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गजानन माधव मुक्तिबोध की जन्म शताब्दी पर ‘सापेक्ष’ के सम्पादक और प्रतिष्ठित साहित्यकार महावीर अग्रवाल ने शहर के सुपरिचित कलमकार, प्रखर वक्ता और शासकीय दिग्विजय महाविद्यालय के हिंदी विभाग के राष्ट्रपति सम्मानित प्राध्यापक डॉ. चन्द्रकुमार जैन ने सारगर्भित बातचीत की। शती पूर्ण होने तथा मुक्तिबोध जी की 100 वीं जयन्ती पर इस अहम बातचीत को हम सगर्व प्रकाशित कर रहे हैं।
– संपादक
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महावीर अग्रवाल : मेरा यह सौभाग्य है, मैं उस समय आपसे चर्चा कर रहा हूँ, जब हम मुक्तिबोध की जन्म शताब्दी के द्वार पर खड़े हैं। जन्म शताब्दी ( 13 नवम्बर 2016 – 13 नवम्बर 2017 ) के अवसर पर हमें गजानन माधव मुक्तिबोध को किस तरह याद किया जाना चाहिए ?
डॉ. चन्द्रकुमार जैन : मुझे लगता है कि मुक्तिबोध की याद हर दौर, हर समय में इंसान होने का हक़ अदा करने की बेकली को जीने और आज से बेहतर कल के अप्रतिहत जीवट को साकार करने का एक नया अवसर होता है। जब बात जन्म शताब्दी की है तो ‘जनचरित्री’ कविता के प्रखरतम हस्ताक्षर को लेकर जन-भावना के बरक़्स कुछ बातें कहना अवश्य चाहूंगा। सबसे पहले स्मरण दिलाना चाहता हूँ कि मैंने स्वयं इस दौरान मुक्तिबोध पर चर्चा, विमर्श, सेमिनार, संगोष्ठियों में मैंने भी भागीदारी की और दर्जन भर आलेख भी लिखे और प्रकाशित भी करवाए, आवाज़ के माध्यम से उनकी कविताओं को लोगों तक अपने ढंग पहुँचाने की पहल भी की। बेशक, ऎसी गतिविधियों में मेरी तरह और भी लोग संलग्न रहे लेकिन आगे भी अधिक ठोस किए जाने की आशा की जा सकती है।
मैं समझता हूँ, सबसे अहम जरूरत इस बात की है कि मुक्तिबोध को उनके नाम की ऊँचाई के साथ-साथ हमारी नई पीढ़ी तक उनके सृजन की गहरायी के साथ भी पहुँचाया जाए। औरों की तो बात ही रहने दीजिए साहब, हिंदी के विद्यार्थी, यहाँ तक उनके अध्येता भी, कई दफे उनके नाम के हिज्जे तक को ठीक-ठीक लिख नहीं पाते हैं ! बड़ी कोफ़्त होती है तब। तो बात ऎसी है कि शिक्षा जगत और साहित्य जगत में भी मुक्तिबोध की ज़मीनी चर्चा जाए। उनकी रचनाओं के अनुवाद नए सिरे से हों। उनकी कविताओं का सवक्तव्य, सस्वर पाठ हो। नई तकनीक और नए माध्यमों का उपयोग करते हुए उन्हें चित्रमय, रोचक और और प्रभावी रूप में ढालकर लोगों तक पहुंचाया जाये। मैंने स्वयं मुद्रण और इलेक्ट्रॉनिकी माध्यमों तथा सामाजिक माध्यमों में भी उन पर अपनी बात साझा करने का विनम्र प्रयास किया और सच कहूँ,उसे अच्छा प्रतिसाद मिल रहा है।
हम यह बात लोगों तक पहुँचाएँ कि एक लोकतांत्रिक समाज का नागरिक होने के नाते हम नागरिक चेतना के अनेक सवालों से दो चार होते हुए जब हम हिन्दी की प्रगतिवादी कविता और नई कविता के मज़बूत सेतु के रूप में प्रतिष्ठित मुक्तिबोध पर एकाग्र होते हैं तब सवाल-दर-सवाल और ज़वाब-दर-ज़वाब रचनाकर्म के कई अहम पहलू खुद-ब-खुद खुलने लगते हैं। मानों मुक्तिबोध के ही शब्दों में एक कदम रखने पर सौ राहें फूटने लगती हैं। कैसे, यह लोगों को सरल ढंग से समझाना बौद्धिकों और साहित्यिकों का काम है। जन्म शती पर वचनबद्ध होकर यह दायित्व वहन किया जा सके तो कोई बात बने। पर, बड़े अफ़सोस के साथ मुझे यह कहने में भी संकोच नहीं है कि इधर इस सिलसिले में कोई व्यापक और कारगर, समयबद्ध और बहुआयामी आयोजनों की कोई ठोस खबर अब तक न मिल सकी है।
