Monday, November 18, 2024
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ईस्ट इंडिया हाउस : लन्दन में एक और इंडिया हाउस हुआ करता था जो अब ज़मींदोज़ हो चुका है

लीडन हाल में छुपा है ऐसी कम्पनी का इतिहास जिसने पूरी दुनिया के व्यापार जगत पर 290 वर्ष एक छत्र शासन किया.

2005 में एक भारतीय मूल के लन्दन में व्यापार कर रहे उद्यमी संजीव मेहता ने इतिहास की परतों के नीचे दबी द ईस्ट इंडिया कम्पनी काटाइटल ख़रीद कर व्यापार जगत को चौंका दिया था और सेंट्रल लंदन के लीडनहॉल इलाक़े में बनी एक शानदार इमारत की याद दिलादी जो अब ज़मींदोज हो चुकी है , इस इमारत का बहुत करीबी संबंध भारत से रहा है. बिल्डिंग का नाम था ईस्ट इंडिया हाउस।

संजीव मेहता ने 2005 से लेकर अगले पाँच वर्ष तक इतिहास की परतों में दबी इस कंपनी के बारे में ब्रिटेन के विभिन्न म्यूजियम में खोजबीन की, कॉमनवेल्थ देशों की यात्रा की, इस संबंध में उपलब्ध किताबें को पढ़ा और उपलब्ध अभिलेखों की भी गंभीरता के साथ पड़ताल की. इसके बाद इस कम्पनी के भविष्य की रूपरेखा बनाई , 2010 में 15 अगस्त के दिन इस कंपनी ने दोबारा व्यवसाय की शुरुआत की . पिछले तेरह साल से उनकी यह कंपनी चाय, कॉफ़ी , चॉकलेट , होम फ़र्निशिंग के लक्ज़री ब्रांड के व्यवसाय में लगी हुईहै, उनके स्टोर मेफेयर के अपमार्केट इलाक़े के अलावा यूरोप, अमेरिका , जापान, मध्यपूर्व के भी कई बड़े शहरों में कार्यरत है. इस साल उनका फ्लैगशिप स्टोर 94, बांड स्ट्रीट में खुल गया है .

मैं उनके मेफेयर में स्थित स्टोर में हाल ही में गया था, वहाँ की साज सज्जा और डिस्प्ले पर रखी सामग्री की गुणवत्ता ने प्रभावित किया . संजीव के व्यावसायिक कौशल ने बेशक लोगों को यह मानने के लिए विवश किया है कि जिस ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भारत पर लंबेसमय तक एक छत्र शासन किया और व्यवसाय पर प्रच्छन्न अधिकार जमाए रखा उसे आज एक भारतीय मूल के व्यक्ति ने ख़रीद लिया है लेकिन जिस तरह से ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अपने जीवन काल में दुनिया भर के व्यवसाय के आधे हिस्से को नियंत्रित किया उसकी मिसाल व्यवसाय के इतिहास में मिलना मुश्किल है.

मुझे उत्सुकता हुई कि लन्दन में वो सारी जगह तलाश करूँ जहां जहां से ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अपना व्यवसाय किया था और साथ ही यह भी जानने की कोशिश करूँ कि इस कंपनी की ऐसी कौन सी खूबियाँ रही जो उसने दुनिया के हर टाइम जोन में इसने अपनीउपस्थिति सफलतापूर्वक अभिलिखित की.

यह खोजबीन मुझे लन्दन के कई म्यूजियम और अभिलेखों के महत्वपूर्ण स्रोत ब्रिटिश लाइब्रेरी , फ़िलपॉट लेन , बिशपगेट स्थित क्रिस्बीहाल और लीडनहाल ले गई

अभिलेख बताते हैं कि कंपनी ने अपना व्यवसाय वर्ष 1600 के आस पास शुरू किया था और लगातार 258 वर्ष व्यापार किया , ब्रिटेन के लिए दूर दराज के टापुओं ही नहीं महाद्वीपों में भी व्यापार और शासन का मार्ग प्रशस्त किया. भारतीय उपमहाद्वीप में किस तरह से यहकंपनी व्यापार के साथ देश की सरकार भी बन बैठी यह अपने आप में कौतूहल और अलग से शोध का विषय है. जिस भारतीयउपमहाद्वीप में , सभ्यता , संस्कृति अपने उत्कर्ष पर था , कृषि उत्पाद , लघु उद्योग और हस्तशिल्प दूर देशों तक मशहूर था उसे ईस्टइंडिया कंपनी ने अपने व्यापारिक कौशल से अपना ग़ुलाम बना लिया और यहाँ के साधनों का जम कर अपने और अपने देश के लिए दोहन किया.

