सावरकर समर्थकों को पूरा भरोसा था कि इस बार उन्हें भारतरत्न से जरुर सम्मानित किया जाएगा। इस संबंध में शिवसेना ने मांग की थी, परंतु ऐसा न किए जाने से वे लोग निराश है। उनका मानना है कि देश की आजादी के लिए जितना कष्ट सावरकर ने भोगा है उसकी तुलना में कांग्रेसी नेताओं का योगदान तो कुछ भी नहीं रहा। जिंदगी का बहुत लंबा हिस्सा उन्हें कालापानी में बिताना पड़ा था।
दामोदर वीर सावरकर का गुनाह सिर्फ यह है कि उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य से देश को मुक्त करवाने के लिए अपना सर्वस्व दांव पर लगाया। कौन है ऐसा कांग्रेसी नेता जिसने 30 वर्ष तक जेलों में नारकीय जीवन व्यतीत किया हो, बैल की तरह कोल्हू चलाया हो। सावरकर क्योंकि गांधीवाद के विरोधी थे इसलिए आजादी के बाद भी नेहरू ने उन्हे मान नहीं दिया। सच तो यह है कि देश की आजादी के बाद जो वर्ग सत्ता में आया उसने आजादी का सारा श्रेय गांधी को दे दिया। क्रांतिकारियों की घोर उपेक्षा की गई। इतिहास की पुस्तकों से चुन-चुनकर उनके नामों को मिटाया गया।
देशवासियों को यह आशा थी कि जब केन्द्र में कोई गैर-कांग्रेसी सरकार सत्ता में आएगी तो देश के इस महानतम सपूत को शायद न्याय मिले। पर चाहे अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार हो या नरेन्द्र मोदी की सरकार दोनों ही वोटों की राजनीति के मकडज़ाल में उलझी हुई हैं। एक वर्ग विशेष के वोट बैंक को प्राप्त करने के लिए भीमराव अम्बेडकर को महिमामंडित करने की होड़ लगी हुई है। हद तो यह है कि इस बार गणतंत्र दिवस की परेड में अम्बेडकर की एक विशेष झांकी निकालने से भी गुरेज नहीं किया गया है। अपनी जगह यह रिकार्ड है कि अम्बेडकर एक विवादित व्यक्ति रहे हैं। उनके तार ब्रिटिश शासकों से जुड़े हुए थे। देश के स्वतंत्रता संग्राम में उनका नगण्य योगदान था। ऐसे कई नेताओं को आजाद भारत ने मान-सम्मान दिया मगर वीर सावरकर को नहीं तो वजह समझना मुश्किल नहीं है।
सावरकर की प्रतिभा बहुमुखी थी। वे चोटी के क्रांतिकारी, कुशल वक्ता, बेजोड़ इतिहासकार, श्रेष्ठ कवि एवं समाज सुधारक थे। उनकी जोड़ का व्यक्ति हजारों वर्षों के बाद कभी विरला ही पैदा होता है। वह भारत के पहले क्रांतिकारी थे जिन्होंने विदेशी धरती से भारत की स्वतंत्रता के लिए शंखनाद किया। वह पहले भारतीय थे जिनकी पुस्तकें प्रकाशित होने से पहले ही जब्त कर ली गईं। वह मात्र एक ऐसे क्रांतिकारी हैं जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने दो जन्मों अर्थात् 51 वर्ष की कारावास की सजा दी थी।
सावरकर को देशभक्ति और क्रांतिकारी विचारधारा अपने परिवार से विरासत में मिली थी। उनके बड़े भाई गणेश दामोदर सावरकर को भी क्रांति का सिंहनाद करने के आरोप में ब्रिटिश सरकार ने आजीवन कारावास की सजा दी थी। छोटे भाई नारायण दामोदर सावरकर भी भारत की आजादी के लिए कई बार जेल गए थे। अपने लन्दन प्रवास के दौरान उन्होंने सन् 1857 में हुए संघर्ष पर एक पुस्तक ‘भारत का स्वतन्त्रता संग्राम 1857 लिखी। अभी यह पुस्तक प्रकाशित भी नहीं हुई थी कि ब्रिटिश सरकार ने उस पर प्रतिबंध लगा दिया।
वह पहले ऐसे व्यक्ति थे जिनको बैरिस्टर की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बावजूद अंग्रेजों ने बैरिस्टर की डिग्री देने से इन्कार कर दिया था क्योंकि वे ब्रिटिश ताज के प्रति निष्ठा का शपथ पत्र देने के लिए तैयार नहीं थे। यह पुस्तक देशभर के स्वतन्त्रता सेनानियों के लिए गीता बनी।
