भारत को पहचान देने वाली गंगा पर करोड़ों रुपए खर्च किये जाने के बावजूद गंगा अविरल-निर्मल नहीं हो सकी है। केन्द्र तथा राज्य सरकारों द्वारा भी गंगा की हमेशा से ही उपेक्षा किया जाता रहा है। माँ गंगा के किनारे अपना जीवन गुजर बसर करने वाले करोड़ों लोग भी इसकी उपेक्षा करते रहे हैं। कई गंगा पुत्रों ने गंगा के लिये अपने प्राण न्यौछावर कर दिये और कर रहे हैं। एक और गंगापुत्र स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद ने माँ गंगा के लिये अपने प्राणों की बाजी लगा दी है। गंगा के विभिन्न मुद्दों पर अरुण तिवारी द्वारा स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद से हुई बातचीत पर आधारित एक शृंखला प्रस्तुत कर रहे हैं;
.खास परिचितों के बीच ‘जी डी’ के सम्बोधन से चर्चित सन्यासी स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद के गंगापुत्र होने के बारे में शायद ही किसी को सन्देह हो। बकौल श्री नरेन्द्र दामोदरदास मोदी, वह भी गंगापुत्र हैं। “मैं आया नहीं हूँ; मुझे माँ गंगा ने बुलाया है।’’ – श्री मोदी का यह बयान तो बाद में आया, गंगा पुत्र स्वामी सानंद की आशा पहले बलवती हो गई थी कि श्री मोदी के नेतृत्व वाला दल केन्द्र में आया, तो गंगा जी को लेकर उनकी माँगों पर विचार अवश्य किया जाएगा। हालांकि उस वक्त तक राजनेताओं और धर्माचार्यों को लेकर स्वामी सानंद के अनुभव व आकलन पूरी तरह आशान्वित करने वाले नहीं थे; बावजूद इसके यदि आशा थी तो शायद इसलिये कि इस आशा के पीछे शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती जी का वह आश्वासन तथा दृढ़ संकल्प था, जो उन्होंने स्वामी सानंद के कठिन प्राणघातक उपवास का समापन कराते हुए वृन्दावन में क्रमशः दिया व दिखाया था।
स्वामी सानंद के ऐतिहासिक उपवास का समापन हुए लगभग दो वर्ष पूरा होने को है। इस बीच श्री मोदी द्वारा गंगा और अपने रिश्ते का बयान आया। केन्द्रीय जल संसाधन मंत्रालय में गंगा और नदी पुनर्जीवन के शब्द जुड़े। ‘नमामि गंगे’ और ‘राष्ट्रीय गंगा मिशन’ ने नया सपना दिखाया।
कुछ काम भी हुए। मालूम नहीं, इन सभी से गंगापुत्र स्वामी सानंद की उम्मीदें कुछ परवान चढ़ी या फिर स्वामी सानंद भी उस श्रेणी में शुमार कर लिये गये, जिनके बारे में बतौर प्रधानमंत्री, लालकिले की प्राचीर से बोलते हुए श्री नरेन्द्र दामोदरदास मोदी ने कहा – “कुछ लोग होते हैं, जिन्हें अच्छा दिखाई ही नहीं देता।…वे जब तक निराशा भरी दो-चार बातें न कर लें, उन्हे नींद ही नहीं आती।’’
खैर, मुझे लगता है कि आलोचकों का मखौल उड़ाने से पहले प्रधानमंत्री जी को सोचना चाहिए कि जब आशा बलवती होती है, तो निराशा स्वयंमेव लोप हो जाता है। गंगा की प्रदूषण मुक्ति को लेकर अभी भी आशा के बलवती होने के संकेत किसी स्तर पर नहीं मिल रहे हैं; स्वयं प्रधानमंत्री और सम्बन्धित मंत्रालय की मंत्री सुश्री उमा भारती जी के स्तर पर भी नहीं। पदभार सम्भालने के सवा वर्ष बाद भी स्वयं सुश्री उमाजी यह कहने की स्थिति में नहीं कि देखो, हमने गंगा का यह हजारवाँ हिस्सा या गंगा में मिलने वाली किसी एक छोटी सी नदी को पूरी तरह प्रदूषण मुक्त कर दिखाया।
गंगा के नाम पर पूरा नागरिक समाज जैसे चुप्पी मारे बैठा है। गंगा किनारे के लोगों ने भी जैसे मान लिया है कि गंगा प्रदूषण मुक्ति का कार्य सिर्फ सरकार की ही जिम्मेदारी है। पूरा धर्मसमाज ऐसे मूक है कि जैसे गंगा प्रदूषण मुक्ति के नाम पर जो हो रहा है, वह पूरी तरह सकारात्मक और पर्याप्त है। ऐसे में आशा बलवती हो, तो हो कहाँ से?