भारत में धीरे धीरे कंपनी के विरुद्ध नाराज़गी बढ़ रही थी जिसे 1857 के सैनिक विद्रोह ने उत्कर्ष पर ला दिया. हालाँकि इस विद्रोह को नियंत्रित कर लिया गया लेकिन उसके बाद ब्रिटिश सरकार ने कंपनी के हाथ से शासन का नियंत्रण ले लिया और उसे अपना बोरियाबिस्तर गोल करने का आदेश दे दिया. 1862 में सेंट्रल लंदन के लीडनहाल अवस्थित उसके व्यावसायिक केंद्र ईस्ट इंडिया हाउस को ज़मींदोज़ कर दिया गया. आज उस स्थान पर लायड इन्शुरन्स बिल्डिंग खड़ी हो चुकी है .

कंपनी ने सन् 1600 में जहाजी बेड़ों को सुदूर एशिया की ओर रवाना करके आयात निर्यात की शुरुआत की थी और अपने 270 वर्षों केजीवन काल में पूर्व के देशों से मसालों का आयात किया कई जगह शासक भी बन बैठी . कंपनी द्वारा एशिया से आयात किए जाने वाले मसालों के कारण ब्रिटिश ख़ान पान में गुणात्मक बदलाव होने लगा , ब्रिटेन के परंपरागत ऊनी कपड़ों की जगह सूती वस्त्रों ने तेज़ी से जगह बनानी शुरू कर दी. यही नहीं नाश्ते की मेज़ पर पूर्व से आयातित चाय की प्याली ने ले ली. सही पूछिए तो ब्रिटेन इस कंपनी के द्वारा किए गए व्यवसाय के कारण ही विश्व अर्थतंत्र में भारतीय उप महाद्वीप और चीन को कहीं पीछे छोड़ कर शीर्ष पर आ सका. व्यापार करते करते यह कंपनी कितने ही देशों की सत्ता पर भी क़ाबिज़ हो गई , कंपनी ने भारतीय उपमहाद्वीप में अपने व्यावसायिक हितों को सुरक्षित करने के लिए एक विशाल निजी फ़ौज खड़ी की उस के ज़रिए पूरे भारतीय उप महाद्वीप पर नियंत्रण स्थापित कर लियाथा .

कंपनी ने जब व्यापार का सिलसिला शुरू किया उससे कई शताब्दी पूर्व से ही समूचा एशिया विश्व का सबसे बड़ा उत्पादक इलाक़ा था, यहाँ के मसाले और ऐशोआराम का सामान सिल्क रूट से पहले इस्तांबुल और फिर वहाँ से वेनिस हो कर ब्रिटेन और पूरे यूरोप में पहुँचा करता था . पुर्तगाल यूरोप का पहला देश था जिसने 1498 में समुद्र मार्ग से भारत और एशिया के अन्य भू-भागों तक पहुँचने की कोशिश की और इसके बाद इस समुद्री मार्ग पर नियंत्रण रख कर पूरे सौ साल तक चीन और भारत से सिल्क और मसालों को यूरोप तक ले जानेका कारोबार किया. बाद में स्पेन भी इस दौड़ में शामिल हो गया.

