जिन्होंने पीढ़ी दर पीढ़ी श्रोताओं को खुद से जोड़े रखा.

उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा था- ‘दुनिया से विदा लेते समय अगर आपके गीत और कविताएं लोगों की जुबां और दिल में हों, तो यही आपकी सबसे बड़ी पहचान होगी.’

बिलकुल ऐसा हो भी रहा है. अब जब नीरज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन टीवी चैनलों से लेकर सोशल मीडिया तक नीरज के गीत छाये और बजाये जा रहे हैं. उन्हें उनकी रचनाओं से याद किया जा रहा है.

जितना कम सामान रहेगा, उतना सफ़र आसान रहेगा, जितनी भारी गठरी होगी, उतना तू हैरान रहेगा’ जी हां, गोपालदास नीरज ने ये शब्द बस अपनी रचनाओं में पिरोए ही नहीं बल्कि उन्हें जीवन में उतारा भी. और इस दुनिया से जाते-जाते दिखा दिया कि उनके शरीर पर समाज का भी अधिकार है बराबर.

महफिलों और मंचों की शमां रोशन करने वाले नीरज को कभी शोहरत की हसरत नहीं रही. उनकी ख्वाहिश थी तो बस इतनी कि जब जिंदगी दामन छुड़ाए तो उनके लबों पर कोई नया नगमा हो, कोई नई कविता हो.

उनकी बेहद लोकप्रिय रचनाओं में ‘‘कारवां गुजर गया …….’’ रही.. स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से, लुट गए सिंगार सभी बाग के बबूल से, और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे. कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे! नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई, पांव जब तलक उठें कि ज़िन्दगी फिसल गई,

हिंदी के मशहूर कवि यतीन्द्र मिश्र ने गोपालदास नीरज से जुड़े एक स्मरण ‘आओ उड़ जाएं कहीं बन के पवन हो ओ…’ लिखी. यतीन्द्र मिश्र ने अपनी पुरानी यादों को साझा करते हुए कई ऐसी बातों को बताया, जिसे आप जरूर पढ़ना चाहेंगे.

उन्होंने लिखा, उनसे हमारा पारिवारिक रिश्ता था. अस्सी के दशक में तकरीबन हर साल वो अयोध्या आते थे हमारे यहां. हमारे इंटर कालेज में उनकी ही सरपरस्ती में देर रात तक चलने वाला मुशायरा होता था. वे और बेकल उत्साही, एक ज़रूरी उपस्थिति रहे लगभग एक दशक तक. बाद में धीरे-धीरे उनका आना कम होता गया. मुझे अपने बचपन के वो दिन याद हैं, जब घर में बैठे हुए मेरी तन्नू बुआ के आग्रह पर न जाने कितने गीत उन्होंने अपनी आवाज़ में रेकॉर्ड करवाए.

मुझे याद है कि एक बार बड़े तरन्नुम में ‘नयी उमर की नयी फसल’ का अपना ही लिखा हुआ गीत ‘देखती ही रहो आज दरपन न तुम, प्यार का ये मुहूरत निकल जाएगा’ ऐसा गाकर रेकॉर्ड करवाया, कि हर एक अपनी सुध भुला बैठा. मेरी बुआ ने न जाने कितनी नज़्मों को उनकी आवाज़ में सहेजा. आज, सब बस कल की ही बात लगती है. हालांकि मेरे लिए उनकी कविता का असर तब आया, जब इंटर में पढ़ते हुए एक दिन ‘तेरे मेरे सपने’ फ़िल्म का उनका गीत ‘जैसे राधा ने माला जपी श्याम की’ मुझे सुनने को मिला. उस गीत में जाने कौन सा जादू था, जिसने एकबारगी नीरज जी की कविता के सम्मोहन में ऐसा डाला, जिससे अब इस जीवन में निकलना सम्भव नहीं. प्रेम और रूमान के इस गीतकार ने जैसे अन्तस छू दिया हो..

फिर तो उनकी कविता और उसके मादक सौंदर्य ने कभी आसव तो कभी मदिरा का काम किया.. उनके सारे गीत, जैसे भीतर की पुकार बनते चले गए. उन गीतों के अर्थ को पकड़ना ,जैसे कुछ अपने ही अंदर कस्तूरी के रंग को खोजने की एक तड़प भरी कोशिश रही हर बार… ‘सबके आंगन दिया जले रे’, ‘मोरे आंगन हिया’, ‘हवा लागे शूल जैसी’, ‘ताना मारे चुनरिया’, ‘आयी है आंसू की बारात’, ‘बैरन बन गयी निंदिया…’ इस गीत में लता जी की आवाज़ ने, राग पटदीप की सुंदर मगर दर्द भरी गूंज ने और नीरज की बेगानेपन को पुकारती कलम ने जैसे मेरे लिए हमेशा के वास्ते दुःख को शक्ल देने वाली एक इबारत दे दी.