मुझे यह भी लगता है कि समय आ गया है कि वर्ष 2013 में कठिन उपवास के 110वें, 111वें और 112वें दिन स्वामी सानंद से हुई मेरी बातचीत को शृंखलाबद्ध तरीके से समाज के सामने रखूँ। सम्भवतः स्वामी सानंद के अनुभवों व निष्कर्षों से समाज, सरकार और गैर-सरकारी संगठन… तीनों ही समझ सकें कि क्या हालात हैं, जिनसे निराशा पनपती है और क्या हालात हैं, जिनका विकास कर हम आशा को बलवती कर सकते हैं।
गौर कीजिए कि इस बातचीत से पहले मैंने कभी स्वामी जी से इस तरह बात नहीं की थी। सच कहूँ, तो प्रश्न या तर्क ठीक न लगने पर तुरन्त डाँट देने वाले उनके स्वभाव के कारण कभी हिम्मत ही न हुई। मुझे इस बात का आज भी सुखद आश्चर्य है कि इस बातचीत के लिये स्वामी सानंद ने मुझे स्वयं आमंत्रित किया। इतना ही नहीं, इस वार्ता अवधि के दौरान मेरे रहने-खाने के इन्तजाम को स्वामी जी ने अपना दायित्व माना।
आते वक्त उन्होंने मुझे दिल्ली से देहरादून आने-जाने का बस किराया दिया; साथ ही अपना ख्याल रखने का अपनेपन भरा निर्देश भी। यह आजादी भी दी कि मैं जैसे और जहाँ चाहे इस बातचीत का उपयोग करुँ। इस विश्वास और अपनेपन का आधार मैं आज तक नहीं समझ सका।
हाँ, एक बात और यह कि इस बातचीत से पहले औरों की तरह, स्वामी सानंद मेरे लिये भी एक जिद्दी, सामने वाले को अच्छा लगे या बुरा.. बिना लाग लपेट के कहने वाले, किन्तु पूर्णतया सादगी पसन्द, स्वावलम्बी तथा अपने विषय के ऊँचे दर्जे के विद्वान थे। गंगा प्रदूषण मुक्ति के अपने संकल्प को लेकर रणनीतियों में अनापेक्षित बदलाव के कारण उनमें परमार्थ में स्वार्थ की कुछ सम्भावना हो सकती है; यह शंका भी कई अन्य की तरह मेरे मन में भी कभी उपजी थी। इसे आप मेरे स्वयं का दिमागी मैल भी कह सकते हैं; बावजूद इसके मुझे स्वामी सानंद की गंगा निष्ठा पर कभी सन्देह नहीं था।
बातचीत के जरिए मैने स्वामी सानंद को समझने की कोशिश की। उनके काम की ईमानदारी को परखने और उनके जीवन की यात्रा कथा को खंगालने की कोशिश की। मैंने शृंखलाबद्ध तरीके से इस बातचीत को सार्वजनिक करने का निर्णय लिया है।
इस बातचीत का खुलासा होने पर आप समझ सकेंगे कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि रिहन्द बाँध के निर्माण में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर शामिल एक इंजीनियर अचानक बाँधों के खिलाफ हो गया? क्या हुआ कि जो प्रो. जी. डी. अग्रवाल एकाएक गंगा की तरफ खिंचे चले आये ? कौन से कारण थे कि एक शिक्षक, इंजीनियर और वैज्ञानिक होने के बावजूद प्रो. अग्रवाल ने अपनी गंगा प्रदूषण मुक्ति संघर्ष यात्रा की नींव वैज्ञानिक तर्कों की बजाय, आस्था के सूत्रों पर रखी? क्या वजह या प्रेरणा थी कि प्रो. अग्रवाल, सन्यासी बन स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद हो गये? कौन सी पुकार थी, जिसने प्रो. अग्रवाल को इतना संकल्पित किया कि वह अपने प्राण पर ही घात लगाने को तैयार हो गए?
