Wednesday, December 25, 2024
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मोपला नरसंहार की शताब्दी : क्या गांधीवादियों के पास इन सवालों के जवाब हैं?

उनके इतिहास बनाने की रसोई होती थी या कारख़ाना ? वे दंगों को rebellion कह लेते थे और 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को पहली बार ऐसा कहने वाले को वे लगातार सांप्रदायिक भी उसी साँस में कहते चलते थे। इस बंदे को वे क्या इसलिए माफ़ न कर सके कि इसने म्यूटिनी के नाम से चस्पाँ कर दी गई चीज़ को आज़ादी की लड़ाई के रूप में देखा?

जबकि आज तो आपके गुर्गे छोटी छोटी चीज़ों पर आज़ादी एंथम गाते फिरते हैं।

यानी आपकी सोच तो यह है कि जहां हिंदू मुसलमान कंधे से कंधा मिलाकर एक विदेशी ताक़त से लड़े वह हुई म्युटिनी। वह स्वतंत्रता संग्राम न हुआ। और जहाँ मोपलाओं ने उसी राष्ट्र के दूसरे समुदाय को एक ऐसी चीज़ के लिए तमाम क़िस्म के सबसे बीभत्स ज़ुल्मों का शिकार बनाया, जिसका उससे दूर दूर तक सम्बन्ध न था तो वह हुई rebellion और स्वतंत्रता संग्राम।

ऐसी बुद्धि कहाँ से पाते हो, प्रभु। पा भी लेते तो ठीक था, तुम तो उसका आधिकारिक वितरण करते चले आए।

20 अगस्त 2021 को मोपला नरसंहार के सौ साल हुए पर क्या आज अफ़ग़ानिस्तान के ‘विद्यार्थियों’ के तौर तरीक़ों में मोपला क्रूरकर्माओं के रंगढंग की अनुकृति नज़र नहीं आती? उस समय भारत से 18000 बंदों ने अफ़ग़ानिस्तान को रुख़ किया था, यह सोचकर कि यह हिंदुस्तान तो काफ़िरों की ज़मीन है। आज उसकी शताब्दी पर जब उसी अफ़ग़ानिस्तान से लोग हिंदुस्तान आ रहे हैं, घड़ी का काँटा पूरा घूम गया लगता है।

पर यह भी दिलचस्प है कि एक चौरीचोरा थाने की घटना अपनी तत्कथित हिंसा के आधार पर असहयोग आंदोलन रोकने का आधार बनी, लेकिन मालाबार के इस नरसंहार को उसे रोकने का आधार क्यों न बनाया गया? वह एक दिन की घटना थी, यह जेनोसाइड एक साल चला था। वह एक थाने की घटना थी, यह एक प्रांत की। उसमें २२ पुलिसवाले मारे गये थे, इसमें १०,००० से ज़्यादा लोग। वह ४ फ़रवरी १९२२ को हुई थी और यह नरसंहार २० अगस्त १९२१ से शुरू हो गया था।असहयोग आंदोलन ४ सितंबर १९२० से शुरू हुआ था।

माने ब्रिटिश प्रशासन के विरुद्ध हुई हिंसा हिंसा थी और अपने ही देशवासियों के विरुद्ध कत्लोगारत से लेकर बलात्कार और गर्भवती स्त्रियों के पेट चीर देना हिंसा न थी? दंगे हिंसा नहीं होते थे क्या? यदि ख़िलाफ़त के बाहरी मुद्दे का आयात कर यहाँ असहयोग आंदोलन में उसका मिश्रण कर दिया गया था, तब ख़िलाफ़त के उसी मुद्दे को लेकर यहाँ स्थानीय भारतीय जनता के विरुद्ध यह Holocaust क्या असहयोग आंदोलन पर पुनर्विचार का सबब न बनाता था? चौरीचौरा को तो तत्कालीन भारतीय नेतृत्व ने सिर्फ़ सुना और पढ़ा था, मालाबार को तो विज़िट किया था। यहाँ एक थाने की बात थी, वहाँ तो कई थाने, कोर्ट्स, ट्रेज़रीज़, सरकारी कार्यालयों में जमकर हिंसा हुई थी। तब तो नेतृत्व ने यह कहा था कि ‘मुस्लिम अहिंसक असहयोग आंदोलन की विफलता की स्थिति में वे सब तौर तरीक़े इस्तेमाल करने के अधिकार रखते हैं जो इस्लामी शास्त्रों में बताये गये हैं।’ यह सवाल ही रहेगा कि ये अधिकार तब भगतसिंह आदि के लिये क्यों वर्जित मान लिये गये थे?

