Thursday, November 28, 2024
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मोटे अनाज से बचेगी हमारी सेहत

मोटे अनाज पांच छह दशक पहले तक अधिसंख्य समाज के भोजन का अभिन्न अंग हुआ करते थे और इन्हें गरीबों का भोजन भी कहा जाता था क्योंकि इनकी कीमतें गेहूं और चावल की तुलना में कम होती थी और उत्पादन खूब होता था।ज्वार , बाजरा, जौ, मक्का, रागी (मडुआ), कोदो, सामा, बाजरा, सांवा, लघु धान्य या कुटकी, कुट्टू, कांगनी और चीना जैसे अनाज मिलेट्स यानी मोटा अनाज कहलाते हैं। इनके सेवन से हमारी सेहत को कई तरह के फायदे होते हैं।इनमें फाइबर की मात्रा गेहूं और चावल आदि अनाजों की तुलना में ज्यादा होता है जो पाचन तंत्र के लिए गेहूं और चावल आदि की तुलना में अत्यधिक लाभदायक है और अच्छे स्वास्थय के लिए उपयोगी है।

इन मोटे अनाज की एक विशेषता यह भी है कि इनकी खेती भारतीय मौसम के अनुकूल हैं। इन्हें अधिक पानी और रसायनिक खाद आदि की आवश्यकता नहीं होती। ये अनाज हल्की जमीन पर भी आसानी से उग जाते हैं। देश भर में वन क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासी समुदाय वर्षा ऋतु के प्रारंभ में इनके बीच जंगलों में बिखेर देते थे और वर्षा ऋतु के बाद इनकी पकी फसल काट लिया करते थे।कभी गरीबों के भोजन और स्वास्थ्य का आधार रहे मिलेट आजकल बहुत कम उत्पादन और प्रबुद्ध समाज में स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता से इतने महंगे हो गए हैं कि गरीब लोग इनका सेवन करने में आर्थिक रूप से सक्षम नहीं हैं। इसीलिए आजकल इन्हे सुपर फूड और अमीर लोगों का भोजन भी कहते हैं।

डॉक्टर खादरवली देश विदेश में प्रसिद्ध मिलेट विशेषज्ञ माने जाते हैं। उनका मानना है कि मोटे अनाज के सेवन से हम न केवल स्वस्थ रह सकते हैं अपितु उचित मात्रा में इनके सेवन से बहुत से असाध्य रोगों का सहज और स्थाई ईलाज भी संभव है। इधर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी मोटे अनाज के उत्पादन और सेवन को बढ़ावा देने के लिए पहल की है। यह वर्ष वैसे तो पूरे विश्व में अंतरराष्ट्रीय मिलेट वर्ष के रुप में मनाया जा रहा है लेकिन भारतीय उप महाद्वीप की जलवायु मोटे अनाज के उत्पादन के लिए बहुत अनुकूल है इसलिए हमारे देश में इनका उत्पादन बड़े पैमाने पर किया जा सकता है।

खेती में हरित क्रांति और व्यावसायिकता बढ़ने से मोटे अनाज की खेती धीरे धीरे हाशिए पर चली गई है। नागरिकों के स्वास्थ्य पर इसका दोहरा प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। एक तरफ़ मोटे अनाज की तुलना में गेहूं आदि का भोजन स्वास्थ्य के लिए उचित नहीं है और दूसरी तरफ गेहूं आदि की अच्छी फ़सल के लिए उनमें बहुत ज्यादा रासायनिक खाद और कीटनाशक का प्रयोग होने से ये अन्न जहरीले हो गए हैं जिनसे कैंसर जैसी घातक बीमारियों में बेतहाशा वृद्धि हो रही है। मोटे अनाज की खेती लगभग जीरो बजट खेती होती है क्योंकि इन्हें उगाने के लिए किसानों को अन्य फसलों की तरह खाद पानी आदि की बहुत कम जरूरत होती है इसलिए सूखे और कम बारिश वाले राजस्थान जैसे राज्यों में भी इनकी खेती संभव है। इन पर मौसम की प्रतिकूल परिस्थितियों का भी ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ता इसलिए इनकी खेती में अन्य फसलों जितने लाभ की संभावना भले न हो लेकिन इन फसलों से किसान को घाटा कभी नहीं होता क्योंकि इनकी लागत खर्च नगण्य होती है।

प्रधानमन्त्री द्वारा मोटे अनाज को प्रोत्साहन देने से देश के वित्त और कृषि मंत्रियों और भारतीय जनता पार्टी द्वारा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने भी मोटे अनाज को आगे बढ़ाने के प्रयास शुरु किए हैं। शासकीय भोज में इन अनाजों से बनी चीजों को प्रमुखता से मीनू में रखा जाने लगा है। हमारे भोजन में मोटे अनाज की वापसी से एक तरफ़ नागरिकों के स्वास्थ्य पर अनुकूल प्रभाव पड़ेगा, भोजन में अन्न की विविधता बढ़ेगी और साथ ही इनके उत्पादन में सिंचाई की बहुत कम आवश्यकता होने से जल संरक्षण भी होगा।

(लेखक सेवानिवृत्त आयकर आयुक्त हैं और ग्रामविकास के कार्यों से जुड़े हैं)
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