मकड़ी जाला बनाती है सुरक्षा के लिए लेकिन इस पूर्वानुमान के बिना कि वह जाले में ही घुट मरेगी। बाद में मकड़ी न जाले को छोड़ पाती है और न उसकी जकड़न से बच पाती है। भारत कितनी ही कोशिश कर ले वह तालाबंदी से बाहर नहीं निकल सकता। इसलिए कि ताले की चाबी वैक्सीन है। जब दुनिया भारत को वैक्सीन बना कर देगी तभी भारत तालेबंदी से बाहर निकल सांस ले सकेगा। आज तालाबंदी का 36वां दिन है। सोचें, इन 36 दिनों में क्या साबित हुआ? जवाब है भारत राष्ट्र-राज्य ने दुनिया को बता दिया है कि कोविड-19 वायरस से वह वैसे नहीं लड़ सकता है, जैसे विकसित देश लड़ रहे हैं। यों मेरा मानना है कि हमारी लड़ाई शुरू भी नहीं हुई है। वह जून से शुरू होगी और तब भी बिना मेडिकल हथियार के होगी। बिना टेस्ट के होगी। बिना सत्य जाने और बताए होगी।
सत्य अनुभव खराब है। अपने आशीष-श्रुति ने कोविड-19 को कवर करते हुए जितना घूमा-देखा-समझा है और फोटो खींचे हैं उसकी बैकग्राउंड के साथ मैंने पिछले दिनों मुख्यमंत्री से ले कर जिलों को संभाल रहे प्रशासनिक अधिकारियों से जो जाना-बूझा है वह जतला दे रहा है कि लड़ाई मेडिकल औजारों से नहीं, बल्कि अपने आपको फंसाने वाले मकड़जाल माफिक है। तभी हालात सामान्य होने, आर्थिकी को खोलने का कितना ही आत्मविश्वास दर्शाया जाए तालेबंदी-दर-तालेबंदी का मकड़जाल गहरा बनता जाना है।
तीन मई को तालाबंदी का दूसरा चरण खत्म होगा और तीसरा शुरू होगा। उस दिन भी वहीं कहा जाएगा जो 24 मार्च की शाम कहा गया था। तब भी हेडलाइन थी आगे भी हेडलाइन होगी। लेकिन वायरस से लड़ने की वह स्टोरी नहीं होगी, जो दुनिया के दूसरे देश, राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री अपनी-अपनी जनता को सुनाते हैं। ब्रितानी प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन खुद वायरस का शिकार हो अस्पताल में रह आए। भले-चंगे हो कर लौटे तो उन्होंने बताया कि कितना जरूरी है राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा एनएचएस को और मजबूत करना और जब तक प्रतिदिन एक लाख टेस्ट रोजाना का टारगेट पूरा नहीं हो जाता तब तक ताला खोलने या ढील देने का का सवाल नहीं है। साढ़े छह करोड़ की आबादी वाला ब्रिटेन रोजाना एक लाख टेस्ट के हथियार से वायरस को खोज- खोज कर मार रहा है तो 33 करोड़ की आबादी वाले अमेरिका ने 57 लाख टेस्ट करा कर आगे लाखों टेस्ट प्रतिदिन की रणनीति में विचार बनाया है। ठीक विपरीत 130 करोड़ लोगों का भारत देश सिर्फ सात लाख टेस्ट पर अपने नागिरकों को भरोसा दे रहा है कि सब ठीक है और आर्थिकी की चिंता का वक्त आया है। चीन से विदेशी कंपनियां भाग रही हैं तो भारत के लिए उन्हे बुलवा कर फैक्टरियां लगवाने का मौका है!
मकड़ी ऐसे ही इस दिशा, उस दिशा, चौतरफा तानाबाना फैला मौत का जाला बनाती है। यह सब ब्रिटेन, स्पेन, इटली, चीन, अमेरिका, न्यूयार्क में नहीं हुआ। अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप ने महामूर्खता वाली बातें कीं लेकिन वे सब वायरस से मेडिकल लड़ाई की चिंता में थीं। बेचारे ट्रंप का क्या दोष? वे क्योंकि अपने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मोदी के भारत को फॉलो करते हैं तो हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन को उन्होंने चमत्कारी दवा बता अमेरिका में अपनी मजाक बनवाई तब भी इलाज का एंगल था। जो समझ आया उन्होने सत्यता से बोला। ऐसे ही भारत के बरेली में केमिकल छिड़काव से मजूदरों को डिसइंफेक्ट होता उन्होंने देखा होगा तो सोचा होगा कि भारत का यह गुरूमंत्र आजमाने लायक, क्यों न सीधे फेफड़ों को सेनिटाइज्डो करने का इंजेक्शन ठोक वायरस को मरवा डालें। उस नाते व्यंग्य अच्छा है कि डोनाल्ड ट्रंप ने कोविड-19 के खिलाफ लड़ाई में मौलिक दवा और तरीके का जो ज्ञान अमेरिकियों को बांटा उसका श्रेय मोदी के भारत को है।
बहरहाल कोर मसला है ट्रंप व दूसरे देशों के तमाम नेताओं का वायरस को भयावह मानते हुए गंभीरता से उसे मेडिकल औजारों से लड़ना। मानना होगा कि अमेरिका ने, अमेरिकी जनता ने, वहां के गवर्नरों ने, मेयरों ने, मेडिकल-वैज्ञानिक जमात ने डोनाल्ड ट्रंप को भी मजबूर किया हुआ है जो वे कोविड-19 से लड़ाई में चौबीसों घंटे खपे हुए हैं। ट्रंप और अमेरिका ने वायरस से लड़ाई में इधर-उधर की बातों में न मेडिकल जमात का ध्यान भटकाया और न जनता को बरगलाया। ट्रंप ने बरगलाना चाहा तो संसद, मीडिया, प्रदेशों ने, शहर प्रशासन ने उन्हें नहीं सुना। कल ही खबर थी कि ट्रंप के घोर भक्त गवर्नर ने जार्जिया राज्य का ताला खोलने का फैसला किया लेकिन उसकी राजधानी अटलांटा के मेयर ने वीटो लगाते हुए फैसला दिया कि मेरे पास महानगर के नागरिकों की सुरक्षा का दायित्व है इसलिए मैं अपने शहर का ताला नहीं खोल रही!
