ऋग्वेद 10/150/ 1-5 मन्त्रों में अग्नि रूप परमेश्वर को सुखप्राप्ति के लिए आवहान करने का विधान बताया गया है। ईश्वर से प्रार्थना करने और यज्ञ में पधारकर मार्गदर्शन करने की प्रार्थना की गई है। धन, संसाधन, बुद्धि, सत्कर्म इच्छित पदार्थों, दिव्या गुणों आदि की प्राप्ति के लिए व्रतों का पालन करने वाले ईश्वर की उपासना का विधान बताया गया है। अग्निदेव रूपी ईश्वर संग्राम में बुलाने पर अत्रि, भरद्वाज, गविष्ठिर, कण्व और त्रसदस्यु इन पांच ऋषियों की रक्षा करते है। आनंदप्राप्ति का कार्य पुरोहित वशिष्ट के माध्यम से गुणों को धारण करने पर होता है। ईश्वर अपनी आदित्य, रूद्र और वसु तीन दिव्यशक्तियों के साथ आकर हमें आन्दित करता हैं।
इस सूक्त में आये पांच ऋषि अत्रि, भरद्वाज, गविष्ठिर, कण्व और त्रसदस्यु हैं।
अत्रि:- भोजन में संयम रखने वाला अथवा काम, क्रोध, लोभ आदि को अपने अंदर प्रविष्ट नहीं होने देने वाला।
भरद्वाज: – अपने अंदर शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक शक्तियों को विकसित करने वाला।
गविष्ठिर:- अपनी वाणी पर स्थिर रहने वाला अर्थात वचन को पूरे मनोयोग से पूर्ण करने वाला।
कण्व:- कण कण में गति करता हुआ चरम उत्कर्ष पर पहुंचने वाला।
त्रसदस्यु- दस्यु/शत्रुओं को दूर करने वाला।
ये पांच ईश्वरीय गुणों वाले ऋषि है और अग्नि रूपी ईश्वर की आदित्य, रूद्र और वसु तीन
दिव्यशक्तियाँ हैं। वसु 24 वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला है और शरीर को स्वस्थ और पूर्णायु तक बसाए रखने की शक्ति रखने वाला है। रूद्र 44 वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए अपने ज्ञान और कर्म से रोगों को दूर करने वाला है। आदित्य 48 वर्ष तक संयम का पालन करने वाला देवता है। इस यज्ञ का पुरोहित वशिष्ठ अर्थात वह जो कुल, समाज और राष्ट्र को बसाता है। किसी को उजाड़ता नहीं है। उसे वशिष्ठ कहते है।
इस सूक्त में ऋषियों का अनुकरण करके स्वयं ऋषि गुणों को धारण करने वाले की ईश्वर अपनी दिव्य शक्तियों द्वारा रक्षा करते है। यही ऋषि बनने का साधन है। यही उत्कृष्ट ज्ञान ज्योति को प्राप्त करने का मार्ग है। यही अंतिम ध्येय है।
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