सावरकर की क्रांतिकारी गतिविधियों से ब्रिटिश साम्राज्य में भूकम्प मच गया। अंग्रेज सरकार ने उन्हें गिरफ्तार करके जलयान द्वारा भारत भेजना चाहा ताकि उन पर सरकार के खिलाफ विद्रोह करने के आरोप में मुकद्दमा चलाया जा सके। सावरकर इस जहाज से कूदकर 80 मील समुद्र में तैरते हुए फ्रांस पहुंचे। उन्हें विश्वास था कि फ्रांस उन्हें अंग्रेजों को नहीं सौंपेगा। मगर दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ। उन्हें भारत लाया गया। उन पर दो मुकद्दमे चलाए गए। जिनमें उन्हें 51 वर्ष की सजा देने के बाद वर्ष 1911 में काले पानी भेज दिया गया।
यहां उनके बड़े भाई पहले से ही आजीवन कारावास की सजा काट रहे थे। अंडमान स्थित सेलुलर जेल में भारतीय क्रांतिकारियों के साथ अत्यन्त कठोर अमानवीय व्यवहार किया जाता था। उन्हें एक-एक बून्द पानी और एक-एक ग्रास रोटी के लिए तरसाया जाता था। कोल्हू में बैल की तरह उन्हें जोतकर हर रोज 30 पौंड नारियल का तेल निकालने की सजा दी गई थी। अंग्रेजों के अत्याचार से त्रस्त उनके मन में आत्महत्या तक का विचार आया। किन्तु उन्होंने इस भावना को दूर करने के लिए जेल की काल कोठरी की दीवारों पर कांटों से कविता लिखने जैसे तरीकों से वक्त गुजारा।
वीर सावरकर काले पानी में पहले ऐसे कैदी थे जिन्होंने कालकोठरी की दीवारों पर कंकर-कोयले से कविताएं लिखीं और उनकी 6 हजार पंक्तियों को याद रखा। वह ऐसे देशभक्त थे जिनकी लिखी हुई अनेक पुस्तकों पर आजादी के बाद भी नेहरू सरकार ने वर्षों तक प्रतिबंध लगाए रखा। सावरकर ने 30 वर्ष ब्रिटिशकाल में और 7 वर्ष नेहरू के शासनकाल में जेल में व्यतीत किए। जब 26 फरवरी, 1966 को उनका निधन हुआ तब भारतीय संसद में कुछ सांसदों ने जब शोक प्रस्ताव पेश करना चाहा तो कांग्रेसियों ने यह कहकर उसका विरोध किया कि वह इस संसद के सदस्य नहीं थे। यह अलग बात है कि बाद में कांग्रेसी सांसदों ने भारत की गुलाम चाहने वाले ब्रिटेन के प्रधानमंत्री चर्चिल की मौत पर इसी संसद में विधिवत शोक प्रस्ताव पारित किया। सावरकर ऐसे राष्ट्रवादी विचारक थे कि उनके चित्र को जब संसद के सैंट्रल हॉल में लगाने का वाजपेयी सरकार ने प्रयास किया तो उसका विरोध श्रीमती सोनिया गांधी ने राष्ट्रपति को पत्र लिखकर किया। शर्म की बात है कि कांग्रेसी सरकार ने काले पानी स्थित हवाई अड्डे का नाम करण वीर सावरकर के नाम पर करने के प्रस्ताव भी नहीं माना।
हो सकता है कि सावरकर की उपेक्षा की एक वजह यह हो कि वे जितना कांग्रेस से नफरत करते थे, उतना ही जनसंघ से भी चिढ़ते थे। यह बात अलग है कि जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी पहले हिंदू महासभा के ही सदस्य थे। वे मुस्लिम लीग को भी नापसंद करते थे पर उनकी पार्टी ने 1943 में लीग के साथ नार्थ वैस्ट फ्रंटियर प्रेविंस में उसके साथ मिलकर सरकार बनायी थी जिसमें मेहरचद खन्ना वित्तमंत्री थे। ये वही है जिनके नाम पर लोदी रोड में मेहरचंद मार्केट है। ब्राम्हण होने के बावजूद वे जाति व्यवस्था के खिलाफ रहे। स्वतंत्रता आंदोलन में इतनी अहम भूमिका निभाने के बाद भी उन्होंने भारत छोड़ों आंदोलन का समर्थन नहीं किया था। वे महात्मा गांधी के सख्त खिलाफ थे क्योंकि उनका मानना था कि बापू ने भगत सिंह को फांसी चढ़ने से बचाने की कोशिश नहीं की और वे अपनी हरकतों से अंग्रेजों को ज्यादा लाभ पहुंचाते थे।
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