उज्जैन के एक राजा हुए है, भरथरी। उन्होंने गुरु गोरखनाथ के सानिध्य में राज्य और संपत्ति त्याग कर सन्यास धारण किया। उन्होंने संस्कृत में कई उपदेश कहानियां लिखी और भर्तृहरि के नाम से प्रसिद्ध हुए। नीतिशतक, श्रृंगारशतक, वैराग्यशतक उनकी हिबलिखी हुई संस्कृत कृतियाँ हैं। पहले गांवों में उनके जीवन पर कई सारे नाट्य किए जाते थे।
मेरठ में एक जमींदार हुए है, चौधरी लटूरी सिंह। उनको अभिनय का बड़ा शौक था। हर चौमास वो नाटक मंडली गांव में बुलवाते और नाट्य कलाकारों के साथ खुद भी मंच पर अभिनय करते। एक बार उन्होने नाट्य मंडली बुलवाई और राजा भरथरी का नौ दिन का नाट्य मंचन शुरु हुआ। राजा भरथरी का अभिनय खुद चौधरी लटूरी सिंह कर रहे थे। आठ दिन का नाट्य समाप्त हो चुका था। आठवें दिन घर पर भोजन करते हुए लटूरी सिंह ने अपनी पत्नी से कहा कि कल नाट्य का अंतिम दिन है, तुम नाट्य देखने मत आना।
नौंवें दिन मंच पर नाट्य शुरू हुआ। लटूरी सिंह के बेटे बेटिंयाँ बहुएं सभी नाट्य देखने जा चुके थे। पत्नी घर पर अकेली रह गई। रह रह कर मन में संदेह के बादल घुमड़ने लगते। आखिर मुझे मंच पर आने से क्यों रोका, कोई तो बात है जो मुझसे छुपाई जा रही है। पति मना करे और पत्नी मान जाए ऐसी पत्नियाँ तो रामायण काल मे भी न थी तो चौधराइन ने दरवाजे में कुंडी लगाई और मंच के सामने न जाकर रिश्ते में जेठानी लगने वाली महिला के घर की छत पर जाकर नाट्य देखने लगी। उधर मंच पर राजा भरथरी के सन्यास लेने का दृश्य चल रहा था। भरथरी बने लटूरी सिंह ने राज वस्त्र उतार कर भगवा धारण किया और डॉयलॉग बोलने लगे, ” मैं अपने हृदय में बसे भगवान शंकर, अग्नि और जल को साक्षी मानकर ये सौगंध लेता हूँ कि इसी वक्त से हर तरह की संपत्ति, राज्य, सिंहासन आदि का त्याग करता हूँ। मेरी कोई सम्पत्ति नहीं है, मेरा कोई बेटा नहीं, मेरी कोई बेटी नहीं है, मेरी कोई पत्नी नहीं है। यहां उपस्थित सभी स्त्रियाँ मेरी मां है।
तभी लटूरी सिंह की भाभी छत से चिल्लाई, ओए लटूरी तेरी लुगाई इधर बैठी है। सब लोग हंसने लगे। नाट्य की समाप्ति के बाद सभी कलाकारों ने अपने वस्त्र चेंज किए लेकिन लटूरी सिंह भगवाया धारण किए रहे। उन्होने अभिनय के लिए प्रयोग में लाया जाने वाला भिक्षा पात्र उठाया औऱ सीधा अपने घर के दरवाजे पर पहुँचे। आवाज़ लगाई, भिक्षा दो माता। भीतर से पत्नी निकल कर आई, अरे अभी तक आपने वस्त्र नही बदले। भीतर आइए, वस्त्र बदलिए तब तक मैं भोजन लगा देती हूँ। लटूरी सिंह बोले, *मैंने तुम्हें वहाँ आने से मना किया था क्योंकि जब मैं अभिनय करता हूँ तो मेरे भीतर शंकर स्वयं उपस्थित होते है।* आज से तुम मेरी माता समान हो और मैंने संन्यास ले लिया है। पत्नी रोने लगी , बच्चों ने मनाने का प्रयास किया मगर वो असफल रहे। चौधरी लटूरी सिंह ने गृहस्थ का त्याग कर दिया औऱ महात्मा लटूरी सिंह के नाम से जाने गए। उनका नाम आर्य समाज के बड़े और अग्रणी प्रवाचकों में लिया जाता है।
मेरठ, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, गाज़ियाबाद, बुलंदशहर में चालीस से ज्यादा इंटर कॉलेज, डिग्री कॉलेज, आईटीआई कॉलेज, इंजीनियरिंग कॉलेज, मेडिकल उनके बनवाये हुए हैं। वहाँ प्रवेश द्वार पर बड़े बड़े अक्षरों में लिखा है, इस कॉलेज का निर्माण महात्मा लटूरी सिंह जी ने करवाया है। महात्मा लटूरी सिंह हिन्दू थे, योगी थे, सन्यासी थे और वो जीवन भर स्कूल बनवाते रहे। उन्होंने कभी इस किसी मंदिर के सामने बैठकर चरस फूंकते हुए ढपली बजाकर ये आरआर नहीं किया कि इस मंदिर के बजाय स्कूल बनना चाहिए था। उन्होंने सरकार को नही कोसा बल्कि वो उठे और उन्होंने अपनी संपत्ति से भिक्षा से दान से स्कूल बनवाये।
है कोई एक उदाहरण जिसमे दिन रात स्कूल का रोना रोने वाले किसी ढपलीबाज़ वामपंथी या किसी स्यूडो फेमिनिस्ट ने अपनी सम्पत्ति बेचकर या चंदे से एक प्राईमरी स्कूल भी बनवाया हो…??
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