“हमेशा से ही सुनता आया था कि राजनीति बहुत गन्दी है, एक गटर की तरह है। आस पास के माहौल को हमेशा राजनीति के ख़िलाफ़ ही पाया था। 2011 में अन्ना आंदोलन और फिर आप के गठन के दौरान लगने लगा था कि इसे साफ़ किया जा सकता है, पर फिर कुछ समय के बाद ये लगने लगा कि ये सच में बहुत गन्दी है और अच्छे से अच्छे व्यक्ति को भी बिगाड़ देती है। राजनीति का इतिहास ऐसे लोगों से भरा पड़ा है जो राजनीति में ईमानदारी पूर्वक संघर्ष करके आए मगर बाद में पथभ्रष्ट हो गए। जिससे यही लगने लगा की राजनीति में ही कोई बुराई है जो लोगों को भ्रष्ट कर देती है। जब मैंने रंगचिन्तक मंजुल भारद्वाज लिखित एवम् निर्देशित और अश्विनी नांदेडकर , कोमल खामकर और तुषार म्हस्के अभिनीत नाटक “राजगति” को देखा, उस पर विचार किया तो ये समझ में आया कि राजनीति बुरी नहीं है, वो तो सत्ता और व्यवस्था के गठजोड़ से उत्पन्न बुराइयां हैं जिन्हें राजनीति के सर पर डाल दिया जाता है।
हमारे राजनेता सत्ता प्राप्त करने के बाद इस व्यवस्था की मदद से राजनीति को बदनाम कर रहे हैं। इस नाटक को देखकर पहली बार मुझे राजनीति की पवित्रता का अनुभव हो रहा था। आम तौर पर समाज में कुछ भी होता है तो लोग बोल देते हैं कि ज़माना खराब है, इलाका खराब है इत्यादि! वो कभी आत्ममंथन नहीं करते हैं कि दरअसल ख़राब तो लोग हैं, खराब तो सामाजिक व्यवस्था है। यही बात राजनीति पर भी लागू होती है। इस नाटक को देखने के बाद राजनीति के प्रति जो मन में एक पूर्वाग्रह था वह टूटा और ये समझ में आया कि अगर व्यवस्था को दुरुस्त कर दिया जाए तो राजनीति की शुद्धता सबको साफ़-साफ़ नजर आने लगेगी। पर ये भी समझ में आया कि राजनीति को बदलना कोई बच्चों का खेल नहीं है, ये नारेबाजी और भाषणों से नहीं होने वाला, व्यवस्था बहुत ही जटिल और सख़्त है, और इसको बदलने के लिए सम्पूर्ण समर्पण की आवश्यकता है। पर इसको बदला जा सकता है और हम इसे बदलेंगे।
दूसरे राजनितिक नाटकों और राजगति में अंतर-
जहां तक राजनीति के ऊपर लिखे गए नाटकों का सवाल है तो समाजवाद की ओर झुकाव होने के कारण मैंने कुछ लेफ्ट संगठनों के नाटकों को देखा है, उनको आत्मसात किया है। पर अब समझ में आ रहा है कि वे बहुत ही रिजिड हैं, जिस मुद्दे को भी उठाते हैं उसमें बिलकुल कट्टर हो जाते हैं, मुझे भी ये लगने लगा था कि दक्षिणपंथियों की कट्टरता का जबाव कट्टरता से ही दिया जा सकता है, इस कारण मैं भी धार्मिक और राजनीतिक बुराईयों पर चोट करने के बजाये धर्म और राजनीति पर ही चोट करने लगा था, लोगों कि भावनाओं को मैंने महत्त्व देना बंद कर दिया था, बस मैं और मेरी विचारधारा के लोग ही सही हैं ऐसा मानने लगा था पर इस नाटक को देखकर मेरे विचार बदले।
अभी तक मैंने ऐसा कोई नाटक नहीं देखा था जो राजनीति के पवित्रता को सामने लाता हो। नाटक मनोरंजन के द्वारा शिक्षा देने की एक बहुत ही महत्वपूर्ण हथियार है मगर राजनीति पर जो नाटक लिखे गए हैं उन में से अधिकांशतः सिर्फ अपने जैसी विचारधाराओं को मानने वाले लोगों को तुष्ट करने के लिए लिखे गए हैं, वो हमारे मन की रिजीडीटी को और ज्यादा बढ़ाते हैं जबकि राजगति के साथ ऐसा नहीं है। ये हमारे विचारों पर चोट करती है और आत्मचिंतन करने पर बाध्य करती है।
