फिल्म गदर करीब डेढ़ दशक पहले आई थी। लेकिन यह शायद इस फिल्म की लोकप्रियता का ही परिणाम है कि अक्सर किसी न किसी चैनल यह प्रदर्शित होती ही रहती है। यूं तो फिल्म में कई रोचक व दिल को छू जाने वाले प्रसंग है। लेकिन इस फिल्म का एक सीन वर्तमान राजनीति पर भी सटीक बैठता है। जिसमें पाकिस्तानी राजनेता बने अमरीश पुरी अपनी बेटी के साथ हुई त्रासदियों में भी राजनैतिक फायदे की संभावना देखते है। वे बेटी बनी अमीषा पटेल से कहते हैं… सब्बो … हम सियासती लोग है। तुम चाहो तो इसके जरिए सियासत की सबसे ऊंची सीढ़ी तक पहुंच सकती हो। भारत – पाकिस्तान विभाजन पर बनी इस फिल्म की पटकथा बेशक सालों पुरानी घटना पर केंद्रित है। लेकिन आजाद भारत में भी हमारे राजनेता जरा भी नहीं बदले हैं।
अपने देश में राजनीति दोधारी तलवार है। जिसके जरिए दोनों तरफ वार किया जा सकता है। वोटों की राजनीति का प्रश्न हो तो एक ही मुंह से आप अदालत के फैसले का सम्मान करने की बात कह सकते हैं तो परिवर्तित परिस्थितियों में इस पर अंगुली उठाने की पूरी छूट भी आपको है। इस बात का अहसास मुझे 1993 में हुए मुंबई बम धमाके में मौत की सजा पाए याकूब मेनन को ले शुरू हुई राजनीतिक पैतरों को देख कर हुआ। देश को लहुलूहान करके रख देने वाली इस मर्मांतिक घटना में 22 साल बाद अदालत का फैसला आया। लेकिन राजनीतिकों ने इस पर भी राजनीतिक रोटी सेंकने से गुरेज नहीं किया। इस मुद्दे पर काटी गई राजनैतिक फसल अब तक खलिहान में संभाल कर रखी भी जा चुकी है। कोई भी चैनल खोलो सभी पर किसी ने किसी बहाने याकूब मेनन की फांसी और इस पर राजनेताओं की प्रतिक्रिया दिखाई जाती रहती है। अल्पसंख्यक वोटों की राजनीति करते हुए अचानक चैनलों पर छा जाने वाले एक राजनेता को यह कहते हुए जरा भी हिचक नहीं होती है कि याकूब मेनन को इसलिए फांसी की सजा दी जा रही है क्योंकि वह मुसलमान है। साथ ही वे अदालत की पूरी इज्जत करने की बात भी कहते हैं।
फिर सवाल उठता है कि वे अंगुली किस पर उठा रहे हैं। क्योंकि याकूब मेनन को सजा तो अदालत ने ही दी है। वह भी पूरे 22 साल तक मामले के हर कोण से विवेचना के बाद। महाआश्चर्य कि याकूब मेनन की फांसी की सजा का विरोध करने वाला यही राजनेता कुछ दिन पहले एक चैनल पर अपने विधायक भाई पर लगे संगीन आरोपों को अदालत में विचाराधीन बताते हुए सभी से न्यायपालिका पर भरोसा रखने का दम भर रहा था। हर सवाल का वह एक ही जवाब दे रहा था … भैया मसला कोर्ट में है। और कोर्ट को कानून हमसे – आपसे ज्यादा मालूम है…। लेकिन याकूब मेनन पर प्रतिक्रिया देते समय वह यह दलील भूल गया। चैनलों पर ऐसे कई चेहरे उभरते रहे जो याकूब मेनन की फांसी की सजा पर किंतु – परंतु की रट लगाए रहे। देश में ऐसे कई ऐतिहासिक पल आए जब किसी गंभीर मसले पर प्रगतिशीलता की राजनीति करने वाले तबके ने अदालत का सम्मान करने का दम भरा और दूसरे पक्ष को इस पर तरह – तरह की नसीहतें दी। लेकिन याकूब मेनन के मसले पर इस तबके ने गोल – मोल बातों की आड़ में सजा पर सवाल उठाने से गुरेज नहीं किया। लगभग हर चैनल पर इस प्रकार की सतही बहस को देख कर किसी के भी मन में सहज ही यह सवाल उठता है कि बगैर सोचे – समझे इस पर बोलते जा रहे राजनेता क्या सचमुच याकूब मेनन से हमदर्दी या नफरत करते हैं या इस पर वे सिर्फ इसलिए बोल रहे हैं क्योंकि इसकी आड़ में उन्हें अपनी राजनीति चमकाने का मौका नजर आ रहा है।
मेरा तो मानना है कि राजनेताओं की तरह ही चैनलों ने भी इस पर बहस करा कर एक बेहद संवेदनशील मसले को भुनाने की ही कोशिश की है । जिनके बारे में पहले से पता है कि मसला चाहे जितना गंभीर हो अमुक – अमुक इस पर अपनी जहरीली बातों से बाज नहीं आएगा, उसे चैनलों पर थोबड़ा दिखाने का मौका देना ही गलत है। बेहतर होता चैनल्स इस मुद्दे पर देश की आम जनता और समाज के विभिन्न वर्गों की प्रतिक्रिया दिखाते। बेहद संवेदनशील मसले पर घिसे – पिटे राजनेताओं के चैनलों पर खटराग का कोई मतलब नहीं है। इसके बदले आम जनता की प्रतिक्रिया दिखाई जानी चाहिए जिससे स्पष्ट हो सके कि राजनेताओं से इतर राष्ट्रीय़ महत्व के मसलों पर लोग क्या सोचते हैं।
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लेखक पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में रहते हैं और वरिष्ठ पत्रकार हैं।
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तारकेश कुमार ओझा, भगवानपुर, जनता विद्यालय के पास वार्ड नंबरः09 (नया) खड़गपुर ( प शिचम बंगाल) पिन ः721301 जिला पश्चिम मेदिनीपुर संपर्कः 09434453934 / 9635221463