ओ३म् का जाप स्मरण शक्ति को तीव्र करता है,इसलिए वेदाध्ययन में मन्त्रों के आदि तथा अन्त में ओ३म् शब्द का प्रयोग किया जाता है।
मनुस्मृति में आया है कि ब्रह्मचारी को मन्त्रों के आदि तथा अन्त में ओ३म् शब्द का उच्चारण करना चाहिए।क्योंकि आदि में ओ३म् शब्द का उच्चारण न करने से अध्ययन धीरे धीरे नष्ट हो जाता है तथा अन्त में ओ३म् शब्द न कहने से वह स्थिर नहीं रहता है। २/७४ ।।
कठोपनिषद में नचिकेता की कथा आती है।नचिकेता ने यम ऋषि से पूछा- हे ऋषि,मुझे यह बताइये कि संसार में सार वस्तु क्या है?
इस पर ऋषि ने उत्तर दिया,सब वेद जिस नाम के संबंध में वर्णन करते हैं,सभी तपस्वी जिसके विषय में कहते हैं,जिसकी प्राप्ति की इच्छा करते हुए ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं,उस नाम के संबंध में मैं तुझे संक्षेप में बताता हूं-वह ओ३म् नाम(शब्द) ही परमात्मा का श्रेष्ठतम नाम है।
यजुर्वेद में आया है कि मृत्यु को जीतने और मोक्ष को प्राप्त करने के लिए ओ३म् के अतिरिक्त और कोई भी मार्ग नहीं है। यमाचार्य ने तो नचिकेता को ओ३म् का महत्व बताते हुए यहां तक कह दिया है कि यह ओ३म् अक्षर निश्चय ब्रह्म है।यह ही अक्षर ब्रह्म के सब नामों में श्रेष्ठतम है।
इस अक्षर को जान लेने के बाद जापक जो इच्छा करता है उसकी वह इच्छा निश्चयपूर्ण हो जाती है।। कठोपनिषद २/१६ ।।
ऋग्वेद ने इसे स्पष्ट करते हुए कहा है-हे वीर प्रभो,आपकी मित्रता कठिनाई से नष्ट होने वाली है।अर्थात आपकी मित्रता स्थाई तथा विश्वसनीय है।
आप गाय चाहने वाले के लिए गाय हैं(देने वाले हैं) तथा घोडा चाहने वाले के लिए घोडा है ।।६/४५/२६ ।।
इस प्रकार ओ३म् के जापक को सभी उचित वस्तुएँ सुलभ हो जाती हैं।
प्रश्नोपनिषद् में तो पिप्पलाद ऋषि ने यहां तक कह दिया है कि जो निरन्तर इस तीन मात्राओं वाले ओ३म् अक्षर के द्वारा परब्रह्म का ध्यान करता है वह तेज में सूर्य के समान सम्पन्न हो जाता है ।।५/५ ।।
छान्दोग्य उपनिषद् के अनुसार देवता भी इस अविनाशी ,अमर तथा अभय ओ३म् अक्षर का सहारा लेकर अमर तथा अभय हो गये ।।२/४/४ ।।
गीता में श्रीकृष्ण इस ओ३म् अक्षर का महत्व बताते हुए अर्जुन से कहते हैं- इस एकाक्षर ब्रह्म स्वरुप ओ३म् का स्मरण करता हुआ जो मनुष्य इस शरीर का परित्याग करता है वह परमगति(मोक्ष) को प्राप्त होता है ।।८/१३ ।।
मुण्डकोपनिषद् ओ३म् की महिमा के वर्णन में कहता है-ओ३म् का जाप करने से ह्रदयग्रन्थि (सूक्ष्म शरीर) टूट जाती है।सब प्रकार के संशय नष्ट हो जाते हैं।उसके सब कर्म क्षीण हो जाते हैं।उस इन्द्रियातीत ओ३म् के दर्शन करने मात्र से ही ।। २/२८ ।।
कठोपनिषद में आगे कहा है-ओ३म् अनित्यों में एक नित्य है।अनेकों में वही एक है।श्रेष्ठ कामनाओं का वही एक पूरक है।जो धीर पुरुष इस ओ३म् को अपनी आत्मा में देखते हैं केवल उन्हें ही परम शान्ति प्राप्त होती है,अन्यों को नहीं ।।५/१३ ।।
आत्मा में विराजमान इस परमात्मा को धीर पुरुष परा विद्या से साक्षात्कार किया करते हैं;क्योंकि यह ओ३म् इन्द्रियातीत है।
वह नित्य,विभु,सर्वव्यापक,सूक्ष्म,अव्यय तथा सब प्राणियों का कारण है।
वह गोत्र,वंश,आंख,कान,हाथ,पांव से रहित है।
वह संसार की बीज शक्ति है।वह अशरीर है।वह नाडी आदि बन्धनों से जकडा नहीं है।वह मलरहित है।
पाप उसको बांध नहीं सकते।कोई स्थान उससे रिक्त नहीं।
उसका कोई उत्पादक नहीं है।
वह सवयं अपना स्वामी है।उसने अपनी सनातन प्रजाओं के लिए पदार्थों का ठीक ठीक रीति से विधान बनाया है। यजु: ४०/८ ।