Saturday, April 27, 2024
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लोकतंत्र की मजबूती में संवैधानिक निकाय की भूमिका

विगत सप्ताह माननीय कपिल सिब्बल जी का लेख था कि सरकार संवैधानिक निकायों की भूमिका को सीमित कर रही है। कई समाचार पत्रों के माध्यम से पढ़ा कि सरकार लोकतंत्र की  हत्या कर रही है। इस तथ्य को राजस्थान में अपना जनादेश खोने  वाले कांग्रेस के लोकप्रिय  वरिष्ठ नेता राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमान अशोक गहलोत जी का कहना था। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष श्रीमान राहुल गांधी जी, कांग्रेस के वर्तमान अध्यक्ष श्रीमान खरगे जी, बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमान लालू प्रसाद यादव जी और वर्तमान मुख्यमंत्री का भी कहना है कि भारत में संवैधानिक निकायों, लोकतांत्रिक संस्थाओं और संसदीय संस्थाओं के अधिकार सीमित किए जा रहे हैं। संस्थानों पर सरकार के द्वारा राजनीतिक दबाव बनाया जा रहा है।

इन तथ्यों के आलोक में हम अवधारणाओं, आंकड़ों और तथ्यों के आधार पर इनका  एकेडमिक,तुलनात्मक संवैधानिक परीक्षण और अवलोकन करते हैं। भारत में लोकतंत्र के विशालता इस तथ्य से प्रकट होती है कि जी-20 के सम्मेलन के दौरान सभी राष्ट्र – राज्यों के राष्ट्रध्यक्ष और  शासकाध्यक ने भारत को लोकतंत्र की जननी के रूप में स्वीकार किया है ।भारत में 140 करोड़ मतदाताओं के मत व्यवहार के कारण भारत का लोकतंत्र संसार का सर्वाधिक वृहद लोकतंत्र है। भारत की जनता अपने शासन की अनन्य  भाग है। इसको सरकार ने विधेयकों के प्रारूप पर जनमत की प्रतिक्रिया लेकर जनता के शासकीय मूल्य का सम्मान किया है। अनेक अकादमिक  शोधों  और समूह अध्ययनों से पता चला है कि समूह में लिए गए निर्णय व्यक्तिगत स्तर पर लिए गए निर्णय की तुलना में लोकतांत्रिक, बेहतर, संतुलित और लोक कल्याणकारी होता है।

वर्तमान सरकार के प्रत्येक निर्णय कैबिनेट( उच्चतर स्तर के कार्यपालिका), रसोई घर केबिनेट( किचेन कैबिनेट) की मंत्रणा पर लिए जाते हैं। कैबिनेट के निर्णय लोकतांत्रिक ,बेहतर, मूल्य आधारित और  लोकोपयोगी  होते हैं।  लोकतांत्रिक शासकीय व्यवस्था में सरकार के महत्वपूर्ण और आवश्यक तीन अंग होते हैं। विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। विधायिका का मौलिक पहचान विधि/ कानून निर्माण की निकाय है, जो निर्वाचित निकाय है। कार्यपालिका का मौलिक पहचान विधियों  का क्रियान्वयन है जो पूर्णतः लोकतांत्रिक है। सभी मंत्री निर्वाचित (प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से हैं ) और न्यायपालिका का मौलिक पहचान विधियों  की न्यायिक निर्वाचन से है।( एनजेएससी को असंवैधानिक करार करना, राम मंदिर पर निर्णय  और अनुच्छेद 370 पर संवैधानिकता)  देकर न्यायपालिका ने अपनी न्यायिक स्वंत्रत हैसियत को प्रमाणित किया है। लोकतंत्र के अंतर्निहित सिद्धांत और संरचनात्मक  उपादेयता के कारण लोकतांत्रिक मूल्य और आदर्शों को स्थापित करने, उनकी रक्षा करने और उन्हें बनाए रखने के लिए संवैधानिक निकायों की अत्यंत आवश्यकता होती है।