आज तक सैकड़ों बार सुने जा चुके इस गीत के रूमान से अब भला कोई क्यों बाहर निकलना चाहेगा? वो जैसे नीरज को समझने की भी दृष्टि दे गया, जिसके पीछे कानपुर में छूट गया उनका असफल प्रेम शब्द बदल-बदलकर उनकी राह रोकता रहा. कानपुर पर उनकी मशहूर नज़्म के बिखरे मोती आप उनके फिल्मी गीतों में बड़ी आसानी से ढूंढ सकते हैं. ‘प्रेम पुजारी’ में उनका कहन देखिए- ‘न बुझे है किसी जल से ये जलन’, जैसे सारी अलकनंदाओं का जल भी प्रेम की अगन को शीतल करने में नाकाफ़ी हो. उन्होंने ये भी बड़ी खूबसूरती से कहा- ‘चूड़ी नहीं ये मेरा दिल है, देखो देखो टूटे ना..’ हाय, क्या अदा है, प्रेयसी की नाज़ुक कलाइयों के लिए अपने दिल को चूड़ी बना देना.. फिर, शोखियों में घोला जाए फूलों का शबाब’ में नशा तराशते हुए प्यार को परिभाषा देने का नया अंदाज़… गीतों में तड़प, रूमान, एहसास, जज़्बात, दर्द, बेचैनी, इसरार, मनुहार, समर्पण और श्रृंगार सभी कुछ को नीरज के आशिक़ मन ने इबादत की तरह साधा.

शर्मीली का एक गीत ‘आज मदहोश हुआ जाए रे मेरा मन’ सुनिए, तो जान पड़ेगा, कि कवि नीरज के लिखने का फॉर्म और उसकी रेंज कितनी अलग, बड़ी और उस दौर में बिल्कुल ताजगी भरी थी.. ओ री कली सजा तू डोली/ ओ री लहर पहना तू पायल/ ओ री नदी दिखा तू दरपन/ ओ री किरन ओढ़ा तू आंचल/ इक जोगन है बनी आज दुल्हन हो ओ/ आओ उड़ जाएं कहीं बन के पवन हो ओ/ आज मदहोश हुआ जाए रे मेरा मन…. नीरज जैसा श्रृंगार रचने वाला दूसरा गीतकार मिलना मुश्किल है, जो सपनों के पार जाती हुई सजलता रचने में माहिर हो..

हालांकि, नीरज बस इतने भर नहीं है. वो इससे भी पार जाते हैं. दार्शनिक बनकर. एक बंजारे, सूफ़ी या कलन्दर की तरह कुछ ऐसा रचते, जो होश उड़ा दे.. ‘ए भाई ज़रा देखके चलो’, ‘दिल आज शायर है, ग़म आज नगमा है,’ ‘कारवां गुज़र गया, ग़ुबार देखते रहे’, ‘सूनी-सूनी सांस के सितार पर’ और ‘काल का पहिया, घूमे भैया…’ भरपूर दार्शनिकता, लबालब छलकता प्रेम, भावुकता में बहते निराले बिम्ब, दर्द को रागिनी बना देने की उनकी कैफ़ियत ने उन्हें हिन्दी पट्टी के अन्य गीतकारों पं नरेंद्र शर्मा, गोपाल सिंह नेपाली, भरत व्यास, इंदीवर, राजेन्द्र कृष्ण और योगेश से बिल्कुल अलग उनकी अपनी बनाई लीक में अनूठे ढंग से स्थापित किया है.

आज, जब वो नहीं हैं तो बहुत सी बातें, याद आती हैं. उनके गीत सम्मोहित करने की हद तक परेशान करते हैं. मेरे पिता से कही उनकी बात जेहन में कौंधती है कि ‘मेरे गीत हिट होते गए और फिल्में फ्लॉप, इसलिए जल्दी ही मुझसे गीत लिखवाना लोगों ने बन्द कर दिया’.

मगर, फूलों के रंग से, दिल की कलम से पाती लिखने वाले इस भावुक मन के चितेरे को कभी भी भुलाया नहीं जा सकेगा. उनकी कविताएं और गीत ऐसे ही दुखते मन को तसल्ली दे, भिगोते रहेंगे. शब्दों की नमी से अंदर-बाहर को गीला बनाते हुए. मैं आज भी, ‘तेरे मेरे सपने’ के पूरे साउंडट्रैक में खोया हुआ नीरज जी को बड़े अदब से याद करता रहूंगा…

यतीन्द्र मिश्र ‘लता सुरगाथा’ के लेखक हैं, और इस किताब के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला.