पुर्तगाल और स्पेन में इस समुद्री मार्ग को लेकर काफ़ी राजनीतिकतनातनी और व्यापारिक स्पर्धा रहती थी जिसके कारण ब्रिटेन में मसालों और लक्ज़री सामान की आपूर्ति बाधित हो जाती थी . इससे निबटने के लिए लन्दन के कुछ व्यापारियों ने मिल कर मस्कोवी कंपनी की स्थापना की और बाल्टिक देशों और रुस के रास्ते सामान मंगाने की कोशिश की. इसके बाद लन्दन में कुछ और व्यापारियों ने मिल कर एक और कंपनी लेवंट बनाई जिसने प्रशांत महासागर के रास्ते व्यापारिक मार्ग तलाशने की कोशिश की।1591 में इस कंपनी के तीन जहाज़ डेवनपोर्ट से रवाना हुए उनका लक्ष्य था सुदूर पूर्व का रास्ता खोज कर नई व्यापारिक संभावनाओं के लिए निकले और सीलोन (आज के श्रीलंका) पहुँच गए लेकिन यह सफ़र बहुत ही मुश्किलों से भरा रहा , इस फ्लीट के कुछ जहाज़ी तो 1594 में ही वापस ब्रिटेन पहुँच सके. लेकिन इस खोजी यात्रा से काफ़ी उपयोगी जानकारी मिली और आने वाले वर्षों में व्यापारिक यात्राओं का मार्ग प्रशस्त हुआ. यही वो समय था जब डच लोगों ने भी व्यापारिकरास्ते खोजने शुरू किए , वे 1595 में इंडोनेशिया तक पहुँच गए, 1600 के आस पास डच कंपनी वीओसी ने समुद्री मार्ग से व्यापारकरना शुरू किया और समुद्री मार्ग से होने वाले व्यवसाय का आधा हिस्सा डच लोगों का हो गया.

यह वो समय था जब समुद्र के मार्ग से होने वाले व्यापार पर स्पेन, पुर्तगाल और डच नियंत्रण की होड़ में लन्दन को पहुँचने वाली सामानकी आपूर्ति अक्सर बाधित होती रहती थी. एक बार इस कारण लन्दन के बाज़ार में काली मिर्च के दाम तीन गुने महँगे हो गए थे.

इस स्थिति से निबटने के लिए लन्दन के व्यापारियों में विचार विमर्श चलता रहता था, लन्दन के मेयर की अध्यक्षता में एक नईव्यापारिक कंपनी बनाने का निर्णय लिया गया और इसके लिए इंग्लैंड की रानी को एक प्रतिवेदन प्रस्तुत किया गया. 1600 में नये वर्षकी पूर्व संध्या पर क्वीन एलिज़ाबेथ की ओर से ईस्ट इंडिया कम्पनी बनाने की स्वीकृति यानी चार्टर मिला जो आने वाली शताब्दियों मेंसमुद्री व्यापारिक मार्गों पर ब्रिटिश भागीदारी की दिशा में पहला महत्वपूर्ण कदम था . इस कंपनी का पहला व्यापारिक फ्लीट 1601 मेंवूलिच से रवाना हुआ . इस प्रोजेक्ट में 281 व्यापारियों ने सहभागिता की , फ्लीट इंडोनेशिया में सुमात्रा टापू पर पहुँचा , जहाज़ केप्रतिनिधि जा कर वहाँ के सुल्तान से मिले उन्हें उपहार भेंट किए और व्यापार करने की अनुमति प्राप्त कर ली. वापसी में फ्लीट के जहाज़ महँगे मसाले , सिल्क और अन्य सामग्री भर कर वापस पहुँचे, इस यात्रा से कंपनी को अच्छा मुनाफ़ा हुआ.

यह तो शुरुआत भर थी , अगले बीस वर्षों में हुई कंपनी के फ्लीट की व्यापारिक यात्राओं में ब्रिटिश जहाज़ भारत और जापान तक पहुँच गए . ब्रिटिशव्यापारिक प्रतिनिधियों ने भारत जा कर मुग़ल शासकों से भी भेंट की , और भारत में व्यापार के लिए अनुबंध किया , 1625 के आते-आते ईस्ट इंडिया कंपनी ने विदेशी सरज़मीं पर 12 फ़ैक्टरी स्थापित कर ली थी.