तभी अमेरिका, विकसित देशों की वायरस के खिलाफ लड़ाई, वायरस को काबू में लेने का मेडिकल महायुद्ध है। हम लोगों को यह तथ्य जेहन में बैठाए रहना चाहिए कि आबादी के अनुपात में देशों ने टेस्ट के जरिए वायरस को तलाशा है और अस्पतालों में इलाज करके फैलाव रोका। दुनिया में यह एप्रोच भारत के अलावा कही नहीं सुनाई दी कि बिना टेस्ट के ही फतवा बन गया हो कि समुदाय संक्रमण नहीं है। न्यूयार्क में गर्वनर कुओमो या ब्रितानी सरकार के मंत्री वायरस के खिलाफ लड़ाई की रोजाना जानकारी देते हुए पहले यह बताते हैं कि आज अस्पताल में इतने मरीज आए। इतने मरे और यह फलां मृत्युदर व टेस्टिंग रफ्तार है।
बहरहाल, भारत की हर दास्तां निराली है। अपना मानना है कि भारत में कोविड-19 के खिलाफ लड़ाई कुल मिलाकर पुलिसकर्मियों, जिला प्रशासन कर्मचारियों और भयभीत नागरिकों की वायरस के साथ आंख मिचौली है। प्रधानमंत्री मोदी ने लोगों में आत्मविश्वास, जोश खूब फूंका लेकिन लोग भय में ऐसे कंपकंपाए हुए है कि भारत में डॉक्टर, चिकित्साकर्मियों को आम नागरिक शक की निगाह से देख रहा है। लोगों का बस चले तो चिकित्साककर्मी, पुलिसजन, आवश्यक सेवाजनों, मीडियाकर्मियों को क्वरैंटाइन में डाले रखे। सरकार ने तालेबंदी के बीच में भी हॉटस्पॉट की वह स्थिति, वह जाला बना डाला है, जिसमें वायरस चुपचाप मोहल्लों, कॉलोनियों, घरों में पक रहा है क्योंकि स्क्रीनिंग में तलाश टेस्ट के सैंपल लेने वाली नहीं है, बल्कि कागज-पेन लिए इन सवालों की है कि आपके यहां कोई बीमार तो नहीं! सरकार तालाबंदी के भीतर एक और तालाबंदी में सवाल-जवाब की स्क्रीनिंग के भरोसे वायरस को खोज रही है तो मोहल्ले वाले-घरवाले खोज रहे हैं कि फलां सब्जी वाला जो आया है वह वायरस लिए मुसलमान है या हिंदू!
वुहान, इटली, स्पेन, फ्रांस, ब्रिटेन, अमेरिका, न्यूयॉर्क ने तालांबदी के भीतर वायरस से लड़ाई में जो किया वह टेस्ट, ट्रेसिंग, इलाज के जरिए किया। पूरी दुनिया ने चौबीसों घंटे देखा है और मीडियाकर्मियों के कैमरों, एंकरों-पत्रकारों-संपादकों की सीधी रिपोर्टिंग और प्रसारण से देख रही है कि कैसे फलां अस्पताल में फलां ढंग से इलाज हो रहा है। शीशे के पार मरीज फर्श पर, वेंटिलेंटर पर लेटे हुए हैं। अस्पताल के मैदान में डॉक्टर, उनके आईसीयू का आंखों देखा हाल दिखलाते हुए पत्रकार पूरे देश को नागरिकों को लगातार चौबीसों घंटे जागरूक बना रहे हैं कि सारा दारोमदार टेस्ट और अस्पताल है। पर क्या भारत के हम लोगो ने किसी टीवी चैनल, मीडिया बहस या विचार-रिपोर्टिंग में जाना है कि जंग ए मैदान की सच्ची हकीकत क्या है?
कुल मिला कर हॉटस्पॉट के आबादी अनुपात अनुसार टेस्ट और इलाज का मसला है। इसके बिना वायरस को हरा नहीं सकते हैं। अब ऐसा क्योंकि भारत में है नहीं तो कोविड-19 से बचने के जुगाड़ में अपने आप क्रमशः मकड़जाल बनते जाना हैं।
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