राजनीति पर लिखे गए अधिकतर नाटक नकारात्मक हैं। दरअसल दो तरह की चीजें होती हैं, एक तो युद्ध का विरोध दूसरी शांति का समर्थन! लक्ष्य दोनों का लगभग एक समान होता है मगर एक नकारात्मक है, दूसरी सकारात्मक। पहली बार राजनीति के लिए इतना सकारात्मक नाटक देखने को मिला जिसने मन से कई पूर्वाग्रहों को दूर करते हुए, मन को एक वैचारिक शांति प्रदान किया।
साहित्य में गद्य और पद्य की जो विधा है, उसका प्रयोग भी इसमें अच्छी तरह से हुआ है जहां अधितर नाटक गद्यात्मक शैली में लिखे होने की वजह से कहीं कहीं पर नीरस हो जाते हैं वहीँ ये नाटक शुरू से अंत तक दर्शकों को बांधे रखती है।
चार दिनों का स्वराज शाला का जो मेरा अनुभव रहा है वो किसी राजनीतिक या गैर राजनीतिक संगठन का अब तक का सबसे अलग और अविस्मरणीय अनुभव है। वहाँ आना, खुद पर लिखना, खुद से बातें करना काफी अलग था। भारतीय शिक्षा पद्धति के प्रति मेरे मन में हमेशा से ही द्वेष रहा है! शिक्षा किस प्रकार से दिया जाए इसका इसका एक बहुत ही बेहतरीन उदाहरण इस स्वराज शाला में देखने को मिला। सुबह का चैतन्य अभ्यास का अनुभव भी काफी अलग था। वैसे तो मैं नवोदय में मैंने PT वगैरह किया था पर ये एक अलग तरह का अनुभव था। हम समाज को जो देना चाहते हैं (धार्मिक सद्भाव, भेदभाव से मुक्ति, लिंग समानता इत्यादि) उसकी सुरुआत खुद हमसे होती है। लोग कहते हैं कि खुद को बदलो तो ज़माना बदल जायेगा इस बात का जीवंत उदाहरण वहाँ देखने को मिला।
सभी राजनीतिक/सामाजिक संगठनों में एक अध्यक्ष होता है और उसी के अनुसार वहां का काम होता है पर यहाँ ऐसा नहीं था। वहां सभी के विचारों का ना सिर्फ़ स्वागत होता था, बल्कि उनके विचारों को खंगाला भी जाता था। युवाओं को प्रेरित किया किया जाता था कि वे अपने अंदर की बात को सामने लाएं। ये बहुत ही बेहतरीन प्रयोग है क्योंकि विचारों के मंथन से ही वो अमृत निकलेगा जो राजनीति और समाज को नया जीवन प्रदान करेगा। मैं गर्व के साथ कह सकता हूँ कि यहां सही मायनों में लीडर तैयार किए जा रहे हैं।
भावनात्मक तौर पर साथियों का लगाव भी अद्भुत था, पहले पल से ही मुझे ऐसा लगा ही नहीं कि मैं यहाँ पर अजनबी हूँ। जहां अन्य संगठनों में लोग खुद को आगे रखने के होड़ में दूसरों को पीछे खींचते हैं, यहाँ ऐसा नहीं था। यहां एक समग्रता थी, सबको साथ लेकर चलने का भाव था। चार दिनों में आपसी लगाव इतना हो गया था कि आते वक़्त आँखे नम हो रही थीं।
इस स्वराज शाला में मुझे काफी कुछ ऐसा सीखने को मिला है जो बिलकुल नया है, व्यक्तित्व निर्माण की प्रक्रिया में सहायक है और जीवन को एक नयी दिशा प्रदान करने वाला है। इन चार दिनों में मेरा खुद से, समाज से, राजनीति से एक नया परिचय हुआ। कहने को तो बहुत कुछ है पर अभी मैं अपने उसी बात के साथ विराम लूंगा कि अन्य राजनीतिक पार्टियां जहां चुनाव लड़ने के बाद जीतती हैं, स्वराज इंडिया अभी से जीत रही है।
संपर्क
Manjul Bhardwaj
Founder – The Experimental Theatre Foundation www.etfindia.org
www.mbtor.blogspot.com
Initiator & practitioner of the philosophy ” Theatre of Relevance” since 12
August, 1992.