ईस्ट इंडिया कम्पनी के सबसे पहले चेयरमैन सर थॉमस स्मिथे थे. स्मिथे लन्दन के व्यापार जगत में बड़ा नाम थे ,वे स्किनर्स औरहेबरडैशर्स लाइवरी कंपनियों के सदस्य थे . बाद में वे अपने पिता की जगह लन्दन पोर्ट के कस्टम कलेक्टर के पद पर नियुक्त हुए . स्मिथे पार्लियामेंट के लिए भी चुने गए , बाद में लन्दन के शेरिफ़ भी बने , उनके नेतृत्व में कंपनी ने व्यवसाय को बढ़ाने में महत्वपूर्णउपलब्धि हासिल की . कंपनी के जहाजों की आठवीं व्यावसायिक यात्रा से कंपनी के भागीदारों को 221% लाभ हुआ . समुद्री मार्ग सेशुरू हुए कंपनी के व्यापार से ब्रिटेन को पर्याप्त मात्रा में मसालों की आपूर्ति होने लगी. वर्ष 1617 में कंपनी के जहाज़ बीस लाख पाउंड की मिर्चें लेकर आए. स्मिथे की व्यावसायिक निपुणता को देखते हुए किंग जेम्स प्रथम ने उन्हें रुस में ब्रिटिश राजदूत भी नियुक्तकिया. रोचक बात यह है कि ईस्ट इंडिया कम्पनी अपने प्रारंभिक बीस वर्षों स्मिथे के फ़िलपॉट लेन स्थित आवास से ही संचालित होतीरही. सर थॉमस स्मिथे का घर जब ईस्ट इंडिया कंपनी के कारोबार के हिसाब से छोटा पड़ने लगा तो फिर यह कारोबार बिशपगेट स्थित क्रिस्बी हॉल से संचालित किया जाने लगा. कंपनी का कार्यालय क्रिस्बी हॉल में 1648 तक रहा.

व्यवसाय में आशातीत वृद्धि के कारण कंपनी के कर्मचारियों की संख्या भी बढ़ने लगी और फिर लन्दन के मध्य लीडनहॉल इलाक़े मेंईस्ट इंडिया हाउस बन कर तैयार हुआ . आने वाले वर्षों में इस भवन के आकार में लगातार विस्तार होता चला गया . यहाँ कार्यालय के साथ ही एक म्यूजियम भी हुआ करता था, जिसमें कंपनी द्वारा एकत्रित की गई बेशक़ीमती वस्तुएँ भी रखी थी. अठारहवीं शताब्दी मेंईस्ट इंडिया हाउस का फ्रंट दोबारा से बना, 200 मीटर का यह फ़्रंटेज नियो क्लासिकल शैली का था , इसके प्रांगण में स्टैच्यू लगे थे, अब इसमें विशाल कोर्ट रूम हॉल , फाइनेंस कमेटी रूम, होम कमेटी रूम , नीलामी के लिए भी बड़ा कक्ष और एक पुस्तकालय भी जुड़गया था. अपने उत्कर्ष में कंपनी के केवल लन्दन में ही चार हज़ार कर्मचारी थे .

मैंने इस भवन के फ्रंट और अंदर के उपलब्ध चित्र देखे, उन्हें देख कर लगा कि आख़िर ईस्ट इंडिया हाउस की गिनती अपनी भव्यता के हिसाब लन्दन शहर के लैंडमार्क में क्यों होने लगी थी. इस भवन में काम करने वाले क्लर्क राइटर कहलाते थे यह नामकरण शायद इसलिए पड़ा होगा क्योंकि इन क्लर्कों का मुख्य काम ऑर्डर और संदेश लिखना होता था. रोचक बात यह है कि इसके लिए भारतीय कलम और इंक का इस्तेमाल किया जाता था , राइटर्स के द्वारा तैयार और प्रेषित किए हुए संदेशों के उत्तर सुदूर पूर्वी देशों से आने में कई बार पूरा साल लग जाता था. प्रसंगवश, ईस्ट इंडिया हाउस की ही तर्ज़ पर भारत के प्रमुख व्यावसायिक केंद्र कलकत्ता में कंपनी ने राइटर्स बिल्डिंग बनाई थी जिसमें आज वर्तमान में पश्चिम बंगाल की सरकार का सचिवालय है.

