पाकिस्तान में मानवता के हत्यारों का ख़ूनी खेल अब इस स्तर तक पहुंच गया है कि दुनिया के किसी भी कोने में यदि किसी प्रकार की आतंकी घटना की सूचना मिले तो प्रथम दृष्ट्या यही प्रतीत होगा कि यह घटना पाकिस्तान में ही घटी होगी। इस देश के हालात अब ऐसे हो चुके हैं कि छोटी-मोटी आतंकी घटनाओं या आत्मघाती हमलों का समाचार प्रसारित करना ही विश्व मीडिया ने लगभग छोड़ दिया है। 16 दिसंबर 2014 को पेशावर के सैनिक स्कूल में हुए उस आतंकी हमले के बाद जिसमें स्कूल के 132 मासूम बच्चों सहित कुल 145 लोग मारे गए थे हालांकि सामूहिक हत्याओं व बड़े आत्मघाती हमलों की कई वारदातें ‘नापाक’ में घट चुकी हैं। परंतु गत् 16 फ़रवरी को पाकिस्तान के दक्षिणी सिंध प्रांत के सेहवन नगर में स्थित मशहूर सूफ़ी संत लाल शाहबाज़ क़लंदर की दरगाह पर एक आत्मघाती हमला किया गया। हमलावरों ने वीरवार का दिन इसीलिए चुना क्योंकि उस दिन आमतौर पर दरगाहों में काफ़ी भीड़ होती है। इस हमले में अब तक 90 से अधिक लोगों के मारे जाने का समाचार है जबकि 150 लोग घायल अवस्था में अस्पताल में भर्ती हैं।
गौरतलब है कि यह वही मशहूर सूफ़ी संत की दरगाह है जिसका जि़क्र विश्व प्रसिद्ध अमर क़व्वाली-दमादम मस्त क़लंदर में किया गया है। संत शाहबाज़ क़लंदर ने अपने एक शेर में ख़ुद ही फ़रमाया था कि-‘तू आंँ क़ातिल की अज़ बहर-ए-तमाशा ख़ून-ए-मन रेज़ी। मन आँ बिस्मिल की ज़ेर-ए-ख़न्जर-ए-खूँख़्वार मी रक़सम। फ़ारसी के इस शेर का अर्थ है कि तू वह क़ातिल है कि मेरे तमाशे के लिए मेरा ख़ून बहाता है और मैं वह बिस्मिल हूं कि खूँख़्वार ख़न्जर के नीचे भी रक़्स(नृत्य)करता हूँ। निश्चित रूप से शाहबाज़ क़लंदर की दरगाह पर किए गए इस हमले ने न केवल सेहवन शहर बल्कि सखी शाहबाज़ क़लंदर की दरगाह को भी एक बार पुन: जीवंत कर दिया है।
बहरहाल, पाकिस्तान की सेना ने इस वहशियाना हमले के बाद एक बार फिर करवट ली है और पाक स्थित चरमपंथियों के विरुद्ध ‘रद्द-उल-फ़साद’ नामक एक नया अभियान शुरु करने की घोषणा की है। इसके पूर्व पेशावर स्कूल हमले के बाद भी जून 2015 में पाकिस्तान की फौज ने उत्तरी वज़ीरिस्तान में ज़र्ब-ए-अज़्ब नामक अभियान चलाया था। इस अभियान में सैकड़ों चरमपंथी मारे गए थे। और अब शाहबाज़ क़लंदर जैसे महान फकीर की दरगाह पर हुए हमले के बाद सेना ने पुन: आतंकवादियों के विरुद्ध कमर कसने का निश्चय किया है। ज़ाहिर है इस आप्रेशन में भी कुछ न कुछ आतंकियों के मार गिराए जाने की संभावना है। परंतु आतंकियों की वारदातें न तो पहले ऑप्रेशन के बाद रुकी थीं न ही वर्तमान रद्द-उल-फ़साद के बाद रुकने की संभावना है। सवाल यह है कि आिखर ऐसी क्या वजह है कि हज़ारों आतंकियों के मारे जाने के बावजूद आतंकवादियों की संख्या उनके हौसले तथा आतंकी घटनाओं में दिन-प्रतिदिन और इज़ाफा होता जा रहा है?
