रामजस महाविद्यालय प्रकरण से एक बार फिर साबित हो गया कि हमारा तथाकथित बौद्धिक जगत और मीडिया का एक वर्ग भयंकर दोगला है। एक तरफ ये कथित धमकियों पर भी देश में ऐसी बहस खड़ी कर देते हैं, मानो आपातकाल ही आ गया है, जबकि दूसरी ओर बेरहमी से की जा रही हत्याओं पर भी चुप्पी साध कर बैठे रहते हैं। वामपंथ के अनुगामी और भारत विरोधी ताकतें वर्षों से इस अभ्यास में लगी हुई हैं। अब तक उनका दोगलापन सामने नहीं आता था, लेकिन अब सोशल मीडिया और संचार के अन्य माध्यमों के विस्तार के कारण समूचा देश इनके पाखण्ड को देख पा रहा है। इस पाखण्ड के कारण आज पत्रकारिता जैसा पवित्र माध्यम भी संदेह के घेरे में आ गया है। पिछले ढाई साल में अपने संकीर्ण और स्वार्थी नजरिए के कारण इन्होंने असहिष्णुता और अभिव्यक्ति की आजादी को मजाक बना कर रख दिया है। रामजस महाविद्यालय का प्रकरण भी इसकी ही एक बानगी है।
रामजस महाविद्यालय प्रकरण पर हाय-तौबा मचा रहे लोग क्या इस बात का जवाब दे सकते हैं कि आखिर क्यों रामजस महाविद्यालय में अभाविप का कथित हिंसक प्रदर्शन राष्ट्रीय विमर्श का मसला बना दिया गया, जबकि केरल में लगातार राष्ट्रीय विचार से जुड़े युवाओं, महिलाओं एवं बुजुर्गों की हत्याओं पर अजीब किस्म की खामोशी पसरी है? केरल में हिंसा का जो नंगा नाच किया जा रहा है, उस पर राष्ट्रीय विमर्श क्यों नहीं हो रहा? क्या केरल में हत्याएं सिर्फ इसलिए जायज हैं, क्यों उनमें वामपंथी कार्यकर्ताओं की भूमिका है? क्या लाल आतंक इस देश में स्वीकार्य है? महिलाओं को जलाना, मासूम बच्चे को सड़क पर पटक देना, नौजवान को उसी के माँ-बाप के सामने तलवार-चाकुओं से काट डालना, राष्ट्रीय चिंता का विषय क्यों नहीं है? वामपंथी हिंसा के कारण अनाथ हुई प्रतिभावान मासूम बच्ची विस्मया की मार्मिक कविता पर बुद्धिजीवियों के आँसू क्यों नहीं निकलते?
निश्चित ही बुद्ध और गांधी के इस देश में हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए। रामजस महाविद्यालय में जो हिंसा हुई है, उसका समर्थन नहीं किया जा सकता। लेकिन, यहाँ यह भी स्पष्ट करना होगा कि क्या हमें देश विरोधी सेमिनार स्वीकार्य हैं? भारत में ‘कश्मीर की आजादी’ और ‘बस्तर की आजादी’ के लिए होने वाले सेमिनारों का समर्थन किया जा सकता है? क्या देशद्रोह के आरोपियों को मंचासीन करने का स्वागत किया जाना चाहिए? रामजस महाविद्यालय प्रकरण में अभी जो बहस चल रही है, वह एक तरफा है। इस बहस में उक्त प्रश्नों को भी शामिल किया जाना चाहिए।
हमें यह भी देखना होगा कि कैसे वामपंथी खेमे ने बड़ी चालाकी से बहस का मुद्दा ही बदल दिया है। भारत विरोधी सेमिनार की जगह अब बहस सैनिक की बेटी पर की जा रही है। वामपंथी खेमा आतंकी हमले में बलिदान हुए सैनिक की बिटिया के पीछे खड़ा होकर राष्ट्रीय विचार पर हमला बोल रहा है। क्योंकि वामपंथी जानते हैं कि सैनिक की बिटिया से अच्छा कवच कोई और हो नहीं सकता। भारत विरोधी ताकतों ने राष्ट्रीय विचार पर चोट पहुंचाने के लिए बलिदानी सैनिक की बेटी गुरमेहर कौर का बखूबी इस्तेमाल किया है। लेकिन, यह भूल रहे हैं कि देश अच्छे से जानता है कि भारतीय सेना का कौन कितना सम्मान करता है। देश को अच्छे से पता है कि माओवादी और नक्सलियों ने जब दंतेवाड़ा में 75 से अधिक सुरक्षा जवानों की हत्या थी, तब किसने जश्न मनाया था? देश को यह भी पता है कि भारतीय सेना के जवानों को बलात्कारी कौन कहता है? यह भी सबको पता है कि सेना के जवानों और देश पर हमला करने वाले आतंकियों के पैरोकार कौन हैं? कौन आतंकियों को शहीद कहते हैं और उनका शहादत दिवस मनाते हैं? आतंकियों के लिए रात को दो बजे उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाने वाले लोगों की पहचान भी देश में उजागर है।
बहरहाल, वामपंथी खेमे और उसके साथियों को समझ लेना चाहिए कि इस देश में ‘भारत विरोध’ के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता स्वीकार्य नहीं हैं। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर ‘देश तोड़ऩे के नारे’ बर्दाश्त नहीं हैं। इसी प्रकरण में उस वक्त वामपंथी खेमे की अभिव्यक्ति की आजादी का पाखण्ड भी खुलकर सामने आ गया, जब एक ट्वीट के लिए क्रिकेटर वीरेंद्र सहवाग और रणदीप हुड्डा का जमकर विरोध किया गया। इसका अर्थ यही हुआ कि आपके विरोध में की गई कोई भी टिप्पणी आपको स्वीकार नहीं है। जब आपकी आलोचना की जाती है, आप पर प्रश्न उठाए जाते हैं, तब आपकी सहिष्णुता भी फुर्र हो जाती है। चूँकि आज देश में तथाकथित बौद्धिक जगत, मीडिया और वामपंथी विचारधारा के समर्थकों के झूठ, पाखण्ड और दोगलेपन पर सामान्य आदमी भी सवाल उठाने लगा है, इसलिए ही इन्हें देश में असहिष्णुता दिख रही है। अभिव्यक्ति की आजादी पर खतरा दिखाई दे रहा है। जबकि हकीकत यह है कि देश में वर्षों से सक्रिय अभारतीय विचारों का भारत विरोधी चेहरा अब उजागर हो रहा है।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)
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