एक और रोचक तथ्य यह भी है कि अंग्रेज़ी भाषा के बेहतरीन हास्य व्यंग लेखक चार्ल्स लैम्ब ने लीडन हाल ईस्ट इंडिया हाउस में लगभग तीस वर्ष तक बतौर राइटर काम किया था. वे कहा करते थे, “मेरा प्रकाशित लेखन मेरा मनोरंजन का साधन था, मेरा असली काम तोलीडन हाल की अलमारियों में बंद है जो सैकड़ों फ़ोलियो में बिखरा हुआ है.यही नहीं महत्वपूर्ण पुस्तक “हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया “ के लेखकजेम्स मिल और “टसो” के अनुवादक और लेखक जॉन होले भी इस कंपनी में उनके सहकर्मी हुआ करते थे.

1649 में ब्रिटेन में राजशाही का स्थान पार्लियामेंट ने ले लिया, कुछ वर्षों की राजनीतिक उथल पुथल के बाद 1660 में राजशाही की वापसी हुई. इसके बाद कि जिसमें कंपनी द्वारा सुदूर भू भागों में स्थापित नए नए सेटलमेंट के शासन करने और वहाँ कंपनी के व्यापारिक हितों को संरक्षित करने के लिये अपनी सेना बनाने, अपने सिक्के ढालने और अपराधियों को गिरफ़्तार करने जैसी बातेंशामिल थीं. इस बीच ब्रिटिश , डच , स्पैनिश और पुर्तगाली व्यापारिक कंपनियों में प्रतिस्पर्धा को लेकर खूनी संघर्ष भी होते रहते थे, डच कंपनी अपेक्षाकृत अधिक ताकतवर थीं इसलिए उसने मसालों वाले टापुओं से ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को खदेड़ दिया.

इसके बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपना ध्यान भारतीय उपमहाद्वीप पर फ़ोकस किया . 1657 में ईस्ट इंडिया कंपनी एक जॉइंट स्टॉक कारपोरेशन में बदल गई यानी इसके शेयर आम नागरिक भी ख़रीद और बेच सकते थे. 1661 में एक और महत्वपूर्ण घटना घटी , पुर्तगाल की राजकुमारी कैथरिन ब्रेगेंज़ा का विवाह ब्रिटिश राजघराने में होने के हुआ और ब्रिटेन को बंबई के टापू दहेज में मिल गये, जिसके बाद ईस्ट इंडिया कंपनी को ये टापू मात्र दस पाउंड वार्षिक लीज पर मिल गए . अब कंपनी का पूरा ध्यान मद्रास , बंबई और कलकत्ता में अपने कारोबार को बढ़ाने और शासन को स्थापित करने में लग गया.

वर्ष 1700 में विश्व व्यापार में भारतीय उपमहाद्वीप कीभागीदारी 20 प्रतिशत थी और ब्रिटेन का हिस्सा केवल 2 प्रतिशत था . यह वह समय था जब भारत के उत्तर पूर्व में बंगाल क्षेत्र सबसेसमृद्ध था.यहाँ के बुनकर सदियों से बेहतरीन सिल्क, कॉटन टेक्सटाइल की रेंज बनाते आ रहे थे , इनमें मसलिन, कैलिको , डुंगरी जैसेउत्कर्ष रंगबिरंगे उत्पाद शामिल थे . ईस्ट इंडिया कंपनी यहाँ से कपड़ा ख़रीद कर लन्दन भेजती थी . कंपनी द्वारा आयातित सामान कोरखने के लिए लन्दन की कई लोकेशन में वेयरहाउस बनाये थे , 1771 में इनमें से सबसे बड़ा बैंगाल वेयरहाउस बिशपगेट पर बनाया गया जो शताब्दी के अंत तक विशाल कटलर स्ट्रीट काम्प्लेक्स का हिस्सा बन गया .

