शहीद भगत सिंह के छोटे भाई के पोते यादवेन्द्र सिंह ने केंद्र सरकार से मांग की थी कि जिस तरह नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के सभी दस्तावेज सार्वजनिक किए गए थे, उसी प्रकार शहीद ए आजम भगत सिंह से जुड़े सभी दस्तावेज भी सार्वजनिक किए जाने चाहिए। यादवेंद्र की यह मांग अब तक पूरी नहीं हो पाई है।
यादवेन्द्र को उम्मीद है कि कोर्ट में किस व्यक्ति की क्या भूमिका थी यह पता चलने पर भगत सिंह के जीवन के कई पहलू दुनिया के सामने आ सकते हैं। उन्होंने बताया कि उनके दादा और भगत सिंह के छोटे भाई कुलबीर सिंह उन्हें अक्सर बताते थे कि जिस तरह बोस के परिवार की जासूसी हुई थी, उसी प्रकार उनके दादा की भी जासूसी होती थी। इससे शहीद भगत सिंह का पूरा परिवार कई मानसिक यातनाओं के दौर से गुजरता रहा।
भारतीय करंसी पर हो भगत सिंह का फोटो
पिछले अक्टूबर में भोपाल आए यादवेंद्र ने केंद्र सरकार से मांग की थी, जो अब तक पूरी नहीं हो पाई है। उन्होंने यह भी मांग की थी कि जिस तरह से नोटों पर महात्मा गांधी का फोटो लगाया जाता है, उसी प्रकार शहीदों के फोटो भी नोटों पर लगाकर उन्हें सम्मान देना चाहिए।
वो दस्तावेज उगल सकते हैं कई राज
यादवेन्द्र ने संवाददाताओं से यह भी कहा था कि नेताजी से जुड़ी ढेरों फाइलें सार्वजनिक की जा रही हैं, शहीद भगत सिंह से जुड़ी तमाम फाइलें भी सामने लाएं। कोर्ट में काफी समय चले उनके ट्रायल के ढेरों दस्तावेज हैं,जिससे उस समय किस व्यक्ति का क्या रोल था, यह देश-दुनिया के लोगों को पता चल सके। यादवेंद्र कहते हैं कि हमारे दादा कुलबीर सिंह बताते थे कि उनके और उनके परिवार के बीछे cbi और खुफिया एजेंसियां पीछे नजर रखते थे।
भगत ने ही दिया था यह नारा
उल्लेखनीय है कि 23 मार्च 1931 को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को ब्रिटिश हुकूमत ने फांसी पर लटका दिया था। इस घटना ने पूरे हिन्दुस्तान को हिलाकर रख दिया था। भगत सिंह और उनके साथियों ने हंसते हुए फांसी के फंदे को चूमकर गले लगा लिया था। इसी बीच उन्होंने ‘इंकलाब जिंदाबाद’ का नारा लगाते हुए हिन्दुस्तान की आजादी के लिए अपनी जान न्योछावर कर दी थी। यह नारा भगत सिंह ने ही दिया था।
आखरी समय में नास्तिक हो गए थे भगत सिंह
यह बात भी बहुत कम ही लोग जानते हैं कि घंटों गायत्री मंत्र का जाप करने वाले और दिनरात अध्ययन करने वाले भगत सिंह आखरी समय में नास्तिक हो गए थे। जेल में उन्होंने एक काफी लंबा लेख लिख दिया था, जिसका नाम था ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’। यह लेख काफी चर्चित हुआ था। इस लेख के आधार पर कई किताबों के संस्करण भी निकले। आज भी छात्रों और छात्र संगठनों के बीच यह लेख का जिक्र किया जाता है। यह लेख 27 सितंबर 1931 को लाहौर के एक समाचार पत्र ‘द पीपल’ में प्रकाशित हुआ था।