सर्वाधिक लोकतांत्रिक निकाय विधायिका है जो विधि बनाती  है। लोकतंत्र का आशय है कि लोग उन कानून द्वारा  शासित होंगे जिनके निर्माण में उनकी महत्वपूर्ण उपादेयता  रही है। विधायिका( संसद ) के निर्वाचित सदस्य ,जिन्हें जनता ने चुना है, जनता के लिए विधायन  बनाते हैं। इस प्रकार एक निर्वाचित विधायिका( विधान मंडल/ व्यवस्थापिका/ विधान पालिका) लोकतंत्र के मजबूती में महत्वपूर्ण निकाय है, जो बहुत से निर्णय लेने वाली निकाय के रूप में अपनी उपादेयता, प्रासंगिकता एवं लोकतांत्रिक सार को बनाए रखने में भूमिका निभा रही है ।”भारत की विधायिका सफलता की कहानियों में से एक है। इसने एक  विविधिकृत राष्ट्र- राज्य को एकता में पिरोया है और अतीत में लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरों का  सामना किया है ।यह लोकतांत्रिक संस्कृति के उन्नयन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाया है।”

लोकतंत्र की सफलता के लिए ,संघात्मक शासन के लिए ,नागरिकों के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए ,केंद्रीय इकाई और राज्य इकाई के बीच उत्पन्न विवादों के लिए, राज्य के प्रमुख, संवैधानिक प्रमुख और राष्ट्रध्यक्ष के निर्वाचकीय  विवाद को सुलझाने के लिए एक स्वतंत्र, निष्पक्ष और राजनीतिक दबावविहीन  न्यायपालिका आवश्यक है। व्यक्ति के मौलिक अधिकारों को  ताकतवर विधायिका, भौकाली कार्यपालिका और समाज के दबंग और असामाजिक  तत्वों से सुरक्षा न्यायपालिका ने दिया है। भारत के संविधान के भाग – 3 में मौलिक अधिकारों का वर्णन है ,जिसे मैग्नाकार्टा(अधिकारों का  महान घोषणा पत्र) कहा जाता है। न्यायपालिका ने अतीत से वर्तमान तक इन मौलिक अधिकारों की संरक्षा करके संविधान की संरक्षक की भूमिका को निभाया है। न्यायपालिका लोकतंत्र की मेरुरज्जु है। न्यायपालिका संप्रभुता संपन्न राज्य की तरफ से कानून का उचित आशय निकलती है। कानून की अवज्ञा करने वाले को दंड निर्धारित करती है। मौलिक अधिकारों की अतिक्रमण की दशा में  निदेश/संवैधानिक रिट निकालकर  नागरिकों के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा करती है। केंद्र और राज्यों के बीच उत्पन्न विवाद का निस्तारण करके सामाजिक सद्भाव बनाती है। इस तरह भारत की न्यायपालिका वैश्विक स्तर की सबसे शक्तिशाली  न्याल्यायों में से एक है।

विधि का शासन हमारी लोकतांत्रिक शासकीय  प्रणाली में गहराई से अंतर्निहित  है ।भारत के निर्वाचन आयोग और संघ लोक सेवा आयोग को संवैधानिक स्थिति प्रदान किया गया है। स्थायित्व  का तत्व इन निकायों में आने वाले लोगों के कार्यों और आकांक्षाओं में स्थिरता और पूर्वानुमेता प्रदान करता है। यह सभी विधि के शासन की आवश्यक विशेषताएं हैं जिसे प्रत्येक लोकतांत्रिक प्रणाली  स्थापित करना चाहती है । विधि के शासन में विधि सर्वोच्च है।प्रत्येक नागरिक ,व्यक्ति और निकाय  इसके अधीन है,और विवेकसम्मत और मनमाने निर्णय की मनाही है।लोकतंत्र में एक भी व्यक्ति और नागरिक  को लगता है कि  उसको क्षति पहुंचाई जा रही है,तो वह उक्त विधि को न्यायालय में चुनौती दे सकते है।

इस प्रकार संवैधानिक निकाय और लोकतांत्रिक निकाय विधि के शासन को सुरक्षित और संरक्षित करते हैं और इन निकायों की स्वतंत्रता का उन्नयन करके लोकतंत्र के मजबूती का उन्नयन करते हैं। लोकतंत्र में वैद्यता से आशय है कि कोई भी कार्य उचित और वैध  है जिसके पीछे लोक की इच्छा शक्ति है। राज्य का आधार बल नहीं ,बल्कि लोक की इच्छा शक्ति है। इस तरह उपयुक्त आंकड़ों, तथ्यों और अवधारणाओं से स्पष्ट है कि लोकतांत्रिक निकाय वर्तमान सरकार में बलवती, स्वायत्त और संवैधानिक दायरे में मजबूत है।

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