अगर आप कभी भी रामायण का अनुशीलन करेंगे तो पाएंगे कि रामायण में मंथरा, सूर्पनखा, मारीच और कालनेमि आदि चरित्र लगभग समय-समय पर राम कथा में उपद्रव उत्पन्न करते रहते हैं और बिना इनके कोई भी रामकथा पूरी नहीं होती। इस प्रकार जब इस कलिकाल में राम जन्मभूमि का जीर्णोद्धार हो रहा है और आज की अयोध्या ने भारत के तमाम महानगरों के ऊपर अपना स्थान बना लिया है उसे कालखंड में भी ये कालनेमि पैदा होने लगे हैं। किसी को प्राण प्रतिष्ठा के कर्मकांड से चिढ़ है तो किसी को निमंत्रण न दिए जाने से।
कोई इसलिए नहीं जाना चाहता है की यजमान विप्र नहीं है तो किसी को राम के मांसाहारी होने के सबूत मिल गए हैं। वैसे होई हैं सोइ जो राम रचि राखा परंतु इन कालनेमियों ने अपनी उपस्थिति दर्ज कर दी है। आपको याद होगा की राम के राजतिलक के समय मंथरा के माध्यम से राम का राजतिलक वनवास में बदला और वनवास का जब आखिरी साल चल रहा था तो सूर्पनखा और मारीच रंग में भंग कर दिया। जब लक्ष्मण को शक्तिवाण लगा और हनुमान संजीवनी बूटी लाने जा रहे थे तब हनुमान को भरमाने का पूरा प्रयास कालनेमि ने किया।
आजकल बस वही हो रहा है। आज जब राम जन्मभूमि पर भव्य मंदिर चुका है और सारी तैयारियां पूरी हो चुकी है तो मंथराओं का विधवा विलाप जारी है और मारीच-कालनेमि सरीखा वामपंथी सेकुलर धड़ा स्वर्णमृग और मठाधीशों के रूप में लक्ष्मणरेखा पार करने के लिए रामभक्तों को सैकड़ों तर्क दे रहे हैं। राम राम शाकाहारी है या मांसाहारी , पूजा में बैठने वाला यजमान पक्ष ब्राह्मण है या क्षत्रिय वैश्य या शूद्र?
इससे क्या फर्क पड़ता है यजमान का वर्ण कितना महत्वपूर्ण होगा जब प्रभु राम ने निषाद से मित्रता की और शबरी के जूठे बेर खाए। अगर शबरी के झूठे बेर राम खा सकते हैं तो किसी अब्राह्मण के द्वारा पुनः प्रतिष्ठित होने में क्या बुराई है? राम की बाल मूर्ति स्थापित हो रही है तो क्या फर्क पड़ता है कि राम शाकाहारी है या मांसाहारी? क्योंकि बाल राम तो माता कौशल्या का दूध पीकर पल रहे होंगे। माँ का दूध शाकाहार है या मांसाहार ये मठाधीशों से क्या पूछना।
1100 सफल पुरानी सनातन पीठों के मठ प्रधान यदि राम लला की जन्मस्थली के जीर्णोद्धार सह मूर्ति प्ण प्रतिष्ठा के कर्मकांड से इतने आहत हैं तो उनसे एक सवाल है कि आज से 500-600 सफल पहले जब मीर बाकी राम जन्मभूमि का विध्वंश कर मस्जिद तामील कर रहा था तब इन पीठों पर आसीन आचार्य लोगों की मति मारी गई थी क्या जो एक आवाज तक न उठा सके उन्हें निर्माण काल में कोलाहल का अधिकार नहीं मिलना चाहिए ।
जब एक अभिनेत्री से नेत्री बनी मुख्य मंत्री ने जब शंकराचार्य को गिरफ्तार करवाया उस समय भी ये धर्मप्राण समूह मूक हीं रहा। सनातन में वैचारिक भिन्नता का सदैव सम्मान रहा है पर यदि तर्को की आड़ लेकर एक युगांतरकारी घटना का विद्रूपीकरण स्वीकार्य नहीं होना चाहिए।
जैसे अयोध्या, मथुरा और काशी के मंदिरों के अवशेषों पर बनी मस्जिदों पर अपना हक छोड़ कर सदाशयता दिखाने मौका जिसतरह इस्लामी धड़ा नहीं दिखा पाया वही प्रयास अयोध्या में मंदिर निर्माण सह प्राणप्रतिष्ठा में अपनी उपस्थिति दर्ज न करने की घोषणा करके ये मठाधीश कर रहे हैं।
गजवा ए हिंद की आशंका वाले दौर में पूर्ण सनातनी दिखता हुआ ऐसा प्रधानमंत्री संभव नहीं है। ईसाइयत और इस्लाम में तमाम धार्मिक मतभेदों के बावजूद उस परम तत्व गॉड या अल्लाह के नाम पर एकजुटत है कारण उन समाजोंने अपने अंदर सेक्युलर को पैदा नहीं होने दिया है पर आर्यावर्त के मनुष्यों पर शायद भगवान राम को भी विश्वास नहीं था। इसीलिए सीता के अन्वेषण और युद्ध के लिए उन्होंने वानर सेना पर मानव सेना से अधिक भरोसा जताया।
इतिहास इन का मूल्यांकन कालनेमि की तरह हीं करेगा।
तुलसीदास कह गए हैं. ..
जाके प्रिय न राम वैदेही।
तजहु ताहि कोटि वैरी सम
यद्यपि परम सनेही।