जब ख़िलाफ़त के सवाल को असहयोग आंदोलन में मिलाने का समझौता अली ब्रदर्स से हुआ तो सौदेबाज़ी गौसंरक्षण की करने में क्या बुराई थी? लेकिन एकतरफा सांप्रदायिक मुद्दा असहयोग की प्रेरणा बन बैठा। बहुसंख्यकों को राष्ट्रीय मुद्दा जिस तरह से पर्याप्त था, वह अन्यों को उसी तरह से क्यों पर्याप्त न था? साधन की पवित्रता की बात तो तब बहुत की जाती थी। तब राष्ट्रीय प्रतिरोध को सांप्रदायिकता के कलुष से क्यों लिप्त किया जा रहा था? कुछ लोगों ने तब हैदराबाद के निज़ाम को ख़लीफ़ा घोषित करने और हैदराबाद को वैश्विक इस्लाम का मुख्यालय बनाने की बात कह थी जिसे तब के नेतृत्व ने यह कहा था कि ‘यदि हैदराबाद का निज़ाम भारत का बादशाह हो जाता है तब भी यह सौ फ़ीसदी स्वराज होगा।’ तब सवाल यह है कि भारत का स्वतंत्रता संघर्ष एक लोकतांत्रिक भारत के लिए था या १८५७ से १९२० से भारतीय चेतना ने कोई प्रगति न की थी? आज कुछ लोग जो सुभाष के नाम पर यह कहकर डराते हैं कि उनके सफल होने से देश में एक सैन्य शासन हो जाता, इस बादशाहत के प्रस्ताव का ज़िक्र तक नहीं करते।

इतिहास जब यों लिखकर काले को सफ़ेद करेगा कि वह सांप्रदायिक जनसंहार सामंतों और ज़मींदारों के विरुद्ध पापुलर अपराइजिंग थी या अंग्रेजों ने वहाँ हाई-कास्ट हिंदू अथारिटीज़ को नियुक्त किया था, इस कारण यह प्रतिक्रिया हुई – तब वह इतिहास की कालाबाज़ारी है, और कुछ नहीं। क्या चौरीचौरा में मारा गया एक भी आदमी अंग्रेज़ था? कुछ इतिहासकार तो मालाबार की उन घृणित घटनाओं को किसान विद्रोह कहने तक की कलाबाज़ियाँ दिखाते रहे हैं। क्या ये किसानों के प्रति उनके किसी आदर का द्योतक हो सकता है? घाव पर नमक ये कि 1971 में उन रैबिड फ़िरक़ापरस्त हत्यारों और बलात्कारियों को स्वाधीनता संग्राम सेनानी का दर्जा दिया गया था। आश्चर्य नहीं कि आज अफ़ग़ानिस्तान में भी यही सब कर गुजरने वाले ‘विदेशी ऑक्युपेशन’ के ख़िलाफ़ लड़ाई करने वाले स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बताये जा रहे हैं। क्या हमारे देश के किसी भी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी ने किसी का रेप किया? या देश के आम नागरिकों का क़त्लेआम किया? यह भारत के उच्चतम आदर्शों से प्रेरित भगतसिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, अशफाकुल्लाह, खान अब्दुल ग़फ़्फ़ार खान के पासंग भी बैठने वाले लोग थे? इनके सफ़ पर उन्हें रखकर क्या इन बलिदानियों का अपमान नहीं किया जा रहा था?

तब से इस प्रवृत्ति की नींव पड़ी कि माओ चीन में छींकते थे और जुकाम यहाँ कुछ सज्जनों को हो जाता था। कि बात डेनमार्क की हो या फ़्रांस की, वहाँ का कोरोना यहाँ पर जुलूस ही नहीं निकलवाता, सार्वजनिक संपत्तियों की भी क्षति करवा देता है।

और यदि ऐसा इंटरनेशनलाइजेशन जायज़ है तब हम ऐसे समूहों की कुरीतियों को मानवाधिकारों का वैश्विक मुद्दा बनाकर उसमें विश्व समुदाय का सहयोग क्यों नहीं लेते? माने यदि बाल श्रम के आधार पर हमारी देसी कारपेट इंडस्ट्री की बलि अमेरिकन, ब्रिटिश, जर्मन मैन्युफ़ैक्चरर्स के हितों की पूर्ति कर सकती है, तो कई ऐसी सामाजिक कुरीतियाँ वैश्विक सैंक्शन क्यों नहीं आमंत्रित करतीं? क्या वे विश्व मानवाधिकार के मुद्दे नहीं हैं? उन पर कोई इंटरनेशनल सॉलिडेरिटी नहीं उभरती? क्या अंतर्राष्ट्रीयकरण कोई वन-वे ट्रैफ़िक है?

(लेखक मध्य प्रदेश के सेवा निवृत्त अधिकारी हैं)

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