यह बातचीत गंगा के मुद्दे पर सरकार, नागरिक समाज और धर्माचार्यों के असली और दिखावटी व्यवहार व चरित्र की कई परतों का तो खुलासा करती ही है, स्वयं स्वामी सानंद के व्यक्तित्व के कई पहलुओं को उजागर करती है। इसके जरिये आप स्वामी सानंद की गंगा संघर्ष रणनीति के सम्बन्ध में फैली कई शंकाओं का भी समाधान पा सकेंगे।
इस बातचीत के दौरान उल्लिखित रुड़की इंजीनियरिंग कॉलेज से लेकर बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी तक का उनका छात्र जीवन बताता है कि उस ज़माने में कॉलेज और विश्वविद्यालय सिर्फ उच्च शिक्षा ही नहीं, समाज में गौरव और नैतिकता के उच्च मानकों को स्थापित करने का भी केन्द्र थे।
स्वामी सानंद अपने युवावस्था में क्या विचार रखते थे? चन्द घटनाओं से आपको इसका एहसास होगा। बिहार के मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार ने एक बार कहा था कि रिटायरमेंट के बाद सब आईएएस. सन्त हो जाते हैं। यह बात अधिकारी वर्ग के बारे कभी-कभी सत्य भी प्रतीत होती है। क्या आईआईटी, कानपुर में अध्यापन से केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के प्रथम सचिव के प्रशासनिक पद तक की यात्रा और उसके बात के सुकृत्यों के आधार पर प्रो जी डी अग्रवाल जी के बारे में भी यही कहा जा सकता है? इस प्रश्न का उत्तर जानना दिलचस्प होगा।
स्वामी सानंद के पारिवारिक जीवन की एक झलक भी इस बातचीत में मुझे सुनने को मिली। गंगा के विषय में स्वामी सानंद की वैज्ञानिक और आस्थापूर्ण सोच, इस बातचीत का एक मुखर पहलू है ही।
स्वामी सानंद के साथ अपनी बातचीत को मैंने लिपिबद्ध करना शुरू कर दिया है। यह बातचीत तीन दिन, छह बैठक और करीब 26 घंटों में सम्पन्न हुई। भिन्न पहलुओं पर आगे-पीछे हुई बातचीत को सिलसिलेवार करने की दृष्टि से सम्पादित करने की आवश्यकता भी मुझे महसूस हो रही है। हाँ, ऐसा करने से न तो बातचीत के तथ्यों से खिलवाड़ हो, न बातचीत को गलत तरीके से पेश किया जाये और न ही अपने विचारों को थोपने की कोशिश हो; इसका पूरा-पूरा ख्याल रखना तो जरूरी है ही। अतः मैं ऐसा ख्याल रखूँगा, ऐसा विश्वास करें। उम्मीद करता हूँ कि जल्द ही बातचीत की यह शृंखला समाज के सामने ला सकूँगा।
स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद से मेरी बातचीत की शृंखला को मैंने एक शीर्षक देना तय किया है : ‘इन अँखियन जस जन-गन-मन देखा’ : स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद
विशेष अनुरोध : यह शीर्षक अन्तिम नहीं है। आप कुछ बेहतर सुझाएँगे, तो खुशी होगी। इस शृंखलाबद्ध बातचीत के लिये कौन सा प्रकाशन अथवा माध्यम उचित होगा; इस हेतु भी आपके सुझाव की आपसे अपेक्षा रहेगी।
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