मेरा सुझाव है कि छतीसगढ़ में विशेषकर जिन स्थानों से मुक्तिबोध का नाता रहा है, वहाँ सार्थक, सामयिक और प्रासंगिक आयोजन होने चाहिए जिनमें मुक्तिबोध के स्थानीय अधिकारी विद्वानों और नागरिकों की अनिवार्य भागीदारी हो। मुक्तिबोध के ह्रदय को पूरी हार्दिकता से सुनने के इंतज़ाम होने चाहिए। उनकी प्रचंड मेधा को गुनने का अवकाश निर्मित किया जाना चाहिए। उनकी बुद्धि की देन को रेशा-रेशा धुनने के मौके सुलभ किए जाने चाहिए। जीते जी जिस महान शब्द शिल्पी को उपेक्षा का दंश झेलना पड़ा, उसे हम अपनी सामर्थ्य, अपने साधन और अपने वैभव का एक छोटा अंश तो दे ही सकते हैं ना ? कुछ कर दिखाने में क्षण मात्र का प्रमाद भी अक्षम्य ही माना जायेगा। ये तटस्थता मुक्तिबोध के ‘अंधेरे में’ छुपे उजाले तक अगर हमें नहीं ले जा सकी तो मैं यह मानता हूँ कि उनकी यह जन्म शती हमें कई जन्मों तक माफ़ नहीं करेगी !
महावीर अग्रवाल : मुक्तिबोध ने अपनी रचनाओं में ‘फैंटेसी’ का प्रयोग करते हुए उन्हें मूल्यवान ही नहीं, सार्थक भी बनाया है। रचनाओं में मुक्तिबोध की ‘फैंटेसी’ के सम्बन्ध में आप क्या सोचते हैं ?
डॉ. चन्द्रकुमार जैन : आदरणीय महावीर अग्रवाल जी ! मैं यह मानता हूँ कि यह प्रश्न मुक्तिबोध के सृजन-कर्म का अपरिहार्य पक्ष है। इधर नामवर सिंह जी से हुई लम्बी बातचीत पर आधारित आप की एक पुस्तक ‘संघर्षों का ताप : मुक्तिबोध’ पढ़ने का सौभाग्य भी मिला। पढ़कर,सच कहूँ मुक्तिबोध की ‘फैंटेसी’ जैसी अनुभूति से होकर गुज़ारा हूँ एक हद तक ! इसलिए, अव्वल तो आपका ह्रदय से आभार। बहरहाल, मेरी अनुभूति है कि शिल्प के स्तर पर कहें या संवेदना के धरातल पर, दोनों ही मोर्चों पर मुक्तिबोध की फैंटेसी या फंतासी, दरअसल फानूस बनकर ही उनकी लेखनी के तेज और ताप को संरक्षित करती है। कहा गया है न – फानूस बन के जिसकी हिफाज़त खुदा करे, वो शम्मा क्या बुझे जिसे रौशन खुदा करे। तो ये जो फैंटेसी है, वह सही माने में कहूँ तो मुक्तोबोध के रचनाकर्म के ‘फ़ानूस’ की मानिंद है। वह मुक्तिबोध के लिए आत्मसंघर्ष है, उनकी विवशता भी और उनकी कला भी।
फ्रायड ने फैंटेसी को दिवास्वप्न माना है। उसका जन्म असंतोष से होता है। अगर इस दृष्टि से देखें तो मुक्तिबोध के यहाँ असंतुष्टि है तो। बेशक है। लेकिन, विचारणीय है कि असंतुष्टि किस बात की ? किसे ले कर है ? उनकी बेचैनी का सबब आखिर क्या है ? जवाब है – पूंजीवाद के बढ़ते प्रभाव की, समाज की विसंगतियों की, व्यवस्था के दोहरेपन की, तरक्की के मोहजाल की, उसके छल-छद्म की और ऎसी ही न जाने कितनी असंगत, विसंगत स्थितियों, हालातों की असंस्तुष्टि, जिन्हें मुक्क्तिबोध की फैंटेसी शब्द देती रही। उनकी भावनात्मक ऊर्जा विविध कल्पना चित्रिण, फैंटेसियों का आकार ग्रहण करती रही। नेमिचन्द्र जैन जी ने जिसे अशेष ऊर्जा कहा है, वह उनकी बेचैनी की अभिव्यक्ति की सबसे बड़ी शक्ति थी।
