उदयपुर के निकट हल्दी-घाटी में मेवाड़ के वीर योद्धा महाराणा प्रताप और मुगल बादशाह अकबर की सेनाओं के मध्य युद्ध छिड़ा हुआ था। महाराणा प्रताप ने एक पहाड़ी पर भील बस्ती में डेरा डाला था। बस्ती के भील लोग बारी-बारी से अपने महाराणा के लिए भोजन लेकर आते थे। एक दिन ‘दुद्धा’ के घर की बारी थी, किन्तु उसके घर में अनाज का एक दाना भी नहीं था। उसकी माता ने पड़ोसियों से आटा मँगवाकर रोटियाँ बनाई और दुद्धा को देते हुए कहा, “बेटा, यह पोटली राणा जी को दे आना।”
दुद्धा प्रसन्नतापूर्वक पोटली उठाकर पहाड़ी पर दौड़ता हुआ महाराणा प्रताप के डेरे की ओर गया। रास्ते में अकबर की सेना के तैनात सैनिकों ने उसे देखा और उसे पकड़ने के लिए उसके पीछे भागे। दौड़ते-दौड़ते दुद्धा एक चट्टान से टकरा गया और गिर पड़ा। एक मुगल सैनिक की तलवार से उसकी बालक कलाई पर गहरा घाव लग गया। फिर भी वह नीचे गिरी रोटियों की पोटली को दूसरे हाथ से उठा लिया और फिर से दौड़ने लगा। उसका एकमात्र लक्ष्य था कि किसी भी तरह महाराणा तक ये रोटियाँ पहुँचानी हैं। खून बहुत बह चुका था और दुद्धा की आँखों के सामने अंधेरा छाने लगा था।
जिस गुफा में महाराणा प्रताप ठहरे थे, वहाँ पहुँचकर दुद्धा चक्कर खाकर गिर पड़ा। उसने एक बार फिर से शक्ति इकट्ठी की और पुकारा, “राणा जी, ये रोटियाँ मेरी माँ ने भेजी हैं।” यह दृश्य देखकर महाराणा प्रताप की आँखें भर आईं। शोक का सैलाब उमड़ पड़ा। रक्त से लथपथ बालक के एक हाथ को देखकर उन्होंने कहा, “बेटा, तुम्हें इतना बड़ा संकट क्यों उठाया?”
वीर दुद्धा ने उत्तर दिया, “माँ कहती हैं, अगर आप चाहते तो अकबर से समझौता कर आरामदायक जीवन बिता सकते थे, लेकिन आपने राष्ट्र की रक्षा, अपनी संस्कृति और स्वाभिमान की रक्षा के लिए इतना बड़ा त्याग किया है, उसके आगे तो मेरा यह छोटा-सा बलिदान कुछ भी नहीं है।”