इतना ही नहीं बल्कि इस प्रकार के हादसों का स्तर भी पहले से भयानक व बड़ा होता जा रहा है? हद तो यह है कि अब पाक स्थित आतंकवादी विभिन्न आतंकी संगठनों के नाम से सीधे तौर पर पाक सेना को ही चुनौती दे रहे हैं। सैन्य छावनी,सैन्य चौकी,एयरवेज़ तथा सैन्य स्कूलों व सेना की गाडिय़ों व कािफलों को निशाना बनाया जाना सीधे तौर पर पाक सेना को आतंकवादियों द्वारा चुनौती देना है। और यहां यह कहने में भी कोई हर्ज नहीं कि अनेक आतंकवाद विरोधी आप्रेशन चलाए जाने के बावजूद पाक सेना की आतंकियों के विरुद्ध अपनी पकड़ अब कमज़ोर होने लगी है। इसका सुबूत यह है कि पाकिस्तान के पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल राहिल शरीफ़ व अन्य जि़म्मेदार पाकिस्तान हुक्मरानों की ही तरह पाक के नए सेनाध्यक्ष जनरल क़मर बाजवा ने भी यह स्वीकार किया है कि स्वदेशी चरमपंथ पाकिस्तान के लिए बड़ा ख़तरा है न कि कोई विदेशी ताकत।
ऐसे में जबकि पाकिस्तानी शासक अपने ही देश में फल-फूल रहे चरमंथ व आतंकवाद को ही देश के लिए सबसे बड़ा खतरा मानते हैं फिर आिखर इस समस्या की जड़ों पर प्रहार क्यों नहीं करते? प्रत्येक आतंकी घटना के बाद किसी नए आप्रेशन को अंजाम देकर चंद लोगों को या आतंकियों को मार गिराना तो निश्चित रूप से समस्या को जड़-मूल से ख़त्म करना क़तई नहीं है। यह कार्रवाई तो वैसी ही है जैसे कि किसी पेड़ से पत्तों को झाडऩा और शाख़, तना व जड़ें वैसी की वैसी छोड़ देना। नतीजतन आतंकवादियों के रूप में पत्ते पुन: हरे हो जाते हैं। और नतीजे में आतंकवादियों की संख्या पहले से अधिक बढ़ती जा रही है और हमलों में भी दिन-प्रतिदिन इज़ाफा होता देखा जा रहा है। दरअसल पाकिस्तान में चरमपंथ की समस्या एक वैचारिक रूप से फैलने वाले ज़हरीले प्रदूषण का रूप ले चुकी है। इसकी जड़ें वहां की कई मस्जिदों व कई मदरसों से लेकर संसद,सेना,आईएसआई तथा अदालतों तक पहुंच चुकी हैं। ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो,बेनज़ीर भुट्टो से लेकर सलमान तासीर तक की हत्या में वही वैचारिक प्रदूषण के अंश शामिल हैं। यहां यह कहना गलत नहीं होगा कि जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ ने इस्लामबाद की मशहूर लाल मस्जिद में 3 जुलाई से लेकर 11 जुलाई 2007 तक चलाए गए 8 दिन के आप्रेशन सनराईज़ को अंजाम देकर चरपंथ की जड़ पर प्रहार करने का प्रयास किया था। इस आप्रेशन में 84 लोग मारे गए थे जिसमें मस्जिद का एक सरगना भी शामिल था।
दरअसल ऐसे ही ठिकानों से जिहाद की परिकल्पना परवान चढ़ती है। ऐसे ही ठिकानों पर ओसामा बिन लाडेन,मुल्ला उमर व हाफ़िज़ सईद जैसे हज़ारों ज़हर फैलाने वाले ‘उपदेशक’ पनपते हैं जो बेरोज़गार,अशिक्षित तथा कम उम्र के युवकों को जन्नत वाया जिहाद का मार्ग दिखाकर उन्हें मरने व मारने के लिए मानसिक रूप से तैयार करते हैं। ज़ाहिर है हाफ़िज़ सईद व मसूद अज़हर जैसी मानवता विरोधी ताक़तें घूम-घूम कर पूरे पाकिस्तान में इसी जिहाद का प्रचार करती हैं तथा लोगों को गुमराह करती फिरती हैं। परंतु इन लोगों के पाक सत्ता में रसूख़ इतने गहरे हैं कि इन पर हाथ उठाना भी कोई आसान बात नहीं है। यहां यह याद रखना भी ज़रूरी है कि चाहे ओसामा बिन लाडेन हो या सद्दाम हुसैन या फिर अबु बकर अल बग़दादी जैसा खूँख़्वार आईएस प्रमुख। इन सभी ने अपने को पश्चिमी ताक़तों से घिरा हुआ देखकर पूरी दुनिया के मुसलमानों से जिहाद करने व जिहाद के नाम पर इकठ्ठा होने का आह्वान बार-बार किया है।
ज़ाहिर है जिहाद की यह अवधारणा किसी स्कूल की पाठय पुस्तक में या सांसारिक शिक्षा जगत में नहीं बल्कि इन्हीं कठमुल्लाओं की सरपरस्ती में इसका ग़लत अनुवाद कर व इसकी ग़लत व्याख्या बताकर दी जाती है। आज दुनिया जिहाद के उन अर्थों को समझने को तैयार नहीं है जो उदारवादी मुसलमानों द्वारा जद्दोजेहद या आंखों का जेहाद अथवा मस्तिष्क के जिहाद के रूप में बताई जाती है। यदि ऐसा होता तो हिज़बुल मुजहिद्दीन जैसे संगठन या अफ़गानिस्तान के मुजाहिदीन हथियार लेकर घूमने के बजाए लोगों को ज़बानी जद्दोजहद करने की ही सीख देते फिरते। परंतु आतंकियों का जेहाद सशस्त्र जिहाद है और जब तक यह अवधारणा क़ायम रहेगी और इन्हें खुली छूट मिलती रहेगी तब तक बड़ी से बड़ी आतंकी घटनाओं को रोक पाना संभव नहीं हो सकेगा। अत: पाकिस्तानी सेना को केवल आप्रेशन रद्द-उल-फ़साद चलाने मात्र से ही यह नहीं समझना चाहिए कि आतंकियों का वह सफ़ाया कर सकेगी बल्कि इसके साथ-साथ रद्द-उल-जिहाद जैसे आप्रेशन की भी सख़्त ज़रूरत है।
Tanveer Jafri ( columnist),
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