मुक्तिबोध जानते थे कि “वर्तमान समाज चल नहीं सकता / पूंजी से जुड़ा हुआ ह्रदय बदल नहीं सकता” फिर भी उन्हें आशा थी कि “मेरी ज्वाला, जन की ज्वाला होकर एक / अपनी उष्णता से धो चले अविवेक”, लेकिन इस उत्कट आशा और विश्वास के बाद भी उनका मन बेचैन रहता था। मुक्तिबोध को लगने लगा था की कविता का तत्कालीन शिल्प उनकी जटिल अनुभूतियों को वहन करने में सक्षम नहीं है इसलिए उन्होंने अपनी जटिल अनुभूति को पूर्णतया संप्रेषित करने के लिए उसके अनुरूप एक शिल्प की तलाश की। वही नया शिल्प फैंटेसी है। कल्पना द्वारा रची गई दुनिया, लेकिन यथार्थ का साक्षात्कार करवाने वाला बेजोड़ शिल्प ! मुझे लगता है कि मुक्तिबोध द्वंद्व में जीते रहे। और उसके पार जाने की बेकली में फैंटेसी के नए-नए रूपक और प्रतीक सिरजते रहे। यथार्थ की कठोरता के साथ-साथ उनकी फैंटेसी भी अधिक प्रहारक होती गई। फ़ंतासी की आंच में तपकर सूखे कठोर नंगे पहाड़, ओ काव्यात्मन फणिधर, दिमागी गुहांधकार का ओरांगउटांग, ब्रह्मराक्षस , भविष्यधारा, अन्धेरे में, चम्बल की घाटी में जैसी कविताएं मुखर हुईं। ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ इस एक पंक्ति में ही मुक्तिबोध ने फैंटेसी का अद्भुत प्रमाण दिया है। वहीं, ‘अँधेरे में’ कविता उनकी विराट स्वप्न फैंटेसी का सबसे ठोस दस्तावेज है। ‘अंधंरे में’ मुक्तिबोध की प्रसिद्ध कविता है। “यह कविता परम अभिव्यक्ति की खोज में अनोखी फैंटेसी बुनती है लेकिन अपने मूल में यह कविता ऐसे अंधेरे की पड़ताल करती है जो देश की आजादी के बाद की व्यवस्था का अंधेरा है, इस लोकतंत्र का अंधेरा है।
मैं स्मरण दिलाना चाहता हूँ कि एक साहित्यिक की डायरी में मुक्तिबोध लिखते हैं – फैंटेसी में संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदना रहती है। इसलिए मुक्तिबोध चाहते हैं कि “वेदना में हम विचारों के / गुथें तुमसे / बिंधे तुमसे।” जहाँ विचार भी हो और कर्म भी हो, नहीं तो स्थिति ‘अँधेरे में’ के उस कलाकार की तरह हो जायेगी जो कर्मरहित बुद्धिविवेक को महत्व देता है इसलिए असफल हो गया है। मुक्तिबोध ने फैंटेसी के निर्माण में कला के तीन क्षणों का उल्लेख किया है – “कला का पहला क्षण है जीवन का उत्कट तीव्र अनुभव क्षण। दूसरा क्षण है इस अनुभव का अपने कसकते दुखते हुए मूलों से पृथक हो जाना और ऐसी फैंटेसी का रूप धारण कर लेना मानो वह फैंटेसी अपने आँखों के सामने खड़ी हो। तीसरा और अंतिम क्षण है इस फैंटेसी के शब्दबद्ध होने की प्रक्रिया का आरंभ और उस प्रक्रिया की परिपूर्णवस्था तक की गतिमानता। शब्दबद्ध होने की प्रक्रिया के भीतर जो प्रवाह रहता है वह समस्त व्यक्तित्व और जीवन का प्रवाह रहता है।
मुझे लगता है इसी तरह मुक्तिबोध की सर्जना का प्रवाह भी साहित्य संसार में निरंतर रहेगा।
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‘सापेक्ष’, मुक्तिबोध जन्म शताब्दी
विशेषांक से साभार
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टीप – डॉ. चन्द्रकुमार जैन, छत्तीसगढ़ राज्य शिखर सम्मान से अलंकृत हैं
तथा उसी दिग्विजय कालेज, राजनांदगांव के हिन्दी विभाग में
प्राध्यापक हैं जहाँ मुक्तिबोध ने अध्यापन किया था।
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