अठाहरवीं शताब्दी के प्रारंभ में कंपनी ने पूरे ब्रिटेन कोइन कॉटन उत्पादों से पाट दिया जिसके कारण ब्रिटेन की ऊनी सामान बनाने वाली मिलों के सामने अस्तित्व का संकट पैदा हो गया और1697 में लन्दन की सड़कों में ऊनी मिलों के मज़दूरों ने उपद्रव जैसे हालात पैदा कर दिए , यही नहीं इस दौरान संघर्ष में कंपनी औरइसके डायरेक्टरों की संपत्ति को भी क्षति पहुँची . ब्रिटिश सरकार ने इस आंदोलन से निबटने के लिए बंगाल के हैंडलूम को ब्रिटेन लाने पर रोक लगा जिसके कारण बंगाल का यह उद्योग लगभग बंद होने के कगार पर पहुँच गया.

सत्रहवीं शताब्दी में ईस्ट इंडिया कंपनी का ब्रिटेन में जलवा था. कंपनी के व्यापार पर लगने वाले कर और अन्य भुगतान से ब्रिटिश सरकार की गाड़ी चल रही थी. कंपनी के लन्दन स्थित हेडक्वार्टर से दुनिया भर के अपने स्थानीय केंद्रों को निर्देश दिये जाते थे कि उन्हें कौन सा सामान कितनी मात्रा में ख़रीदना है और उसका कितना दाम देना है. कंपनी ने अपने भारत स्थित गवर्नरों को पूर्णविवेकाधिकार दिया गया था कि व्यवसाय संबंधी निर्णय स्वतंत्र रूप से ले सकें. कंपनी की सबसे बड़ी ताक़त उसका बेहतरीन जहाज़ी बेड़े थे , यही नहीं उस पर कार्यरत कुशल सशस्त्र जहाज़ी किसी भी मायने में रॉयल नेवी सैनिकों से कम नहीं थे. कंपनी ने ग्रीनविच औरडेप्टफ़ोर्ड में जगह बनाने और मरम्मत के यार्ड बनाये, अपने चरम उत्कर्ष पर ये दुनिया के सबसे विशाल निजी क्षेत्र के शिपयार्ड बन गयेथे.

इधर भारतीय उपमहाद्वीप में कंपनी की महत्वाकांक्षा व्यापार के साथ राजनीतिक होती जा रही थी , अच्छे हथियार, गोला बारूद , अनुशासित नियमित फ़ौज एयर कुशल नेतृत्व के बल पर छोटी छोटी रियासतों को बिना किसी युद्ध या रक्तपात के नियंत्रित करनाआरंभ कर दिया था. लेकिन कंपनी में संकुचन सामने नहीं था , करप्शन बहुत बड़े स्तर पर चल रहा था, यही नहीं कंपनी की अधिक और अधिक लाभ कमाने की भूख ने भारत की अर्थव्यवस्था को लूटने और भारतीयों को गरीब बनाने का काम किया. उधर कंपनी ने चीन के नागरिकों को अफ़ीम का लती बना दिया. बंगाल जो दुनिया का सबसे संपन्न क्षेत्र था वह कंपनी की लाभ कमाने की भूख के कारण सबसे गरीब बन गया .

आज जब हम गूगल , माइक्रोसॉफ़्ट और ऐपल जैसी बहू राष्ट्रीय कंपनियों को सफलत कंपनी मानते हैं देख जाए तो अपने उत्कर्ष कालमें ईस्ट इंडिया कंपनी की जो आर्थिक और राजनीतिक ताक़त थी उस के सामने कुछ भी नहीं हैं .

संजीव मेहता द्वारा पुनर्जीवित की गई ईस्ट इंडिया कंपनी के मेफ़ेयर और बांड स्ट्रीट के शो रूम की तस्वीरें
संजीव मेहता द्वारा पुनर्जीवित की गई ईस्ट इंडिया कंपनी के मेफ़ेयर और बांड स्ट्रीट के शो रूम की तस्वीरें
संजीव मेहता द्वारा शुरू की गई ईस्ट इंडिया कंपनी के मेफ़ेयर और बांडस्ट्रीट के शो रूम की तस्वीरें
कुछ ऐसा दिखता था लीडनहॉल स्थित ईस्ट इंडिया हाउस

एक निवेदन

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