नीरज के निधन पर मुनव्वर राना ने कहा, “वे हिंदी और उर्दू के बीच एक पुल का काम करते थे। मुझमें जो भी थोड़ी सी तहजीब और शराफत है, वो मैंने गोपालदास नीरज से सीखी। मैं उनसे उम्र में बहुत छोटा हूं, इसके बाद भी वे हमेशा मुझसे भाई या आप कहकर ही बात करते थे। मुरादाबाद के एक कवि सम्मेलन में तीन-चार बड़े कवि शामिल हुए थे। जब नीरज जी को स्टेज पर हार पहनाया गया तो उन्होंने कहा कि पहले मुनव्वर को पहनाओ, फिर हमें पहनाना। जिस दिन मैंने साहित्य अकादमी पुरस्कार वापस किया था, उसके दूसरे या तीसरे दिन बाद ग्वालियर यूनिवर्सिटी के सम्मेलन में कविता पाठ था। वहां सिर्फ दो लोगों मुझे और नीरज को बुलाया गया था। मंच संचालन करने वाले ने कहा कि पहले मुनव्वर राना से कविता पढ़वाएंगे। नीरज जी ने कहा कि नहीं, पहले मैं पढ़ूंगा, बाद में आराम से बैठकर मुनव्वर जी को सुनूंगा। नीरज साहब के न रहने को बयां करता अजहर इनायती का शेर है- रास्तो! क्या हुए वो लोग, जो आते-जाते मेरे आदाब पर कहते थे, जीते रहिए। करीब 30 साल पहले की बात होगी मैं और नीरज जी एक ही फ्लाइट में दिल्ली जा रहे थे। मैंने उनसे पूछा कि कहां से आ रहे हैं नीरज भाई? उन्होंने कहा यार, जमशेदपुर में एक कार्यक्रम था। रातभर जागा हूं। दिल्ली उतरूंगा, वहां से अलीगढ़ जाऊंगा। मैंने कहा तो अलीगढ़ उतर जाइए। उन्होंने कहा कि रात होती तो अलीगढ़ में ही उतर जाता। एक बार अमेरिका गए तो उनसे किसी ने पूछा कि आपको वहां कैसा लगा? उन्होंने कहा कि अच्छा मुल्क है लेकिन मैं बहुत बुढ़ापे में यहां आया।”

स्व. नीरज के अमर गीतों की एक झलक

जिन गीतों के लिए मिले तीन फिल्म फेयर पुरस्कार :

काल का पहिया घूमे रे भइया (फिल्म : चंदा और बिजली, 1970)
बस यही अपराध मैं हर बार करता हूं (फिल्म : पहचान, 1971)
ए भाई! जरा देख के चलो (फिल्म : मेरा नाम जोकर, 1972)

ये गीत अाज भी हैं जुबां पर :

कहता है जोकर सारा जमाना, आधी हकीकत आधा फसाना…
रंगीला रे, तेरे रंग में क्यूं रंगा है मेरा मन…
शोखियों में घोला जाए फूलों का शबाब…
दिल आज शायर है, गम आज नगमा है, शब ये गजल है सनम…
आज मदहोश हुआ जाये रे, मेरा मन, मेरा मन…
लिखे जो खत तुझे, हजारों रंग के नजारे बन गये…
फूलों के रंग से, दिल की कलम से, तुझको लिखी रोज पाती…
मैंने कसम ली, हां मैंने कसम ली…
मेघा छाये आधी रात…
बैरन बन गयी निंदिया…
फूलों की बगिया महकेगी…

स्व. नीरज को लेकर राज्यसभा टीवी पर प्रसारित ये कार्यक्रम जरुर देखिये

https://www.youtube.com/watch?v=43uB7fRoChQ

एक निवेदन

ये साईट भारतीय जीवन मूल्यों और संस्कृति को समर्पित है। हिंदी के विद्वान लेखक अपने शोधपूर्ण लेखों से इसे समृध्द करते हैं। जिन विषयों पर देश का मैन लाईन मीडिया मौन रहता है, हम उन मुद्दों को देश के सामने लाते हैं। इस साईट के संचालन में हमारा कोई आर्थिक व कारोबारी आधार नहीं है। ये साईट भारतीयता की सोच रखने वाले स्नेही जनों के सहयोग से चल रही है। यदि आप अपनी ओर से कोई सहयोग देना चाहें तो आपका स्वागत है। आपका छोटा सा सहयोग भी हमें इस साईट को और समृध्द करने और भारतीय जीवन मूल्यों को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए प्रेरित करेगा।

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